कविता

ग्रीष्म ऋतू

ग्रीष्म  ऋतू, अब आई है,
भीषण  गर्मी, ये लायी है।
सूर्य  हुआ है, लाल-लाल
लोग हो रहे, हाल-बेहाल।
जल रहा जमीं आसमान।
हो रहे हैं, सभी हलाकान।

मंजर

बूँद-बूँद, पानी, हो गया है अब खास
इसको हर  कोई कर  रहा है तलाश।
क्योंकि गर्मी  का हो  रहा है आभास
इसके  बिना  हो रहे हैं, सभी हताश।
इसको  समझ  पाते, यह पहले काश
नही  सुखता गला, बुझ जाती प्यास।
नदी तालाबों मे पानी होता आसपास
हरियाली होती, मंजर न होता उदास।

बेपरवाह

लोग  हो गये हैं, कितने लापरवाह
यहाँ किसी का नही करते परवाह।
पर्यावरण की, नही सुन रहे कराह
इसीलिए लग रहा, सभी को आह।
धरा  करती रही है, हमेशा आगाह
पर यह  इंसान बना रहा बेपरवाह।

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578