विविध

सत्यान्वेषण करती ‘सद्गंधा-विशद्गंधा’ : राजेन्द्र वर्मा

हिन्दी साहित्य को वैचारिक उर्जा देने में प्रयासरत कवि-निबन्धकार, राजेश कुमार द्विवेदी की नवीनतम कृति है- सद्गंधा-विशदगंधा। इसमें 61 विषयों पर विचार प्रकट किये गये हैं। इनमें से अधिकांश लघु निबन्ध कहे जा सकते हैं। कुछ तो इतने लघुतम हैं कि इन्हें साहित्य में किसी प्रचलित विधा के अन्तर्गत रखना कठिन है। पुस्तक का उद्देश्य है- सत्य को परिभाषित करने का प्रयास, सत्य और धर्म को परखना, उन्हें आचरण में उतारना तथा संवेदनशीलता के तृणमूल दर्शन को आगे बढ़ाना।

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लेखक अपने ‘कथाकथ’ में कहता है- ‘‘सद्गंधा-विशद्गंधा के अस्तित्व में आने का जो मूलभूत कारण है उसे यदि थोड़े शब्दों में व्यक्त किया जाय, तो वह है चारों ओर फैला हुआ- विचारों का संकट।…..दुष्ट पूंजीवाद से जन्मी आज की चटोरी इकोनामी की कोई सीमा नहीं है।….धरती बांझ हुई जाती है, पहाड़ श्मशान बने जाते हैं, लेकिन बहुलजनों को अत्यधिक कोशिशों के बाद भी न्यूनतम मात्रा में रोटी-कपड़ा-मकान मयस्सर नहीं हो जा रहे और यह बेढब इकोनामी सीमाहीन ढंग से छलांगती चली जा रही है। इस दुष्ट पूंजीवद के पिरामिड के शीर्ष पर विराजमान उन कुछ लोगों के लिए जो बिना कुछ काम किये मिली राजशाही से दुनिया समाज को निचोड़ डालना चाहते हैं। कोई ठुमके लगाकर करोड़ों अरोर रहा है, तो कोई छक्के लगाकर, वहीं पर बहुलजनों को नरकमयी जीवन से राहत तक नहीं मिल पा रही है। इन कुछ लोगों को इतना अधिक क्यूं चाहिए? किसके लिए, कहां के लिए और कब के लिए?…..इससे उबरने के लिए लेखक विकल्प भी सुझाता है- दिमाग़ का दुरुपयोग करने वालों को परास्त करने के लिए दिमाग़ का सदुपयोग करने वालों को ही आगे आना होगा।….’’

पुस्तक में विभिन्न शीर्षकों से योजित लघु निबन्धों की प्रस्तुति में उपर्युक्त विसंगतियों-विडम्बनाओं को वैचारिक विश्लेषण के माध्यम से आगे बढ़ाया गया है। इस विश्लेषण में लेखक ने मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों- क्षमा, सहिष्णुता, विचारशीलता, संवेदनशीलता आदि पर सारगर्भित विचार प्रकट करते हुए भारतीय परम्परा का यत्र-तत्र उल्लेख किया है। ‘सत्यं-शिवं-सुन्दरं’ का स्वप्न संजाये लेखक के चिन्तन में नवीनता है। कहीं-कहीं तार्किक आक्रामकता का आनन्द भी लिया जा सकता है। आज के पूंजीवाद से पूर्व ही सभ्यता और संस्कृति के विकास के नाम पर मनुष्य ने प्रकृति के अन्धाधुन्ध शोषण को अपनाया जिसका निरन्तर विस्तार आज वह मनुष्य के विरुद्ध खुलकर कर रहा है। उपर से, छद्म बुद्धिवाद से वह अपने कृत्य को औचित्यपूर्ण भी ठहराता है। इसका परिणाम यह है कि आज धन ने बुद्धि को रौंदकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली है। आज की सबसे बड़ी चुनौती मनुष्य का मनुष्य के प्रति शोषण और उसका छद्मदर्शन है। लेखक ने उन्हें पहचानने तथा उनकी संश्लिष्टता को पकड़ने का प्रयास किया है। साथ ही, जहां उसे अवसर लगा है, उन पर प्रहार कर संवेदनशीलता को बचाने का कार्य किया है। उसके दृष्टिकोण में वैश्विकता है, तथापि कहीं-कहीं हिन्दुत्व की पहचान और उसकी रक्षा का भार भी पुस्तक पर डाला गया है।

