मधुगीति – प्राण परिहरि त्राण वर कर !
प्राण परिहरि त्राण वर कर, आत्म हो स्वच्छन्द जाती; लिप्ति की भित्ति विहा कर, मुक्ति का आनन्द लेती ! तख़्त
Read Moreप्राण परिहरि त्राण वर कर, आत्म हो स्वच्छन्द जाती; लिप्ति की भित्ति विहा कर, मुक्ति का आनन्द लेती ! तख़्त
Read Moreत्याग कर तृण वत स्वदेही, आत्म हो जाती विदेही; यन्त्र वत उड़ कर सनेही, दूर से तकती विमोही ! लौट
Read Moreहर हाल में गुज़रते रहे, कारवाँ यहाँ; मायूस मन हुए भी हो क्यों, माज़रा है क्या ! तारे सितारे
Read Moreआए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए; रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए ! मेघों की मंजु माला, अभी
Read More‘हँ-सो’ की गंगा में बह कर, हँसों के उर ध्यान किए; आते जाते भाव सिंधु में, स्वर सरिता में मिल
Read Moreभूरे भुवन में छाए हुए, मेघ मधु हुए; जैसे वे धरित्री ही हुए, क्षितिज को लिए ! दिखती धरा कहाँ
Read Moreहर केन्द्र के लखा है वही, आस पास ही; वह प्राण में बसेरा किया, हर लिबास ही ! नज़्मों में
Read Moreआए हो घनश्याम हृदय तुम, मधुरम मधुमय रूप लिए; अभय किए वरदान दिए हो, अप्रतिम अभिनव भाव दिए ! धरा
Read Moreबिन बुलाए कभी चला आता, बुलाने पर भी कभी ना आता; रखता है वह अजीब सा नाता, देख सुन उर
Read Moreउतर आकाश से थे जब आए, कहाँ पहुँचे हैं समझ कब पाए; पूछने पर ही जान हम पाए, टिकट का
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