जनहित में जारी जाहिर सूचना
जनहित में जारी जाहिर सूचना अवश्य पढ़ें, फिर न कहना कि हमें तो पता ही नहीं था प्रत्येक सर्व साधारण हिन्दुस्तानी
Read Moreजनहित में जारी जाहिर सूचना अवश्य पढ़ें, फिर न कहना कि हमें तो पता ही नहीं था प्रत्येक सर्व साधारण हिन्दुस्तानी
Read Moreराज को राज मत रहने दो, हिन्दूओ और मुसलमानो (एक काल्पनिक गोपनीय बातचीत का पर्दाफ़ाश) सेक्यूलर–हेलो, मैं सेक्यूलर बोल रहा
Read Moreयह मेरा नितान्त व्यक्तिगत मत है कि भारत के अधिकांश मुस्लिम शान्ति चाहते हैं और हिन्दुओं के साथ बिना लड़ाई
Read Moreआखिर कुर्सी को मुंह ही खोलना पड़ा (मुफ्त हुए बदनाम, हाय तुझे अपनी गोद में बिठाकर) अचानक कुर्सी ने मुझे
Read More“अजी सुनती हो.” “बोलो ना, बोलते क्यों नहीं, चुप क्यों हो?” “तुम दो मिनट वाली नूडल्स बनाती हो, डिब्बाबंद, जंकफूड
Read Moreएक आम नागरिक की पाती मोदी सरकार के नाम मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लेकर मानवसेवा का मार्ग को चुनने वाले प्रतिभाशाली स्टूडेंट्स के (राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से भी) बेहद कीमती समय को किसतरह निरर्थक कर दिया जाता है, एक नजर – पहले साल में ही पूरे साल भर तक प्रत्येक विद्यार्थी के प्रति दो सप्ताह के पांच दिनों तक दो दो घंटे तक (लगभग दस टीचर्स के 30 घंटे) हीमेटोलाजी और बायोकेमिस्ट्री लेब में उन्हें वे प्रैक्टिकल करवाए जाते हैं, जिन्हें वे अपनी प्रैक्टिस की जिन्दगी में कभी नहीं करने वाले हैं I पहले साल में ह्यूमन लेब में अनेक ऐसे प्रैक्टिकल (पेरिमेट्री, स्टेथोग्राफ़ी, बाबा आदम के जमाने के उपकरण से स्पायरोमेट्री) करवाए जाते हैं, जिन्हें वे अपनी प्रैक्टिस की जिन्दगी में कभी नहीं करने वाले हैं I फ्राग के डिसेक्शन बन्द किए जा चुके हैं, ऐसी स्थिति में फ्राग की मसल्स और हार्ट से सम्बन्धित ग्राफ्स को पढ़ाने में अनावश्यक रूप से प्रत्येक विद्यार्थी के लगभग पन्द्रह (टीचर्स के 36 – 42) घण्टों को नष्ट (वेस्ट)करने का क्या औचित्य है, जबकि 2 घंटे में पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन से यह सब कुछ पढ़ाया जा सकता है I उन्हें घर पर उक्त सभी प्रैक्टिकल्स की विधियां, उनमें रखी जाने वाली छोटी से छोटी सावधानियां, उपकरणों और रसायनों की अतिविस्तृत जानकारियां, और उनसे जुड़े प्रश्न भी याद करना पड़ते हैं, फ्राग के जिन प्रैक्टिकल्स को कभी नहीं किया हैऔर न ही भविष्य में जरूरत पड़ेगी, उनके विद्युतीय प्रायमरी और सेकेण्डरी सर्किट्स को भी याद करना पड़ता है I फिर इन्हें महंगी जर्नल्स खरीद कर उनमें लिखना भी होता है I प्रैक्टिकल्स को लिखने और उनको चेक करवाने के लिए अपना कीमती समय नष्ट करते हैं I टीचर्स का भी समय नष्ट होता है I एनाटामी में एम्ब्रियोलाजी के चित्र और हिस्टोलाजी के चित्र बनाना भी एक बेहद समयसाध्य काम होता है, न जाने कितने घण्टों की बली यूं ही दे दी जाती है I इसकी बजाय एक मृत मानव शरीर पर दस विद्यार्थियों को आतंरिक संरचना दिखाने की अनिवार्यता की जाए तो ज्यादा लाभ होगा I जबकि मानव शरीर की सूक्ष्म आंतरिक रचना जानना एक चिकित्सक के लिए बेहद जरूरी है, वह नगण्य और उपेक्षित मान लिया गया है I सोचिए जरा, 140-150 विद्यार्थियों के बीच 14-15 लाशों की बजाय दो या तीन लाशें हों तो वे क्या ख़ाक डिसेक्शन कर पाएंगे और सूक्ष्म रचनाओं की बारीकियां भला कैसे समझेंगे ? कई बार लगता है कि उन्हें डिसेक्शन हाल में एक एक दूरबीन दे देना चाहिए ताकि फालतू बातों में समय नष्ट करने की बजाय दूर से ही सही लाशों के स्थूल स्ट्रक्चर तो देख पाएंगे I मेरा विनम्र