कविता

कुर्की

एक कुर्की में जप्त
कुछ माल-असबाब
गिरफ्त में ठिठुरते कई देह
उन्हें देखने जुटी – एक भीड़
जुर्म ..ठीक-ठीक तय नहीं
मगर असबाब का लिस्ट तैयार है

बर्तन
जूठे बर्तन
टूटे बर्तन
सूने बर्तन
नहीं है अवशिष्ट इनमें
दाना-दाना चाट लिए जाते हैं
और जीभ से लिख देते हैं ..अतृप्त पेट का गीत

बिस्तर
तंग बिस्तर
बंद बिस्तर
चंद बिस्तर
हमबिस्तर
नहीं बचता बिस्तर का कोई कोना
सर्द गहरी रात में..

पूँजी
दो हाथ – कई पेट

अस्मत
अछूता ..

अभिव्यक्ति
निःशब्दता

ईमान
अव्यवहारिक ..अस्पष्ट

गरीब
जात और धर्म से अज्ञान
ये शातिर ..बेघर होकर ..बसने आ गए हैं
-प्रशांत विप्लवी-

One thought on “कुर्की

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! वाह !! गहरी सोच और आक्रोश !

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