सौ पृष्ठीय पुस्तक में 34 पृष्ठ शुभाशंसा, अभिमत, परख आदि ने घेर रखा है। शेष 66 पृष्ठों में 61 लघु-निबन्ध हैं। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि निबन्धों का आकार क्या होगा? कुछ निबन्ध दो पृष्ठीय हैं, जैसे- क्रांतिक विचारशीलता, जाने सूरज, प्रचेतक कौन, भ्रष्ट पद्धतियां, भोजनीयता, एक छोटे बच्चे जैसा आज़ाद देश, चादर, चरैवेति, नये का चिन्तन। परागणित अवश्य तीन पृष्ठों का निबन्ध है। अधिकांश निबन्ध एक पृष्ठ अथवा आधे पृष्ठ के ही हैं। कुछ तो इतने लघु है कि एक-दो वाक्यों में ही सिमट गये हैं, पर ये कविता-सा आस्वाद देते है, जैसे- शोषणः
डिप्रेशन अविश्वास का भाव है/विश्वास का भाव सहजता है/शोषण विश्वासघात है। (पृ. 35)

इसी प्रकार ‘दुनिया’ नामक रचना में, लेखक कहता है-
बुराइयों के लिए दुनिया बहुत छोटी हो गयी/जबकि संवेदनशीलता दूर से दूरतम चली गयी है। (पृ. 53)

लघु निबन्ध परिरचना में लेखक ‘एकोअहं बहुस्यामि’ को नये ढंग से परिभाषित करता है और पाठक के सम्मुख उस मनुष्य होने का अर्थ रखता है जो आनन्दमय जीवन जीने का अभीष्ट रखता हैः
‘‘जैसे ही आप एकोअहं बहुस्यामि होते हैं, आप एक साथ ही ‘इंडिवीजुअल’ और ‘फाॅर अदर्स’ होते हैं। तराज़ू के पलड़ों की भांति इनमें पासंग व्यक्तित्व की त्रुटि के रूप में प्रकट होता है-

‘‘आप केवल अपने लिए नहीं हैं।/दुनिया केवल आपके लिए नहीं है।/आप केवल दुनिया के लिए नहीं हैं।/दुनिया केवल दुनिया के लिए नहीं है।

‘‘इन सबका ‘है’ संवेदनाओं की अद्भुत परिरचना करता है और आप संबंधों की कोमल क़तार में अपने आपको आनंदानुभूति के साथ निबद्ध पाते हैं।’’ पृ. 35

निबन्ध प्रचेतक कौन में हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध ब्रह्मसमाजियों की जम कर ख़बर ली गयी है जिनमें राजा राममोहन राय, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन, प्रतापचन्द्र मजूमदार आदि भी सम्मिलित हैं। लेखक कहता है, ‘‘सन् 1893 को विश्वधर्ममहासभा में हिन्दूविध्वंसन की इन नौटंकियों का प्रतिनिधित्व प्रतापचन्द्र मजूदार कर रहे थे जिन्हें पुरस्कारस्वरूप मृत्युपर्यन्त 1905 तक अमेरिका से पेंशन भी दी गयी। चमत्कारिक रूप से सन् 1893 की विश्वधर्ममहासभा में हिन्दुओं के प्रतिनिधि के रूप में एक पूर्व ब्रह्मसमाजी पुनः परिवर्तित हिन्दू संन्यासी स्वामी विवेकानन्द की दुंदुभि ‘जानने की धारा’ के रूप में अलख जगा पयी। स्वामी विवेकानन्द स्पष्टतः इन भ्रमित लोगों के लिए ‘परिमार्जन की धारा’ साबित हुए।’’ पृ. 41

