ग़ज़ल
वो जो सहरा मे गुलाबों से निकल कर आए
यूँ लगा हाय हिज़ाबो से निकल कर आए
बादमुद्दत युँ लगा दिल ने धड़कना सीखा,
जब से चाहत मे वो ख़्वाबों से निकल कर आए
फूल गुलशन मे खिले नूर फ़िज़ा क्या कहना,
मेरे अश-आर किताबों से निकल कर आए
दर्द तूफ़ान-थपेड़ो में फंसे लाख मगर,
तैर हर बार बहाबों से निकल कर आए
हमने दामन में मुहब्बत के गुल खिलाए थे,
बेवफा यार हुबाबो से निकल कर आए
दिलनशी हो ये समा और नहीं रब रुठे,
वो ‘मृदुल’ प्रश्न जवाबो से. निकल कर आए
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’