पर्यावरण

आवास की तलाश में हिंसक होते जीव

उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिले बहराइच में पिछले दिनों भेड़ियों का भीषण आतंक फैला था। वहां बीते मार्च में शुरू हुए भेड़ियों के हमलों में अब तक सर्वाधिक शिकार इलाके के छोटे-छोटे बच्चे हुए हैं। इन हमलों में अब तक नौ बच्चों समेत लगभग दर्जन भर लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि चालीस से अधिक लोग घायल हुए हैं। घायलों में भी अधिकांश बच्चे ही हैं। यों भेड़िए ही नहीं, हाथी, शेर, सियार, तेंदुआ, चीता, भालू और बाघ जैसे बेहद खूंखार और भयावह वन्य पशुओं की मानव बस्तियों में घुसपैठ और उनके द्वारा मनुष्यों, विशेष रूप से बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं पर हमले की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। महाराष्ट्र में बाघों, भालुओं, तेंदुओं और जंगली हाथियों, मध्यप्रदेश में सियारों और पूर्वोत्तर के राज्यों में जंगली हाथियों के हमले जैसे आए दिन की बात हैं। निर्विवाद रूप से ये घटनाएं अत्यंत दुखद और भयावह हैं। इसलिए लोगों का आक्रोशित होना उचित है, लेकिन प्रश्न है कि आखिर जंगल में आजाद विचरने, छोटे वन्य पशुओं का शिकार कर अपना तथा परिवार का भरण-पोषण करने और सामान्यतया अपने परिवार के साथ जीवन यापन करने वाले ये भेड़िए इतने खूंखार क्यों हो गए कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को मारकर खाने लगे।
दरअसल, देश भर में जंगलों की बेतरतीब कटाई के कारण वन्य पशुओं का आशियाना दिनोंदिन उजड़ता जा रहा है। आज विश्व की कुल जनसंख्या आठ अरब से अधिक हो चुकी है और प्रति वर्ष इससे दो गुने से ज्यादा, लगभग अठारह अरब वृक्षों की कटाई हो रही है। पेड़ों की इस अंधाधुंध कटाई की भरपाई का एक ही तरीका हो सकता है और वह है तीव्र गति से नए पौधों का रोपण और उनकी देखभाल करना । यानी जितने पेड़ प्रति वर्ष काटे जा रहे हैं, कम से कम उतने पौधे भी दुनिया भर में लगाए जाएं। हालांकि उन पौधों के पेड़ बनने में कई वर्ष लग जाते हैं। इसलिए वास्तव में पौधरोपण की जो वर्तमान दर और गति है, उससे लगातार नष्ट किए जा रहे जंगलों के एवज में नए जंगल उगा पाना संभव नहीं है। पौधरोपण वन्य पशुओं के प्राकृतिक रहवास और पर्यावरण दोनों को बचाने का सर्वश्रेष्ठ विकल्प है, किंतु इस कार्य में पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त करने के लिए पौधरोपण की गति को इस हद तक बढ़ाना होगा कि जितने वृक्ष प्रति वर्ष दुनिया भर में काटे जाते हैं, कम से कम उससे डेढ़ गुना पौधे लगाए जाएं। फिलहाल प्रति वर्ष अठारह अरब काटे जाने वाले वृक्षों की तुलना में दुनिया भर में मात्र पांच अरब पौधे लगाए जा रहे हैं। जाहिर है में कि इस प्रकार पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की भरपाई संभव नहीं होगी।
भारत में भी वृक्षों की अंधाधुंध कटाई जारी है। लोकसभा में एक सवाल के जवाब में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने 21 मार्च, 2022 को बताया था कि वर्ष 2020-21 के दौरान भारत में सार्वजनिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के निर्माण और विकास के लिए लगभग 31 लाख पेड़ काट दिए गए। वन (संरक्षण) अधिनियम के अंतर्गत काटे गए पेड़ों के बदले में प्रतिपूरक वनीकरण की योजना चलाकर केंद्र सरकार ने 359 करोड़ रुपए की लागत से 3.6 करोड़ से अधिक पौधे लगाए, जो नाकाफी लगते हैं, क्योंकि फिलहाल इससे संबंधित कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि उनमें से कितने पौधे बचाए गए और कितने नष्ट होने के लिए छोड़ दिए