कहानी

मेरा जिम

मोटे लोगों की दुनिया भी अजीब होती है। यहाँ छोटे-बड़े का फ़र्क नहीं होता बस मोटापे का फ़र्क होता है। हमारी बिरादरी का होने के लिए किसी ख़ास जातिगत विशेषता की आवश्यकता नहीं है, बस मोटा होना ज़रूरी है। हमारी बिरादरी एक ऐसी बिरादरी है जिस बिरादरी के लोग हर ज़गह पाए जाते हैं- यत्र, तत्र, सर्वत्र और हर जगह हमारी समस्याएं, वेदनाएं, भावनाएं आदि समान ही होती हैं।

हर व्यक्ति का अपने समाज के प्रति कुछ न कुछ कर्तव्य बनता है। अच्छा इंसान वह होता है जो अपने सुकृत्यों द्वारा अपनी बिरादरी का नाम रोशन करता है। अत: मोटे होने के नाते इस बिरादरी के प्रति मेरा भी कुछ कर्तव्य बनता है। मैं इस कर्तव्य पूर्ति हेतु कुछ करना चाहती थी। बहुत सोचने पर मैंने जाना कि मैं मोटे लोगों के लिए ज़्यादा कुछ तो नहीं कर सकती, हाँ एक जिम खोल सकती हूँ।

जिम तो खोल दिया लेकिन एक विकट समस्या मुँह बाए खड़ी थी, वह यह कि कहीं जिम इंस्ट्रक्टर (मुझे) को देख लोग भाग न जाएं। इस समस्या से निज़ाद पाने के लिए मैंने अपनी जगह एक सहेली को जिम इंस्ट्रक्टर बना दिया। वैसे मैं भी जिम इंस्ट्रक्टर बन सकती थी पर मन में ये ख़्याल आया कि अगर थोड़ा सा, मेरा मतलब..बिल्कुल ज़रा सा वज़न घटाकर, मैं जिम इंस्ट्रक्टर बनने के लिए पतली हो भी गई तो अपनी ही बिरादरी से बाहर हो जाऊँगी, इसलिए….।

मेरे जिम  के खुलते ही मोहल्ले में खलबली मच गई। आखिर क्यों न हो, केवल महिलाओं के लिए खुलने वाला यह पहला जिम जो था। पहले पहल तो इस जिम में कोई आने को तैयार न था, हर नई चीज़ को विद्रोह का सामना करना ही पड़ता है, लेकिन जब एक बार यहाँ औरतों ने आना शुरु किया तो फिर कोई ऐसी महिला न बची जो सुबह-शाम हमारे जिम में न आती हो, जिनमें अधेड़ उम्र की महिलाओं की तादाद कुछ ज़्यादा ही थी।

हमारे इस जिम का नाम बड़ा था लेकिन जगह की कमी और क़िफायत के कारण हमने बोर्ड छोटा ही रखा था। ऐसे में हुआ यों कि ज़्यादातर लोगों को दूर से कुछ साफ़-साफ़ दिखाई नहीं देता था कि बोर्ड पर क्या लिखा है और वे समझ बैठे कि यह कोई महिला सेवा केन्द्र है; यहाँ तक कि कुछ औरतें यही समझकर नाम दर्ज़ कराने चली आईं, लेकिन इस जिम के रंग-ढंग देखकर यहीं की हो के रह गईं।

पहले पहल तो मुझे बडी खुशी हुई कि मेरे जिम में अधिकाधिक ग्राहकों का आगमन हो रहा है लेकिन यह जल्द ही मुसीबतों के आगमन में बदल गया। एक बड़ा प्रश्नचिह्न यह भी था कि इतनी सारी महिलाओं को कैसे सँभालूँ।

