कुप्रथाओं का प्रतिकार करतीं लघुकथाएँ (मेरी पसंद)
गोला गोकर्णनाथ के वरिष्ठ जन कवि नन्दी लाल कहते हैं-
तेज हवाओं के झोंकों से बाहर निकली कई दफे।
और सियासत ने दिन भर में सूरत बदली गई दफे।।
मुनव्वर राना ने कहा-
सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है।
कभी देखा है पत्थर पर कोई बेल लगती है ।।
आज की दूषित सियायत ने जातीय-धार्मिक उन्माद ऐसा पैदा किया है कि हर तरफ नफरत की चीखें उठ रही हैं। मजलूमों की आहें उठ रही हैं। इस्राइल, हमास का युद्व काफी समय से चल रहा है। हजारों मारे गये, दोषी कौन? बांग्ला देश में धर्म के नाम हो रही हत्याओं के पीछे कौन दोषी है? मणिपुर जातीय हिंसा उन्माद से जल रहा है, कौन दोषी है? मनीषा को आधी रात में जलाया गया ,उसकी आत्मा को न्याय न मिला, कौन दोषी? मॉब लिचिंग करने वाले, कराने वाले कौन लोग हैं। एक ही जवाब ओछी सियासत? नीत्शे के कहा था, ‘‘ईश्वर मनुष्यों द्वारा बनाई गई एक कल्पना है, इसलिए तब यह मानने का कोई अच्छा कारण नहीं रहता कि ईश्वर मौजूद है, तो ईश्वर मर जाता है।’’ संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर के साथ जब उनकी जाति के कारण, उनके साथ घोर अमानवीय व्यवहार हुए, तब उन्होंने कहा- “मैं ऐसे ईश्वर को, धर्म को नहीं मानता, जो मानव-मानव में भेद करता हो।‘‘. जाति धर्म की सियायत के कारण ही आज चारों ओर मनुष्य-मनुष्य में भेद कर रहा है। अपराध हो रहे हैं और साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो रहें हैं। इन विसंगतियों पर अनेक लघुकथाकार अपनी लघुकथाओं के माध्यम से रचनात्मक विमर्श करते रहे हैं।
छोटे-छोटे वाक्यों में या कम शब्दों में, गूढ़ गंभीर मार्मिक बात को किसी कथानक के माध्यम से सहजता से कह जाना, लघुकथा की यह अपनी विशेषता होती है। युवा स्तम्भकार नृपेन्द्र अभिषेक नृप अपने एक आलेख में लिखते हैं, ‘‘साहित्य में लघुकथाओं का महत्व इस बात में है कि वह कम शब्दों में गहरी संवेदनाओं और विचारों को व्यक्त करने में समक्ष होती हैं।’’ मनोरमा पंत भोपाल की वरिष्ठ विदुषी लेखिका हैं, उनकी लघुकथा ‘ईश्वर’ उपर्युक्त विचारों पर एक सार्थक लघुकथा है। जब ईश्वर के नाम पर धार्मिक झगड़े होंगे तो ईश्वर क्योंकर धार्मिक स्थानों में रहेगा। मैंने अपनी बाल कथा नंदू सुधर गया में लिखा था ‘‘ईश्वर भी पुण्य पसंद करता है पाप या बैर नहीं।’’ मनोरमा पंत की यह लघुकथा हमें सचेत करती है कि हमें मानवता कर रक्षा के लिए आगे आना होगा। धार्मिक उन्मादों से किसी प्रकार की उन्नति संभव नहीं। धर्म का सहारा लेकर झगड़ने वालों का ईश्वर भला न करेगा। जब देश का बेरोजगार, किसान सड़कों पर भटकते हुए न्याय की, अपने हक की करुण गुहार लगा रहा हो, तब वहां का सियासत दां मस्जिद के नीचे मंदिर, लोगों के अन्दर डीएनए की खोज में लगा हो, अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में लगा हो, तब वहाँ ऐसी दूषित खोज में मनुष्यता की रक्षा कैसे होगी। बेबस, किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों की कौन सुनेगा? मनोरमा पंत की लघुकथा ‘ईश्वर’ वर्तमान समय में फैली धार्मिक विसंगतियों पर रचनात्मक प्रहार करती हैं।