गए। बहरहाल, वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण दिनोंदिन वन्य पशुओं का प्राकृतिक रहवास सिकुड़ता जा रहा है, इससे इनके लिए भोजन- पानी की समस्या पैदा हो गई है। इसीलिए वन्य पशु भोजन-पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर पलायन करने पर मजबूर हुए हैं। वैसे, भेड़िए स्वभाव से खूंखार तो होते हैं, पर सारे भेड़िए आदमखोर नहीं होते। हालांकि प्रतिशोध लेने में ये बड़े माहिर होते हैं इसलिए अगर इनको या इनके परिवार के सदस्यों को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया जाए, तो ये कतई सहन नहीं करते और अपने शत्रुओं से बदला लेते हैं।
आज से लगभग पच्चीस वर्ष पहले ऐसी ही एक घटना सुर्खियों में आई थी, जिसमें उत्तर प्रदेश के जौनपुर और प्रतापगढ़ जिलों में सई नदी के कछार पर भेड़ियों के हमलों में इलाके के पचास से भी अधिक मासूम बच्चों की मौत हो गई थी उसकी पड़ताल करने पर पता चला था कि इंसान के कुछ बच्चों ने भेड़ियों की एक मांद में घुसकर उनके दो बच्चों को मार डाला था, जिसके प्रतिशोध में भेड़ियों ने हमले कर मनुष्यों के पचास से अधिक मासूम बच्चों को मौत के घाट उतार दिया था। उस दौरान वन विभाग द्वारा चलाए गए भेड़ियों के धर-पकड़ अभियान में कुछ भेड़िए पकड़े भी गए थे, लेकिन उनके बीच में मौजूद आदमखोर जोड़ा हमेशा बचता रहा और बदला लेने के कोशिश में लगातार कामयाब भी होता गया। हालांकि बाद में आदमखोर भेड़ियों को वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा गोली मार दी गई और अंततः भेड़ियों का खूनी आतंक खत्म हो पाया था। गौर करें तो बहराइच की घटनाओं में भी भेड़ियों का वही व्यवहार नजर आता है। इसलिए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि भेड़िए अपने बच्चों को नुकसान पहुंचाने या उनकी हत्या करने का बदला ले रहे हों। बहरहाल, दुख की बात यह है कि एक बार फिर भेड़ियों की जान खतरे में आ गई है, क्योंकि शासन-प्रशासन की ओर से इन्हें गोली मारने का आदेश दे दिया गया है। वैसे भेड़ियों के विरुद्ध की जाने वाली सरकारी कार्रवाइयों पर गौर करें तो उनके जीवन का सर्वाधिक स्याह पक्ष अंग्रेजों के समय का है, जब ब्रिटिश सरकार की ओर से भेड़ियों को मारने का बड़ा अभियान चलाकर चालीस वर्षों में एक लाख से अधिक भेड़ियों को शिकारियों ने मार डाला था और ब्रिटिश राज की तरफ से ईनाम भी प्राप्त किया था।
देखा जाए तो मनुष्य और वन्य पशुओं के बीच जारी संघर्षो का यह सिलसिला बेहद गंभीर और चिंताजनक है। इसलिए समय रहते इसका हल ढूंढ़ना जरूरी है अन्यथा यह समस्या अत्यंत विकराल रूप ले सकती है। जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें वन्य प्राणी विशेषज्ञों की सलाह लेकर वन्य पशुओं के प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करने तथा बड़े स्तर पर वनीकरण अभियान चलाकर वनों के विकास करने की दिशा में कुछ ठोस और सकारात्मक कदम उठाएं, ताकि हमारे वन्य जीव आजादी से अपने घरों में बेफिक्र होकर रह सकें। संभव है कि इन प्रयासों के फलीभूत होने में कई वर्ष लग जाएं, लेकिन इस दौरान एक कार्य किया जा सकता है, वह है इन वन्य प्राणियों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना। इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर इन वन्य पशुओं के विरुद्ध क्रूरता के बदले में दया का भाव दर्शाया जाए और इनको लाड़-प्यार दिया जाए, तो मनुष्यों के प्रति इनके हिंसक व्यवहार में भी परिवर्तन आ सकता है।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट

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