होली की हुड़दंग के.पी. के संग
मैंने खिड़की के बाहर झांका, बाहर दे दनादन रंगों की बरसात जारी थी। मिर्जा लिपे-पुते सनसनाते हुए चले आ रहे थे। गली-कूचों के लौंडो-लपाड़ों ने उन्हें पोत-पात कर अच्छा-खासा मिकी माउस जैसा बना डाला था। मिर्जा दरवाजा भड़भड़ाते इससे पहले मैंने दरवाजा खोलकर तेजी से उन्हें, अन्दर फेंका। कुर्सी पर पसरते हुए टोपी ढीली की, फिर उसे दूसरी कुर्सी पर टांगी फिर लम्बी-लम्बी सांसें छोड़नी शुरु कीं, जैसे इंजन एअर निकाल रहा हो-फिर मिर्जा बोले-‘उफ! अल्लाह कसम लल्ला! होली के खूबसूरत रंगों को शहर के कुछ उठाईगीरों ने बदसूरत बना डाला। मियां ये भी कोई बात हुई कि भोले-भाले मुझ जैसे बुजुर्गों को जबरदस्ती पकड़ कर रंग में ही बोर दो। होली, बराबर हमजोली में भली होती है। अब मेरा जोड़ के.पी. जैसों के साथ फिट बैठता है, पर इन टपोरी लौड़ों को छटांक भर तमीज कहाँ?
मिर्जा ने चूने की गिलोरी मुंह में फेंक कर अपनी दाढ़ी का गुलाल झाड़ा-मुझ से मुखतिब थे ‘अरे! लल्ला अब तो होली में शहर के मनचले अद्धा पौव्वा अपनी नट्टी में उड़ेलकर भौड़े गीतों पर गिर-पड़ कर नाचते-कूदते हुए किसी के साथ कुछ भी कर सकते हैं-ऊपर से जब कहीं वे लड़-भिड़ कर मर-खफ जाएं तो दोष पुलिस के मत्थे पर। पीने वालों को बस कोई बहाना चाहिए। अमां मियां तुम कौन? कहां से टपके ? के.पी.लल्ला दिखाई नहीं पड़ रहे ?
“मैं लखीमपुर से सुरेश, के. पी. चच्चा बाथरूम में दाढ़ी भिगो रहे हैं-शायद अब फूल गई होगी। संभवतः अब कटाई-छंटाई पर नम्बर आने वाला हो।“
‘‘लगता है सुबह-सुबह के. पी. ने भी भाँग की गोली गटक ली है, जभी तो होली खेलने के कीमती वक्त में फालतू घास-फूस की कटाई सफाई में जुट पड़े।’
उसी समय के.पी. चच्चा तौलिए से अपने चमचमाते गाल को पोंछतेे हुए प्रकट हुए-फिर अपनी मूछों को मंगल पांडे वाले आमिर खान की भांति ऐंठा-फिर मिर्जा पर गुलाल लेकर टूट पड़े-मिर्जा भी पूरी तैयारी से थे-दो भूतपूर्व जवानों की हू तू तू हू तू तू..पैंतरे बाजी देखकर मैं बहुत रोमांचित था। विस्मित था। दोनों ने खूब तन-मन से एक-दूसरे को रंगा फिर गले मिले। अहा! मिर्जा और के.पी. के जब हृदय एक हुए तो मेरा दिल भर आया आँखें न जाने क्यों पनीली हों गईं, होठ बुदबुदाये काश! हर हिन्दू-मुसलमान के. पी. मिर्जा जैसा हो जाए तो गोधरा जैसी घटनाएँ यूं गुजरात क्या पूरे विश्व में कहीं न घटे, पर फिरकापरस्ती भूतों को चैन कहां, फिर उनके रंगों में मैंने भी अपना तन-मन रंग लिया। निहाल हो गया।
