ग़ज़ल
चाहा तुमको हमने इतना।
इन आँखों के नूर रहे हो।।
बेदर्द तुम्हीं बनते फिरते।
लगता एक फ़ितूर रहे हो।।
तुम तो जैसे क्रूर रहे हो।
मद में अपने चूर रहे हो।।
प्यार छलकता आँखों में है।
पर तुम क्यों मगरूर रहे हो।।
दर्द दिया है इतना तुमने।
बन कर ही नासूर रहे हो।।
बात वफ़ा की करते तुम तो।
( इतने क्यूँ मजबूर रहे हो।। )
रुचि लगे न आगे बढ़ने में।
आशिक़ देख ज़रूर रहे हो।।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’