मधुगीति- उरों के आसमान छूने में
उरों के आसमान छूने में, सुरों की सरिता में नहाने में; वक़्त कितना है प्राय लग जाता, कहाँ अहसास परम
Read Moreउरों के आसमान छूने में, सुरों की सरिता में नहाने में; वक़्त कितना है प्राय लग जाता, कहाँ अहसास परम
Read Moreकितनी कलियों को जगाया मैंने, कितनी आत्माएँ परश कीं चुपके; प्रकाश कितने प्राण छितराये, वायु ने कितने प्राण मिलवाये !
Read Moreहोते हुए भी हैं कहाँ, हम जहान में रहते कहाँ; देही यहाँ आत्मा वहाँ, बस विचरते यों हीं यहाँ !
Read Moreगुदगुदा प्यार में कभी जाता, गुनगुना कान में कभी जाता; आके चुपके से कभी कुछ कहता, साँवरा हरकतें अजब करता
Read Moreखेवत उर केवट बनि, केशव सृष्टि विचरत; सुर प्रकटत सुधि देवत, किसलय हर लय फुरकत ! कालन परिसीमा तजि, शासन
Read Moreपीछे ते कूक देत, आवत गिरधारी; परिकम्मा गोवर्धन, देवत त्रिपुरारी ! कीर्तन करि चेतन स्वर, तरत जात गातन गति; मुरली
Read Moreमोहन कूँ देखन कूँ, तरसि जातु मनुआँ; देखन जसुमति न देत, गोद रखति गहिया ! दूर रखन कबहुँ चहति, प्रीति
Read Moreकिलकावत काल पुरुष, धरती पै लावत; रोवन फिरि क्यों लागत, जीव भाव पावत ! संचर चलि जब धावत, ब्राह्मी मन
Read Moreवारौ सौ न्यारौ सौ, ब्रज कौ कन्हैया; प्यारौ दुलरायौ सौ, लागत गलबहियाँ ! भेद भाव कछु ना मन, चित्त प्रमित
Read Moreकिलकि चहकि खिलत जात, हर डालन कलिका; बागन में फागुन में, पुलक देत कहका ! केका कूँ टेरि चलत, कलरव
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