के.पी. चच्चा मिर्जा अंकल के सामने मेरा पूरा बायोडाटा रखते हुए बोले-“मियां नया छोरा है। पच्चीस बसंत पार कर चुका है। सात सालों से खूब कलम घिस रहा है, इसलिए छुहारा सा होता जा रहा है। मिर्जा कलम और कुदाल का खेल भी जगत में बड़ा निराला है। इसका असली मूल्य वहीं चुका सकता है, जो अपना पूरा जीवन वफाई के साथ, इसके साथ बिता डाले। कलम चलती रहे किताबों-पाठकों का कारवां बनाते हुए और कुदाल चलती रहे हमेशा फसलें उगाते हुए, नव सृजन करते हुए। जिन्हें कलम और कुदाल की वास्तविक कीमत का ज्ञान है, वे कभी रुकते नहीं, कभी थकते नहीं, कभी चूकते नहीं, तमाम बधाएँ-समस्याएँ उनके सामने थक-हार कर चूर-चूर हो जाती हैं।”
“ज्यादा फिलासफी न फेंको लल्ला! अपना मूड अब चाय के साथ पापड़ खाने का हो रहा है और गरमा-गरम गुझियों से भी लड़ने-भिड़ने के लिए पूरे एक साल से दिल बेकरार है-अब तड़ से मंगवा लो-रहा नहीं जाता।”
के.पी. चच्चा ने मिर्जा की बेताबी का इंतजाम किया। मिर्जा ने दो कप चाय पापड़ नमकीन खींची फिर गुझियों से जंग जारी की। खाते-खाते-बोले-“यह लड़का सुरेश कुंवारा मालूम पड़ रहा है, तुमने अभी तक इसके कदरदान क्यों नहीं ढूंढें?“
“वाह! मिर्जा मान गये तेरी गिद्ध दृष्टि को। कुछ समझे मिस्टर सौरभ हमारे दोस्त मिर्जा को मुर्गे-मुगियों से लेकर इंसानों तक के कुँवारे पन की परख हैं। हां मिर्जा ये सौ फीसदी कुंवारा है-शुद्धता की गारंटी के लिए के.पी.ट्रेडमार्क। आज ही तड़के आया है-किसी फिल्म वाले ने संवाद-लेखन के लिए लखनऊ बुलाया था और लखनवी नजाकत नफासत देखने के लिए भी बहुत दिनों से यह छटपटा रहा था। इसलिए बुला लिया। एक पंथ दो काज हो जाएंगे। लेखक होने के नाते मेरा दिल इससे जुड़ा है।… अब क्या करूँ ? कुछ समझ में नहीं आ रहा, यह मेरे साथ लखनवी नजाकत देखने की जिद कर रहा है और अब अपनी उम्र कल के इस छोकरे के साथ टहलने-घूमने वाली कहाँ रही। अगर इसका हाथ पकड़ कर कहीं चल पड़ा, तो पोते-पोतियों यहीं कहेंगे-बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम-अब तुम्हारे हवाले यह बंदा करता हूँ, चाहे जहाँ घूमा डालो, चाहे जहाँ नचा डालो, तुम्हारी मर्जी और जरा इसके कदरदानों का भी ख्याल करना ।“.
मिर्जा खिसकते हुए एकदम मेरे करीब आ गए, फिर ढीले-ढाले अपने रंगीन होंठों से मेरे खुरदुरे गालों पर एक चुम्मी ले ली बोले-‘‘मियां तुम बिलकुल चिंता न करो। के.पी. ने भले ही अपनी जान छुड़ा ली हो, पर मैं तुम्हें लखनवी नफासत जरूर दिखाऊँगा और तुम्हें चौक की चाट और चारबाग की रेवडियां भी खूब खिलाऊंगा-यार! के. पी. मुझे भी न इसे देखकर अपनी जवानी के दिन याद आ गये। कैसे मैं और तुम हजरतगंज की नाजों-अदा पर अपनी जान छिड़कते थे। दिन क्या कभी-कभी पूरी-पूरी रातें भी चाट-पकौड़ी-आइसक्रीम खाते-खाते कब फुर्र हो जाती थीं-कुछ पता भी नहीं चलता था-वो भी क्या दिन थे-अब उखड़े चमन में बहार कहां।’’
“मिर्जा बेलाइन मत दौड़ों-मेन मकसद पर लौट आओ-मैं एक कुंवारे के दर्द की बात कर रहा है और तुम अपना पुराना घिसा-पिटा रिकार्ड जारी किये जा रहे हो।’’