लखनऊ की निवासी रश्मि लहर की लघुकथा ‘विरोध’ भी धर्म के नाम पर होने वाली कुप्रथा का पुरजोर विरोध करती है। जब होली आती है, तो होली के नाम पर कैसी अश्लीलता, फूहड़ता और बदतमीजियाँ होतीं हैं उनके तमाम वीडियो सोशल मीडिया में देखें जा सकते हैं, ऐसा लगता है कि महिलाओं का साथ सूक्ष्म बलात्कार हो रहा हो। राकेश सोहम की भेड़िये की भूख, योगराज प्रभाकर की कन्या पक्ष, डॉ पूरन सिंह की भूत, डॉ.रणजोध सिंह के ‘सोने चाँदी के हाथ’, अरविन्द ‘असर’ सोनकर की ‘बाबा की कृपा’, चित्तरंजन गोप की ‘सरस्वती पूजा’ राजेद्र वर्मा की ‘भिखमंगे’ सुकेश साहनी की ‘दादा जी’ जैसी अनेक लघुकथाओं में धार्मिक अंधविश्वासों कुप्रथाओं पर सार्थक एवं रचनात्मक विमर्श किया गया है। महिलाओं को बाबा साहब ने महादलित कहा था। देवदासी, नगर वधू जैसी कुप्रथाएं भले ही खत्म हो चुकी हों, पर आज भी होली के नाम पर, पर्दा प्रथा, डायन प्रथा आदि रूढ़ियों कुप्रथाओं के नाम पर तालिबानी व्यवहार महिलाओं के साथ अनवरत जारी है। इस पर बौद्धिक वर्ग को चिंतन-मनन करने की आवश्कता है। मेरी पसंद में मनोरमा पंत और रश्मि लहर की लघुकथाएं प्रस्तुत हैं। दोनों लघुकथाएँ अंधविश्वासों कुप्रथाओं पर गहरी चोट करती हैं।
मनोरमा पंत
ईश्वर
वह भाग रहा था। भागते-भागते वह शहर से दूर विराने में जा पहुँचा और ठोकर खाकर गिर पड़ा।
साईकिल से जाते हुए एक किशोर ने उसे उठाया और पूछा –
“तुम कौन हो?’’
‘‘इतनी तेजी से भाग कर कहाँ जा रहे हो ?’’
अपने छिले हुए घुटने सहलाते हुए वह बोला-
‘‘शहर में धार्मिक दंगे हो रहे हैं। मैं ईश्वर हूँ। मैं भागकर ऐसी जगह जाना चाहता हूँ जहाँ न मंदिर हो, न मस्जिद हो और न कोई अन्य धार्मिक स्थल हो।’’
रश्मि लहर
. विरोध
‘‘अम्मा जी! ननदोई जी के साथ हम होली नहीं खेलेंगे, उनके रंग-ढंग ठीक नहीं हैं। वह होली के बहाने इधर-उधर छूने लगते हैं!‘‘कहते-कहते शिप्रा का चेहरा क्रोध से भर गया!
‘‘देख बहू! तुम्हारे ननदोई बड़े आदमी हैं .. अगर थोड़ा-बहुत हाथ लग भी जाये तो इग्नोर कर दिया करो, ऐसी बातें कही नहीं जाती हैं, औरतों को थोड़ा सहनशील होना चाहिये।‘‘ अपने मुँह में पान की गिलौरी रखते हुए शिप्रा की सास ने जवाब दिया …
‘‘नहीं दादी! अबकि अगर फूफा जी ने मम्मी को जरा भी रंग लगाया तो जान लेना …सलाद की तरह उनका हाथ काट डालूॅंगी… सबूत भी नहीं छोड़ूँगी! खबरदार ! जो किसी ने मेरी माँ की तरफ आँख भी उठाई तो।‘‘ अपने हाथ से चाकू की धार को छूते हुए शिप्रा की बेटी, जो एक शेफ थी, बीच में बोल पड़ी …
एक चुभन भरा सन्नाटा चीख पड़ा वहाँ। दादी विस्फारित नजरों से पोती के तेज धार के चाकू को देखने लगीं।
— सुरेश सौरभ