महापात्रा आंटी के मुँह में तो जैसे मोटर फिट किया हुआ था जिस पर कोई मोटी ट्रीडींग करे तो दो दिन में “ज़ीरो साइज़” की हो जाए और मेरे जिम की कोई ज़रूरत ही न पड़े। कुछ औरतों ने तो इसे फ़ैशन का अखाडा बना रखा था। रैम्प की जगह ट्रीडिंग मिल ने ले ली थी। आधुनिक से आधुनिक मेक-अप लगा कर औरतें जिम में आती लेकिन ज़रा कसरत के बाद असली चेहरा सामने आ जाता। कुछ ब्यूटी पार्लर वाले भी मेरी जिम से बड़े खुश हुए और मेरे जिम के ग्राहकों को 5% छूट भी मिलने लगी।

नुक्कड़ वाली मल्होत्रा आंटी यही सोच कर हमारी ग्राहक बन गई कि उन्हें एक तीर से दो निशाने लगाने को मिलेंगे, एक तो ब्यूटी पार्लर में 5% की छूट और दूसरे वज़न घटाने के आधुनिक तरीके। परंतु मल्होत्रा आंटी का सबसे बड़ा बोनस ये था कि वे जिम में आकर रावत आंटी को नीचा दिखा सकें। हम भी इस मुकाबले का मज़ा लिया करते थे लेकिन हमें इस बात का ज़रा भी इल्म न था कि यह मज़ा, सज़ा में भी बदल सकता है।

उस शाम हम मल्होत्रा आंटी और रावत आंटी के बीच चल रहे परोक्ष कटाक्षों के मजे ले रहे थे। इसी बीच मैं चाय पीने चली गई वापस लौटी तो यह खेल प्रत्यक्ष महायुद्ध में बदल चुका था। दोनों एक दूसरे के सिर के बाल नोंच रहीं थी। दो हथिनियों के युद्ध में जितने जान-माल का नुक़सान हो सकता था वह हो चुका था। तीन मँहगी कुर्सियों समेत एक साइकिलिंग मशीन और एक ट्रीड मील ध्वस्त हो चुकी थी और मेरी सहेली (जिम इंस्ट्रक्टर) के हाथ में फ्रैक्चर हो चुका था। और लड़ती हुई दो हथिनियों को अलग करने में जितना बल लगता है, उतने ही बल के प्रयोग के बाद दोनों खून की प्यासी आंटियों को हम अलग कर पाए। इतना सब होने के बाद लगा कि ये दोंनो अब जीवन पर्यंत एक दूसरे का चेहरा न देखेंगी। लेकिन हमने अगले ही दिन दोनों खून की प्यासी आंटियों को साथ-साथ जूस पीते देखा, वो भी ऐसे ठहाके लगाते हुए जैसे दो बहनें कई साल बाद मिल रहीं हो। मेरा तो खून खौल रहा था, जी में आता था कि उनके खून को जूस बनाकर पी जाऊँ। मगर मैं अपना जिम शांतिपूर्वक चलाना चाहती थी, बिना किसी से पंगा लिए, इसलिए खून के घूँट पी कर रह गई।

कुछ ख़वातिनों के खाविंदों ने पाया कि उनकी बेग़में तो बेग़में, उनकी बेग़मों की देखादेखी उनकी वालिदाएं भी अब घर और घर का काम-काज छोड़कर अपना सारा समय जिम में बिताती हैं। बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान देने वाला कोई न रहा (क्योंकि सारी औरतें तो जिम में नज़र आती थीं), तो उन्हें भी मौज करने का मौका मिल गया और वे सारा समय खेलते ही रहते थे। पतियों को अब जबरदस्ती फिल्म देखने और शॉपिंग ले जानेवाला कोई न रहा। वे इत्मीनान से टीवी देखते।

परंतु कुछ दिनों में ही दुष्परिणाम सामने आने लगे। बच्चे पढ़ाई में कमज़ोर हो चले। स्कूल में टीचरें माता-पिता को बुला-बुलाकर उनकी शिकायतें करतीं। वहीं दूसरी ओर घर इतना अस्त-व्यस्त रहने लगा कि काम की कोई चीज़ या तो मिलती नहीं या फिर बाज़ार से मंगानी बाकी होती थीं। जल्द ही मेरे जिम कि औरतों को उनके परिवारवाले जिम से पकड़-पकड़ कर घर ले जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि मेरा जिम धीरे-धीरे खाली होने लगा। मैं चिंतित रहने लगी, इतनी चिंतित कि बिना किसी एक्सरसाइस के मेरा वज़न घटने लगा।

