धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मैं आस्तिक क्यों हूँ? (भाग – १)

एक नया नया फैशन चला हैं अपने आपको नास्तिक यानि की atheist कहलाने का जिसका अर्थ हैं की मैं ईश्वर की सत्ता, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता। अलग अलग तर्क प्रस्तुत  किये जाते हैं जैसे अगर ईश्वर हैं तो दिखाई क्यों नहीं देते? अगर ईश्वर हैं तो किसी भी वैज्ञानिक प्रयोग के द्वारा सिद्ध क्यों नहीं होते? अगर ईश्वर हैं तो संसार में भूकम्प, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ क्यों आती हैं और ईश्वर उन्हें रोक क्यों नहीं लेते हैं? अगर ईश्वर हैं तो संसार में गरीबी, अत्याचार, बीमारी आदि क्यों हैं? किसी ने ईश्वर को संसार में लड़ाई, झगड़े, युद्ध आदि का कारण बताया, किसी ने ईश्वर के बताये मार्ग पर चलना अर्थात धर्म के पालन करने को अफीम बता दिया, किसी ने आस्तिकता को धर्म के नाम पर होने वाले अन्धविश्वास की उत्पत्ति का कारण बताया । परन्तु सत्य क्या हैं? क्या वाकई में ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं हैं और क्या नास्तिक लोगों की धारणा सत्य हैं। हम प्रश्न उत्तर शैली में इस विषय पर विचार रखेंगे।

  1.        आस्तिकता की परिभाषा क्या हैं?

समाधान- सामान्य रूप से हम आस्तिकता की यह परिभाषा समझते हैं की मनुष्य का अपने से किसी उच्च अदृष्ट शक्ति पर विश्वास रखना आस्तिकता कहलाता हैं अर्थात एक ऐसी शक्ति जो मनुष्य से अधिक शक्तिशाली हैं, समर्थ हैं उसमें विश्वास रखना आस्तिकता कहलाता हैं। परन्तु यह परिभाषा अपूर्ण हैं और इसे पढ़कर हमारे मन में अनेक शंकाएं आती हैं। एक आतंकवादी व्यक्ति अल्लाह या ईश्वर के नाम पर हिंसा करता हैं, निर्दोष लोगों के प्राणों का हरण करता हैं क्या इसे आप आस्तिकता कहेंगे? हमारे देश के इतिहास को उठाकर देखिये की हमारे देश में अनेक हिन्दू-मुस्लिम दंगे धर्म के नाम पर हुए हैं। यहाँ तक की देश का १९४७ में विभाजन भी धर्म के नाम पर हुआ था। क्या इससे हम यह निष्कर्ष निकाले की आस्तिकता दंगों,उपद्रवों आदि को जन्म देती हैं। इसी प्रकार से यूरोप के इतिहास में क्रूसेड युद्धों का कारण ईसाई और मुस्लिम समाज का संघर्ष था, वह भी धर्म के नाम पर हुआ। हमारे चारों ओर हम देखे की आस्तिकता के नाम पर अनेक अंधविश्वासों को बढ़ावा दिया जा रहा हैं। इससे हम क्या यह निष्कर्ष निकाले की आस्तिकता समाज में अराजकता को जन्म देती हैं?  क्या आस्तिकता के नाम पर हज़ारों निरीह प्राणियों की गर्दनों पर ईद के दिन छुरियाँ नहीं चलती हैं? इसे हम यह निष्कर्ष क्यों न निकाले की आस्तिकता के कारण, ईश्वर के कारण संसार में प्राणियों को बिना कारण असमय मृत्यु को भोगना पड़ता हैं और इसका दोष ईश्वर को देना चाहिए।

यह शंका इसलिए उत्पन्न हुई क्यूंकि हम आस्तिकता की परिभाषा को ठीक से नहीं समझ पाये। आस्तिकता की परिभाषा में धार्मिकता का समावेश नहीं हैं । आस्तिक विश्वास से प्रभावित होकर उत्तम कर्म करना धर्म कहलाता हैं अर्थात आस्तिकता के प्रभाव से मनुष्य उत्तम कर्म करे तभी वह आस्तिक हैं अन्यथा वह अंधविश्वासी हैं। अन्धविश्वास का मूल कारण अज्ञानता हैं एवं  हिंसा, दंगे,उपद्रव आदि का मूल कारण स्वार्थ हैं। 

  1.        क्या धर्म के कारण संसार में युद्ध,दंगे आदि  नहीं हुए हैं?

क्या धर्म अथवा आस्तिकता के कारण अन्धविश्वास को बढ़ावा नहीं मिलता?

क्या धर्म अथवा आस्तिकता के कारण निरीह प्राणियों की बलि नहीं दी जाती?

समाधान- संसार में जितनी भी हिंसा, युद्ध, दंगे आदि हुए हैं इनका कारण धर्म नहीं अपितु मत अथवा मज़हब की संकीर्ण हैं। हम जब धर्म के स्थान पर मत की मान्यताओं को अपना ध्येय समझ लेते हैं तब शांति के स्थान पर अशांति होती हैं , भ्रातृत्व के स्थान पर वैमनस्य को बढ़ावा मिलता हैं। पहले हमें धर्म की परिभाषा को समझना चाहिए।धर्म की परिभाषा क्या हैं?

१. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। “धार्यते इति धर्म:” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।

२. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।

३. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं।

४. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा

धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९

अर्थात धैर्य, क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी का त्याग, शौच अर्थात पवित्रता , इन्द्रियों का निग्रह अर्थात उन्हें वश में करना , बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण हैं।

दूसरे स्थान पर कहा है ‘आचार:परमो धर्म’ (१/१०८) अर्थात सदाचार परम धर्म हैं

५. महाभारत में भी लिखा है- ‘ धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:’

अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई हैं वह धर्म हैं।

६. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया हैं

यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:

अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।

७. स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा

जो पक्षपात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं। -सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास

पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ – सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य

इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश

गंभीरता से चिंतन मनन करने पर धर्म का मूल उद्देश्य व्यक्ति को सत्याचरण के लिए प्रेरित करना हैं।

धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक हैं अथवा बाधक हैं इसको जानने के लिए हमें धर्म और मजहब में अंतर को समझना पड़ेगा। यह धर्म के जिस विकृत रूप के कारण अन्धविश्वास, हिंसा अशांति, उपद्रव, दंगे आदि होते हैं उसे मज़हब या मतमतांतर कहना चाहिए।

4 thoughts on “मैं आस्तिक क्यों हूँ? (भाग – १)

  • केशव

    🙂
    आपके मनु महाराज के धर्म के लक्षणों जबाब दिया हुआ है मैंने की किस तरह नैतिकता के लक्षणों को धर्म का लक्षण बना के मुर्ख बनाया है आम जनता हो।
    आस्तिकता एक प्रकार का रोग है जिसे धर्म के नाम पर लोगो को परोसा जाता है ताकि धर्म के ठेकेदारों की दूकान दारी चलती रहे ।
    बाकी मेरा जबाब आपके सभी लेखो के बाद आयेगा 🙂

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. जो लोग स्वयं को नास्तिक कहकर दंभ करते हैं, उनकी आँखें खुल जानी चाहिए. इस लेख के अगले भागों की प्रतीक्षा है.

Comments are closed.