कविता : समझदार हो के जीना… हमें भाता नहीं है
है उम्र गुज़ारी हमने, किताबों के सफ़र में ! जिन्दगी को सुलझाना, हमें आता ही नहीं हैं !! न जाने
Read Moreहै उम्र गुज़ारी हमने, किताबों के सफ़र में ! जिन्दगी को सुलझाना, हमें आता ही नहीं हैं !! न जाने
Read Moreन छेड़ो जख्मों को, लगेंगे फिर से रिसने ! वो जुदा हो रहें हैं हमसे, पर वह इसे मानते नहीं
Read Moreकभी बँद करूँ मैं मुठ्ठी, कभी बँद मुठ्ठी मैं खोलूँ… क्या ढूंढ़ती हूँ इनमें, ये राज कैसे बोलूं ! हाथों
Read Moreहम आज़ादी मना रहे हैं… ——————————- मात्र चंद रुपये चाहिए *, जीवन – यापन के हेतु ! पर अपनी सेलरी
Read Moreइक और मीरा झुकी-झुकी इन पलकों में, सपनों की घटा है छाने लगी ! अजब बेचैनी मेरे मन में, घर
Read Moreन तोड़ना चाहते थे… हम नियमों की दीवारें ! और न जाने कितनी बार बेमौत मरे हम !! अंजु गुप्ता
Read Moreउलझन मन की सुलझ न पाए… कहूँ या छुपा लूँ हैं ऐसे ख़याल कईं !! तरसती आँखें रस्ता निहारें… मिलोगे
Read Moreकभी अजनबी… कभी पहचाने से तुम लगो ! बँध गया है इक रिश्ता, कच्चे धागे से !! मर्यादित है… ना
Read Moreपरिन्दों सी निकली मुहब्बत भी तेरी ! बदला जब मौसम बदल लिया फिर ठिकाना !! मिलने की चाहत हरदम रहती
Read Moreइक खामोशी अक्सर फैल जाती है हम दोनों में कभी -2… इक दूजे में गुम होना भी अच्छा लगता है
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