मैं कुछ बोलने को उचका तभी तुरन्त मिर्जा अंकल ने मेरे मुंह पर अपना हाथ धर दिया बोले-“तुम चुपो मियाँ मैं तुम्हारे दर्द को समझता हूँ, ज्यादा दुःखी न हो, इसी सीजन में दौड़-भाग करके तुम्हारा बैण्ड बजवा दूंगा… पर के.पी. भाई इस लड़के की शादी में थोड़ा टाइम लगेगा-पहले यह आँखों से पावर वाला यह चश्मा उड़ाए, पतलून की जगह टाइट जीन्स में घुसे और यह दादा आदम टाइप जैसी शर्ट उतार कर पोंछा लगाने वाली किसी मेहरिन को गिफ्ट कर दे फिर टी शर्ट में खुद को फिट करे। थोड़़ा क्रीम-पावडर मुँह पर चपोड़ कर थोबड़े की बढ़िया डेंटिंग पेंटिंग करे, थोडी कसरत कर के बदन पर चार-पांच किलो चर्बी चढाए, तब कहीं कोई घास डालेगा।“
के.पी. ताव में बोले-“देखो! मिर्जा, ज्यादा अपने भाव न चढ़ाओ-एक लेखक के सामने दूसरे लेखक की बेइज्जती कतई बर्दाश्त नहीं करूंगा-जब सारे जमाने के गम लेखक खायेगा तो मोटा क्या खाक होगा, लेखक की मजबूत कलम ही उसकी आन-बान और शान होती है। शरीर की तुलना कभी कलम से करने की भूल न करना। देखो मैं भी कलम का सींकिया पहलवान है। बावन सालों से, मजबूती से, कलम का साथ निभा रहा हूँ। क्या कमी रही जीवन में, बीवी मिली-बच्चे मिले-पोते-पोतियाँ सभी कुछ तो दिया ऊपर वाले ने…. खैर जाने दो, जब हमारे देश में सिर्फ कमर मटकाने वाले कूल्हे चलाने वाले सांसद-मंत्री बन जाते हैं। अनपढ़ मुख्यमंत्री बन जाते हैं, तो एक मामूली शादी में कैसी विघ्न-बाधा।’’
“शादी को मामूली न समझना लल्ला। जरा इतवार वाला परिणय-सूत्र वाला पन्ना जरा ध्यान से पढ़ा करो। हजारों-लाखों पचास साला लड़के सालों से बीवी की माँग कर-कर के परेशान हैं। साठ-साठ साला कन्याओं को पांच-पांच बच्चे वाला पति भी चलेगा… और उसमें भी लाले…
दो दोस्तों ने घर की बैठक को बिलकुल संसद बना डाला। मैं दंग था, शादी की तिल भर फिकर मुझे नहीं ये खामख्वाह झगड़े जा रहे है। जब कांव-कांव ज्यादा बढ़ गई और मुझे बर्दाश्त न हुई तो मैंने पास में रखे टेप को आन कर दिया… रंग बरसे भीगे चुनर वाली…..मिर्जा-के.पी. ने परस्पर गद्दर मुसकान फेंकी। मैं भी ही ही, हा हा कर रहा था। फिर मिर्जा ने के.पी. को खड़ा किया। उनका अंग-अंग थिरकने लगा, फिर दो दोस्त होली की मस्ती में डूबकर ताकधिनाधिन नृत्य प्रारंभ कर चुके थे।
मैं गुझियों-पापड़ों से दो-दो हाथ कर रह था, लेकिन मिर्जा अंकल ने जबरदस्ती मुझे भी खींच लिया। मैं कंगारुओं की भांति उछलने कूदने लगा… सारा आलम रंगमय हो गया, मस्तीमय हो गया… तभी किसी ने मेरे मुँह पर एक बाल्टी रंग फेंका भचाऽऽक..अरे! अरे! ये रंग कहां से..? ये तो पानी है-अम्मा जी सामने खड़ी थीं बोली-यूँ ही घाम में पड़े-पड़े सूखते रहोगे क्या? रंग नहीं खेलने जाना। मैंने आंखें मिलमिलाईं अगड़ाई ली-जमहाई लेते हुए बुदबुदाया-अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं? उफ! कहाँ के.पी, मिर्जा अंकल शादी के जाल में फंसाना चाह रहे थे। फिर रंग-गुलाल लेकर चल पड़ा अपनी हुड़दगी टोली के साथ।
— सुरेश सौरभ