बहुत सोचने के बाद मुझे उपाय सूझा। मेरे ताऊजी की शहर में कपडों की एक दुकान थी। मैं उनके पास पहुँची और उन्हें एक बहुत बड़े फायदे से अवगत कराया। मैंने उनसे कहा कि मेरे जिम के बगल वाली जगह खाली है। वहां पहले नृत्यशाला थी मगर अब बंद हो चुकी है। अगर वे वहां अपने कपडों की सेल लगा दें तो उन्हें बहुत फायदा होगा। लेकिन उनका मानना था कि सेल में दी जाने वाली छूट से उनको नफ़ा की जगह नुकसान ही होगा। मैंने कहा कि मैंने सिर्फ सेल लगाने को कहा है छूट देने को नहीं उल्टे सेल लगाकर अगर वे दाम बढ़ाना चाहें तो वह भी किया जा सकता है। बात जम गई। एक बार सेल का नाम मुहल्ले में गुंजा तो बस तांता लग गया और जैसा मैंने सोचा था कि सेल के बहाने जब मुहल्लेवालियों ने उधर आना शुरु किया तो जिम से जुड़ी उनकी यादें ताज़ा हो गईं और उनके बीते दिन वापस खींच लाने की ललक में मेरा जिम फिर हरा-भरा हो चला।

मुझे आभास हो रहा था कि अधेड़ उम्र कि महिलाओं को बहुत जिम्मेदारियां होती हैं और उन्हें ग्राहक बनाने से अच्छा है कि मैं नवयुवतियों को जिम की ओर खींचूँ। वैसे भी आजकल जीरो साइज का क्रेज इन्हीं में ज्यादा है। सो बड़े-बड़े पोस्टर जिम के बाहर लगवा दिए जिसपर दूर से ही और कुछ दिखाई दे न दे “ज़ीरो साइज” लिखा हुआ बराबर नज़र आता था। दुबली-पतली लड़कियां मेरे जिम में आती और ज़ीरो साइज होकर जाती। पता नहीं दिखना भी चाहती थीं या नहीं। लेकिन इस बीच एक नई समस्या पैदा हो गई।

मुहल्ले के सार बदमाश मेरे ही जिम के आगे अड्डा जमाने लगे। अब तो इशारेबाजियों और छेड़छाड़ का वो दौर शुरु हुआ कि खबर उड़ते-उड़ते पुलिस के कानों और थानों में पहुँच गई। पुलिस मेरे जिम तक भी आई। बदमाश तो पहले ही रफा-दफा हो चुके थे मगर जिम पर धावा बोलने से क्या हासिल होनेवाला था। मैंने भी अकड़कर पुलिस का स्वागत किया। कोई गैर-कानूनी काम तो कर नहीं रही थी। उल्टा समाज सेवा ही कर रही थी। आखिर आज-कल कितने ऐसे महात्मा-धर्मात्मा हैं जो महिलाओं के उद्धार के लिए जिम खोलते हैं। सभी तो पुरुषों के लिए जिम खोलते हैं। क्या नारियों को जिम जाने का अधिकार नहीं है? क्यों महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित रखा जाए? मैं यह जिम खोलकर नारी सशक्तिकरण की दिशा में कितना बड़ा काम कर रहीं हूँ इसका एहसास भी है पुलिस को? कुछ इन्हीं विचारों के प्रकटीकरण पर पुलिस भी सकपकाई सी लौट गई। मगर…….(मेरी कहानी में मगर बहुत रहते हैं घडियाल कम)……हां तो मैं कह रही थी कि पुलिस लौट तो गई मगर ज्यादा देर के लिए नहीं, क्योंकि मेरा जिम शांतिपूर्वक चल सके यह संभव ही नहीं। तो पुलिस लौटी और मेरे जिम से नारी सशक्त हुई हो या नहीं मगर पुलिस सशक्त होकर लौटी और उन्हें सशक्त किया एक मुद्दे ने जो मेरे जिम से जुड़ा था।

