अकेला रोता हूँ
मैं नित-रोज अकेला छुप-छुपकर, दुनिया से अकेला रोता हूँ।
बीती उन यादों की मस्ती को, अब गीत बनाकर गाता हूँ।
अफसोस बचा है इस जीवन में, सिसकी भर-भर रोने को।
लूटा दिया था वो स्वर्णिम सवेरा क्या शेष रहा अब खोने को।
मैं नित-रोज अकेला छुप-छुपकर, दुनिया से अकेला रोता हूँ।
नादान दौर के वो किस्सें अब किसी और के हिस्से में।
मुसकाने दो पागल बनकर प्यार-वफा की कसमों में।
सुनायेगा लुट-लुट कर फिर कोई गाथा नये तराने नगमों में।
मैं नित-रोज अकेला छुप-छुपकर दुनिया से अकेला रोता हूँ।
सस्ती है यौवन में मस्ती, धूल उड़ाते,धुआं फेंकते
पान चबाते पीक मारते जर्दे में मर्दानी है,
लज्जा के थोड़े यूँ मुस्काते प्रेमवीर ये नादानी है।
मैं नित-रोज अकेला छुप-छुपकर दुनिया से अकेला रोता हूँ।
फैला के मंजर बर्बादी, आग लगाकर अपने ही घर को।
आहुति दी निज जीवन की, स्वाहा किया मूर्ख मंत्र मित्रों से।
याद सताती प्यार वफा की, किसी खफा हो जाने से।
मार कुल्हाड़ी निज पैर पर उपदेश बाँचते ब्रह्मा का।
मैं नित-रोज अकेला छुप-छुपकर दुनिया से अकेला रोता हूँ।
क्या करते दुनिया से शिकायत वक्त को मैं समझा ही नहीं,
ताकत देता था जो जलवा मंजर बर्बादी छोड़ गया
अफसोस रहा अब इस जीवन में जीवन की मधुरता बिखर गई।
मैं नित-रोज अकेला छुप-छुपकर दुनिया से अकेला रोता हूँ।
— डॉ. राजेश कुमार बिंवाल ‘ज्ञानीचोर’