सामाजिक

उर की बात

अच्छा है कि समाचार पत्रों या जालपत्र समूहों पर हम लोग एक द्रष्टा या मुसाफ़िर के रूप में रहें व आत्म निरीक्षण करते हुए विश्व द्रष्टि से देखें या लिखें ।

प्रश्न स्वयं से पूछें दूसरों से नहीं । आप अपने विचार लिखें । जिस की कुछ बोलने की इच्छा होगी बोल देगा । पूछना है तो दुनियाँ के मालिक से पूछिए जो आपके अन्दर विराजमान है ।

हम न कोई पूछने बाले बनते हैं किसी से और न कोई ऐसे बताने ही बाला है । सहज भाव से जगत को देखिए और समझिए । जगत के मॉनीटर (नियन्त्रक) बन कर कुछ पूछना या तो परम सत्ता से दूरी का परिचायक है या उसको न समझना है या उसकी सृष्टि को अपने आप से कम समझना है ।

विश्व एक है, रचयिता एक है, हम सब उसी के स्वरूप हैं । देश (स्थान), काल व पात्र के भेद अज्ञान के कारण भासते हैं । समस्त विश्व ही हमारा कुटुम्ब है, सम्पूर्ण सृष्टि ही भारत (जो भरण पोषण करता है) है !

भौगोलिक द्रष्टि से कभी पूरा दक्षिणी एशिया आदि ही भारत था; बाद में हो सकता है शीघ्र ही सारी पृथ्वी ग्रह भावनात्मक रूप से भारत ही बन जाए । हो सकता है भविष्य में दूसरे ग्रह भी हमारे आध्यात्मिक रंग में रंग जाएँ या हम उनमें से कुछ ग्रहों की और उत्कृष्ट आध्यात्मिक व जागतिक कलाओं, तन्त्रों व जीवन शैलियों को अपना लें !

कर्म व साधना कर यदि सब विश्व धारा में अन्तर्मन से समाहित हो जाएँ तो देश की सीमाएँ कहाँ रह जाएँगी । संचार सुविधा, विज्ञान व विकास के कारण अब सीमाएँ सिकुड़ती जा रहीं हैं । जिनका मन छोटा है वे ही सीमा में हैं, नहीं तो सब असीम होते जा रहे हैं ।

परस्पर संघर्ष करते, विरोध करते व धर्म कर्म को परिष्कृत करते २ हम अनायास अनजाने बहकते फिसलते सँभलते और सुधरते हुए साक्षी सत्ता के प्रयोजनानुसार उसके प्रयोजन के अनुसार आगे बढ़ते चल रहे हैं !

धीरे २ मानव का मन बृहत् हो रहा है और जाति, मज़हब, समय, प्रदेश, देश, महाद्वीप, मनों आदि के बन्धन शिथिल हो कर एक महा- मानव का आविर्भाव हो रहा है । जिनका मन छोटा है वे स्वयमेव अपने ही कर्मों से समाप्त हो बृहत् मन ले दूसरा शरीर धारण करेंगे ।

ब्राह्मी सत्ता विश्व प्रबंधन में प्रवीण है और किसी भी मनुष्य को विश्व या निहारिका ग्रह देश या गाँव या मिट्टी के ढेले या परमाणु के भविष्य के लिये इतनी अधिक चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है ।

आवश्यकता मात्र इस बात की है कि हम अपना तन, मन व आत्मा, कर्म धर्म ज्ञान साधना सेवा व भक्ति द्वारा भूमा सत्ता में समर्पित कर उसको समझें व उसमें मिल जाएँ, बाक़ी सब अपने आप हो जाएगा ।

जैसे ही सात्विक भोजन करेंगे, साधना करेंगे, निष्काम कर्म करेंगे, क्रोध वैमनस्य विरोधाभास आदि सब ग़ायब हो जाएगा । जैसे ही ईश्वरीय प्रेम पनपेगा सब लोग अपने जैसे या अपने लग जाएँगे, भेद या युद्ध समाप्त हो जाएँगे । कुछ बोलने की, उपदेश देने की, समूह बनाने की, किसी को सुधारने की या प्रश्न पूछने की ज़रूरत या इच्छा नहीं रहेगी । फिर सब अन्दर हो रहा होगा, आप अपने विश्व व्यापी महा पराक्रमी अंगों से जो चाहेंगे करा लेंगे, शिकवे शिकायत की ज़रूरत नहीं रहेगी !

अत: अन्दर जाइये, अन्दर वे जो परम शक्तिशाली बैठे हैं उनसे गुफ़्तगू गुज़ारिश फ़रमाइश प्यार लड़ाई पहचान कर डालिए और दुनियाँ में उसी की टहलती विचरती बिखरती भटकती अटकती हुँकारती हँसती रोती फिसलती विकसती सरसती सुहानी अन्दर से रूहानी जीवों की टोलियों बोलियों किलकारियों को प्यार से देखते सहलाते हुए इस आत्मीय सफ़र का आनन्द लीजिए !

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया;
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्तित् दुख भाग भवेत ।

— गोपाल बघेल ‘मधु’, कनाडा

One thought on “उर की बात

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख !

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