और सुचिन्तित सुझाव है कि उनके इस व्यर्थ हो रहे कीमती समय का सदुपयोग करते हुए उन्हें फर्स्ट इयर में ही उन्हें निम्नांकित जनोपयोगी विधाएं सिखायी जाना चाहिए – घाव पर पट्टी बांधनाऔर सिम्पल घाव पर टांकें लगाना, 2. क्रिटिकल केयर का सैद्धांतिक और सम्भव हो तो प्रैक्टिकल ज्ञान, 3. इंट्रा मस्कुलर और खून की नस में इंजेक्शन लगाना, 4. देश में आमतौर पर होने वाली दस पन्द्रह मौसमी बीमारियों का क्लीनिकल डायग्नोसिस (निदान) और प्राथमिक रूप से निरापद उपचार, 5. शिक्षक के मार्गदर्शन में अपने शहर के उन नागरिकों का स्वास्थ्य परीक्षण, जिनका कभी स्वास्थ्य परीक्षण नहीं हुआ हो और उनका स्वास्थ्य पत्रक (हेल्थ कार्ड) बनाने का प्रोजेक्ट I 6. रोगी की हिस्ट्री टेकिंग का विस्तृत ज्ञान, 7. आपदा प्रबन्धन (डिजास्टर मैनेजमेंट), 8. स्थानीय संसाधनों से संतुलित आहार बनाए जाने पर नागरिकों और स्कूली विद्यार्थियों को भाषण देना सिखाना और पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन से स्वास्थ्य चेतना के सामान्य सूत्र बताना I आखिर कब तक आम नागरिक की उपेक्षा चलती रहेगी ? प्रस्तुति – डॉ. मनोहर भण्डारी
Read Moreएक आम नागरिक की पाती मोदी सरकार के नाम देश की चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को राष्ट्र सापेक्ष बनाएं चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में मूल्यों की स्थापना की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि सभी शासकीय, निजी और एम्स के तहत कार्यरत चिकित्सा महाविद्यालयों या संस्थानों के विद्यार्थियों को पूरे पाठ्यक्रम के दौरान, महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस, सेवाग्राम की तर्ज पर,हर साल सामाजिक सेवा शिविर के तहत केवल दस दिनों के लिए क्लीनिकल पोस्टिंग के तहत अपने शिक्षकों और वरिष्ठ साथियों (स्नातकोत्तर अध्ययनरत) के साथ सुदूर गांवों, आदिवासी या वनवासी क्षेत्रों या गरीब बस्तियों में ले जाया जाए I ऐसा मेडिकल काउन्सिल ऑफ़ इण्डिया के प्रचलित प्रावधानों के तहत किया जा सकता है I इन स्थानों में विविधानेक प्रकार के अभावों में जीवनयापन कर रहे नागरिकों की वास्तविक स्थितियों से अवगत होने पर भावी चिकित्सकों के मन मस्तिष्क में उनके प्रति संवेदना, दायित्वबोध, कर्तव्य भावना तथा सहानुभूति का भाव स्वत: ही विकसित हो सकता है I यदि वे इसतरह गरीब, ग्रामीण, आदिवासी, निराश्रित या उपेक्षित नागरिकों के प्रति संवेदनशील (सेंसिटाइज) होते हैं, तो यह स्वास्थ्य सेवाओं में मूल्यों की स्थापना की दिशा में सार्थक कदम सिद्ध हो सकता है I इससे निश्चित रूप से ग्रामीणों की स्वास्थ्य-सेवाओं में गुणात्मक प्रभाव भी पड़ेगा I अपनी इस क्लीनिकल पोस्टिंग के तहत उन्हें अपने टीचर और सीनियर के मार्गदर्शन में प्रतिदिन पांच घन्टे की पोस्टिंग में पंद्रह नागरिकों से बातचीत करने के बाद (मेडिकल की भाषा में इसे हिस्ट्री टेकिंग कहा जाता है), उन्हें प्रत्येक नागरिक का जनरल एग्जामिनेशन करना होगा I चूंकि मेडिकल विद्यार्थियों को प्रथम वर्ष के आरम्भिक दिनों में ही जनरल एग्जामिनेशन के तहत किसी भी व्यक्ति के सामान्य स्वास्थ्य (कद, काठी, पोषण की स्थिति, नाड़ी, ब्लडप्रेशर, दृष्टि की स्थिति आदि) के आकलन की विधा सिखा दी जाती है, अतएव गांव में उनका प्रवास, उनकी क्लीनिकल पोस्टिंग (प्रशिक्षण की दृष्टि), संवाद कौशल्य शिक्षण तथा परिस्थितिजन्य रोग निदान विधा सिखाने के लिए सहजता के साथ आयोजित किया जा सकता है I यदि इस सुझाव को लागू किया जाता है तो इसके बहुआयामी प्रभाव सहज सम्भव हैं I इस दौरान वे अपने शिक्षकों तथा वरिष्ठ साथियों की