परागणित में लेखक सत्य और आस्था के प्रश्नों से जूझता है। वह कहता है, ‘‘बिलीवर्स’ एक ऐसा अबूझ शब्द हो गया है जो ‘परम पवित्र’, ‘प्रश्न-परे’ व ‘सत्य’ को जानने का एक मात्र पैमाना हो गया है। जो बिलीवर्स प्रभाग में नहीं आते, उन्हें परम पापी मान लिया जाता है। ज़रा सोचिए, वस्तुतः प्रश्न आस्था का नहीं, सत्य का है, जिसकी मीमांसा होनी चाहिए। किन्तु परम्परा ढल चली है कि आस्था का आकार, प्रकार, गहनता सत्य को घोषित करने का आधार बना रहे। इस भांति हम स्पष्टतः ईश्वर प्रदत्त बुद्धि-विवेक के विरोध में जाते जा रहे हैं जिससे दुनिया कुत्सित और असहनशील होती जा रही है। खाने-पीने में हिंसा, प्रगति की प्रक्रिया में हिंसा, सोचने-समझने व आगे बढ़ने की कोशिशों में हिंसा बढ़ती ही चली जा रही है और हम ‘आस्था’ का स्वांग रच-रच के इन दिशाभ्रष्टता को ढकते चले जा रहे हैं।….’’ निबन्धकार विकल्प सुझाता है कि ‘सत्यों’ के उद्घाटन पर जो आस्था पैदा होती है, उसकी तुलना कसौटी वाले ‘चमत्कार’ से नहीं की जा सकती। ऐसी चमत्कारिक आस्था को आधार बनाने वाले आयामेंा से दूर से नमस्कार करना होगा।…. वह आगे कहता है, ‘‘बिलीवर्स मूवमेंटी वाली आस्थाएं राख के समान हैं जो कृत्रिम विधाओं का तो कुछ बिगाड़ नहीं पातीं, लेकिन स्वाभाविक विधाओं की अग्नि को युगों-युगों तक के लिए ढक देती हैं। बिलीवर्स मूवमेंट का विरोध ही पर्याप्त नहीं, बल्कि इससे छुटकारा पाना ही होगा। सत्य तभी पहचाना जायेगा।’’

आदमी आज भ्रष्टाचार से जूझ रहा है, वह चाहे जिस क्षेत्र का हो। जब जीवन-पद्धति ही भ्रष्ट हो जाए, तो फिर कैसे निज़ात मिले? निबन्ध- भ्रष्ट पद्धतियां में लेखक इसके कारणों की खोज करता है- ‘‘भ्रष्ट पद्धतियां ‘दिन’ का आईना दिखाती हैं और ‘रात’ को छुपा लेती हैं। सुन्दर पद्धतियां दिन-रात, दोनों का ख़याल रखती हैं। भ्रष्ट पद्धतियां शोषण की परम्पराएं स्थापित करती जाती हैं, यथा- मानव-शोषण, जीवन-शोषण, वन-शोषण, सागर-शोषण, धरती-शोषण, पर्वत-शोषण, जल-शोषण, मिट्टी-शोषण, नभ-शोषण, चिन्तन-शोषण आदि-आदि और भरपूर विज्ञापनों के द्वारा कुतर्काें द्वारा खुद की कारगुज़ारियों को अच्छा ठहराने की कोशिश करती हैं।’’ लेखक सचेत कर अपनी धर्म भी निभाता है- ‘‘ज़रा पहचानिए इनको, नहीं तो आपकी, हमारी, सबकी, आमजनों की पहचानें नष्ट हो जायेंगी- भ्रष्ट पद्धतियों के जंजाल में!’’

लगभग एक पृष्ठीय रचना- सीधा नाता, जो पुस्तक का अन्तिम लघु-निबन्ध है, में लेखक ने पाश्चात्य आध्यात्मिक चिन्तन को ख़ारिज करते हुए ईश्वर से तथाकथित सीधा नाता रखने वालों पर क़रारा व्यंग्य किया हैः
‘‘सेमेटिक रेलीजन्स ने एक बहुत बड़ी गड़बड़ी की कि ईश्वर से सीधा नाता रखो और परिवेशगत स्वजनों, समाज, विश्व, नैसर्गिक उपहारों जैसे, पवित्र नदियां, पवित्र पर्वत, पवित्र अरण्य आदि-आदि, से नाता तोड़ दो। उनके साथ उपेक्षात्मक व्यवहार करो , उनके प्रति ग़ुलामों जैसी दृष्टि रखो।

‘‘हिन्दुओं के भारतीय विश्वबंधुत्व को परे हटाकर आयी पाश्चात्य व्यापारिक चिन्तन की उपज बिल्कुल नयी और अशोधित संपदात्मक धारा ‘ग्लोबलाइजे़शन’ ने उपर्युक्त अपदृष्टि से बचे-खुचे नाम के हिन्दुओं को भी आप्लावित कर डाला।

