मधुगीति : मोहत रहत मो कूँ चहत
मोहत रहत मो कूँ चहत, मुड़ि मुड़ि तकत चित रिझावत; होली पे कान्हा खिजावत, वाँशी बजा ढ़िंग बुलावत ! मन
Read Moreमोहत रहत मो कूँ चहत, मुड़ि मुड़ि तकत चित रिझावत; होली पे कान्हा खिजावत, वाँशी बजा ढ़िंग बुलावत ! मन
Read Moreचहकित चकित चेतन चलत, चैतन्य की चितवन चुरा; जग चमक पर हो कर फ़िदा, उन्मना हो हर्षित घना ! शिशु
Read Moreकबहू उझकि कबहू उलटि, ग्रीवा घुमा जग कूँ निरखि; रोकर विहँसि तुतला कभी, जिह्वा कछुक बोलन चही ! पहचानना आया
Read Moreवह गोद मेरी लेट कर, ताके सकल सृष्टि गया; मेरी कला-कृति तक गया, झाँके प्रकृति की कृति गया ! देखा
Read Moreवह समझता मुझको रहा, मैं झाँकता उसको रहा; वह नहीं कुछ है कह रहा, मैं बोलता उससे रहा ! अद्भुत
Read Moreतुहिन* के तीर बिफर, धरा पर जाते बिखर; भूमि तल जाता निखर, प्राण मन होते भास्वर ! पुष्प वत आते
Read Moreतरंगों में फिरा सिहरा, तैरता जो रहा विहरा; विश्व में पैठ कर गहरा, पार आ देता वह पहरा ! परस्पर
Read Moreबुद्धि से मुक्ति मिले बिन, बोध से युक्ति मिले बिन; ज्ञान में गुमता गहमता, उन्मना मन कर्म करता ! समझ
Read Moreअपनों से भरी दुनियाँ, मगर अपना यहाँ कोंन; सपनों में सभी फिरते, समझ हर किसी को गौण ! कितने रहे
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