हुआ यों कि दो महीने की मशक्क्त के बाद एक सिरफिरा आशिक हमारे जिम की सबसे खूबसूरत लड़की को भगा ले जाने में कामयाब हो गया। सच कहती हूं मेरा कोई हाथ नहीं….कसम से। मैं तो उस आशिक को जानती ही नहीं। जिस लड़की को भगा के ले गया है वैसी एक लड़की मेरे जिम में आती तो थी मगर वही लड़की है ये मैं नहीं कह सकती। वह जिम जाने के बहाने से घर से निकली थी तो इसमें जिम का क्या दोष? मगर….(जी हां मगर फिर से मगर)…….मगर पुलिस पर इन दलीलों का क्या असर होना था। अब कैसे छुटकारा पाऊँ। जब तक पुलिस वाले अपनी क़ाग़जी कार्रवाई कर रहे थे मैंने उनकी महिला कांस्टेबल को मस्खा लगाना शुरू किया। उनकी सेहत पर मुझे इतना तरस आया कि मैने उन्हें और पुलिस में तैनात उनकी बाकी सहेलियों को मेरे जिम में मुफ्त में ट्रेनिंग देने का वादा कर डाला। फिर क्या था? अगले दिन से मेरा जिम लेडी पुलिस थाना बन गया।

मगर…..मगर ….मगर मैं यह नहीं जानती थी कि यह मेरे हर प्रकार के अगर-मगर का अंत होगा क्योंकि एक सुनहरी सुबह को मेरे सपनों से सुंदर जिम में जोरदार धमाका हुआ। किसी महिला कांस्टेबल से अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक अपराधी ने मेरे जिम के साथ ऐसा घिनौना कृत्य किया और मेरी हंसती खेलती बगिया उजाड़ दी। संयोगवश अपराधी नहीं जानता था कि मेरा जिम और जिमों से लेट खुलता है इसलिए जब बम फटा तो कोई भी जिम में न था और किसी के प्राणों को नुकसान नहीं पहुंचा। मगर मेरे प्राणों से प्यारे जिम को तबाह होने से कोई न रोक सका।

साथियों मैंने कसम खाई है कि मैं मोटे लोगों की बिरादरी की सेवा से कतई पीछे नहीं हटूँगी। इसलिए ऐसा न सोचिए की मेरा जिम तबाह हो गया तो मैं हताश-निराश हो इस पथ पर चलना छोड़ दूँगी। हरगिज नहीं। मेरा जिम तबाह हो गया तो क्या मेरा हौंसला तो तबाह नहीं हुआ। अब मैं अपनी इस अनोखी बिरादरी की सेवा के लिए एक नया यज्ञ करने जा रही हूँ। मैं अपनी बिरादरी के लोगों के आशिर्वाद और शुभकामनाओं से दलिया और फैट-फ्री उत्पादों की दुकान खोलने जा रही हूँ।

 

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com

5 thoughts on “मेरा जिम

  • विजय कुमार सिंघल

    हा हा हा हा…. बहुत करारा व्यंग्य !

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी नीतू जी, भजन-कीर्तन मंडली के लिए हमारी सेवाएं भी अर्पित हैं. शायद जिम चल पड़े.

    • नीतू सिंह

      सादर आमंत्रित हैं। सभी लोग। बस थोड़ा वजन बढाना पड़ेगा…..ह हा हा।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा , साथ साथ भजन कीर्तन मण्डली भी शुरू हो जाए तो सभी राहगीर नतमस्तक हो कर गुजरेंगे .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    ??

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