उपस्थिति एवं मार्गदर्शन में विभिन्न रोगों के क्लीनिकल प्रजेंटेशन के कई अछूते तथ्यों का भी प्रत्यक्ष शिक्षण प्राप्त कर सकेंगे I एक बहुत बड़ा लाभ यह होगा कि कुछ सालों में ही देश अथवा प्रदेश के हरेक नागरिक का वास्तविक स्वास्थ्य डाटा हमारे पास होगा I वर्तमान में हम ऐसे सर्वेक्षणों के लिए विदेशी एजेंसियों के अविश्वसनीय सेम्पल सर्वे पर निर्भर हैं I ऐसे सर्वेक्षणों को अविश्वसनीय बताने के प्रमाण स्वरुप एक सर्वे का उल्लेख प्रासंगिक होगा I दो तीन साल पहले ही एक एजेंसी के हवाले से एक बड़ी खबर में बताया गया था कि मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों के 74 प्रतिशत बच्चें कुपोषित हैं, जो निराधार – सा है, क्योंकि अधिकांश आदिवासी बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता सुपोषित शहरी बच्चों की अपेक्षा ज्यादा सशक्त होती है, वे हर मौसम में नंगे खेलते रहते हैं, बीमारियां उन्हें नहीं बन्द कमरों में पल रहे हमारे बच्चों को होती है I जबकि कुपोषण की परिभाषा के अनुसार रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत ही क्षीण हो जाना चाहिए I भावी चिकित्सकों में सेवा, ज्ञान और साधना का विकास करने तथा नैतिक मूल्यों कीस्थापना हेतु नैतिक पाठ्यक्रम का निर्माण और क्रियान्वयन किया जाए I अमेरिका के एजुकेशनल सायकोलाजिस्ट एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् बेंजामिन सेमूअल ब्लूम द्वारा प्रतिपादित प्रसिद्ध वर्गीकरण (टेक्सोनामी) के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य के तहत विद्यार्थी में जानकारी (काग्निशन या मस्तिष्क, ज्ञान), संवेदना (अफेक्टिव, या ह्रदय, सेवा) और कर्म (साइकोमोटर या हैंड्स, साधना, स्किल्स) का विकास किया जाना जरूरी है I इस सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा शिक्षा का प्रारूप तैयार कर उसे दृढ़ता के साथ लागू करना चाहिए, ताकि भावी चिकित्सक एक ज्ञाता, संवेदनशील और कुशल चिकित्सक बन सके I यदि चिकित्सा शिक्षा में ऐसा किया जाएगा तो स्वास्थ्य सेवाओं में मूल्यों की स्वत: स्थापना सम्भव होगी I कुपोषण की गम्भीर समस्या के चलते मूल्य निष्ठा से इतर सुझाव– देश में स्वास्थ्य जागरूकता की भयावह कमी और कुपोषण को ध्यान में रखते हुए, स्वस्थ एवं सक्षम सेवानिवृत्त चिकित्सकों, चिकित्सा शिक्षकों तथा नर्सिंग से जुड़े शासकीय कर्मियों के सहयोग से स्कूलों, कॉलेजों, पंचायतों आदि में सप्ताह में दो दिन के लिए 2 – 3 घंटों के स्वास्थ्य परीक्षण शिविर और जन जागरूकता हेतु उद्बोधन आयोजित किए जाएं I इन आयोजनों की सम्पूर्ण जिम्मेदारी (सताधारी नेताओं और शासकीय अधिकारियों द्वारा सार्थक चर्चा के बाद) स्थानीय सामाजिक- सांस्कृतिक या धार्मिक संगठनों, उद्योग घरानों को सौंपी जाना चाहिए I कुपोषण के खिलाफ और स्कूलों एवं आंगनवाड़ियों के माध्यम से सुपोषण के लिए मिड डे मील का कार्य अक्षयपात्र जैसी संस्थाओं के माध्यम से किया जाए, तो कुपोषण पर नियंत्रण प्रभावी तरीके से सम्भव हो सकेगा और स्कूली शिक्षकों पर अतिरिक्त दायित्व नहीं होने से पढ़ाने के लिए उनके पास अधिक समय मिल रहेगा I आखिर कब तक आम नागरिक की उपेक्षा चलती रहेगी ? प्रस्तुति – डॉ.मनोहर भण्डारी
Read Moreएड्स के बहाने भारत में यौन उद्योग को बढ़ावा देने का महाभियान शुरू हुआ था, उसे एक हौवा बनाया गया,
Read Moreएक खतरनाक इनामी मुजरिम की तलाश जारी थी I वह सीरियल किलर, नशे का शौकीन और व्यभिचारी था I
Read Moreयह आश्चर्य और अत्यन्त दुःख की बात है कि अधिकांश उच्च शिक्षित भारतीय नागरिक अपनी परम्पराओं को अवैज्ञानिक और हेय
Read More