‘‘वे भी मूढ़ों की भांति ‘ईश्वर’ से अब सीधे जुड़ गये और परिवेश, स्वजन, समाज, विश्व, नैसर्गिक उपहार उनके लिए भी अतार्किक ढंग से गौण हो गये। लाखों सालों से प्रवाहित मोक्षदायिनी देवनदी गंगाजी देखते-ही-देखते एक बड़े सड़े हुए गन्दे नाले में बदल कर इन्हीं नये मूढ़तम विश्वविजेताओं की भेंट चढ़ गयी। यह तो एक उदाहरण है। ग़ौर से देखो, तो पूरी-की-पूरी धरती आज इनसे आक्रान्त है। वाह रे, सीधा नाता!’’ पृ.100
पुस्तक पाठक को विचारशील बनाने में सफल है, लेकिन उसकी सीमा यह है कि उसकी रचनाओं में विचार विश्रंृखलित हैं। विषय-प्रवेश के उपरान्त विषय के विभिन्न पक्ष विस्तार को तरसते हैं और उसकी कुछ गांठे अनसुलझी ही रह जाती हैं। ऐसा लगता है कि लेखक ने यह मानकर इन निबन्धों की रचना की है कि पाठक उससे अधिक प्रबुद्ध है। कहीं-कहीं वैचारिक अस्पष्टता भी दृष्टिगोचर होती है। निबन्धों का आकार लघु होने के बावजूद अधिकांश स्थलों पर रचनाकार विषय-प्रवेश के समय ही उद्बोधन के साथ उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए- आधार शीर्षर्कांकित रचना, जो पूरी-की-पूरी यहां उद्धृत की जा रही है-
‘‘उपासना का कोई भी प्रकार हो, वह पंचमहाभूतों की परिधि के पार नहीं हो सकता, अतएव श्रेयस्कर है कि /हम/ पंचमहाभूतों के प्रति उपास्य, अनुरागी और निर्मल दृष्टि रखें।
‘‘क्षिति, जल, पावक मूर्तमंत्र उपासना पद्धति के आधार हैं, तो समीर, गगन अमूर्तमंत्र उपासना के आधार हैं।’’ पृ. 99

उपर्युक्त विचार यद्यपि सुष्ठु हैं, सत्याधारित हैं और पाखंडपूर्ण उपासना पद्धति के विरुद्ध अपनी सत्ता स्थापित करने में सक्षम हैं, तथापि ‘उपासना’ ऐसा विषय है कि विषय-प्रवेश करते ही उसके वर्णन और अनेक पहलुओं की मीमांसा की मांग स्वतः स्थापित हो जाती है। लेखक इतनी मितभाषिता के साथ विषय के साथ न्याय नहीं कर सकता। उसे पहले उपासना पद्धतियों के बारे में पाठक को परिचित कराना पड़ेगा, फिर उसमें आयी विसंगतियों के चित्र उपस्थित करने होंगे। तत्पश्चात् सम्यक विश्लेषणोपरान्त् रचनाकार को उद्बोधनात्क दृष्टि रखने की छूट मिलेगी।

भाषा के स्तर पर पुस्तक अपने उद्देश्य में सफल है। लेखक ने सामयिक बोल-चाल के शब्दों का भरपूर प्रयोग किया है- वे चाहे हिन्दी-उर्दू के हों, अथवा अंग्रेज़ी के हों। लेखक जो भी कहना चाहता है, अपनी भाषा से कह लेता है। प्रूफ़ के स्तर पर त्रुटियां अवश्य हैं। ‘वयस्कता’ को ‘व्यस्कता’ लिखने का कारण शायद यही हो।

पुस्तक की भासना है कि वह पाठक के मन-मस्तिष्क को सचेष्ट कर उसे अपनी विशद मूल गन्ध से सद्गन्ध में भासित कर दे। मेरी कामना है कि पुस्तक की भासना फलितार्थ हो।

पुस्तक विवरण

पुस्तक– सद्गंधा-विशद्गंधा,

लेखक– राजेशकुमार द्विवेदी,

प्रकाशक– गोपिका प्रकाशन, प्रीति नगर, डुडौली मार्ग, सीतापुर रोड, लखनऊ,

संस्करण– प्रथम, 2014,

मूल्य- 150 रुपये।

One thought on “सत्यान्वेषण करती ‘सद्गंधा-विशद्गंधा’ : राजेन्द्र वर्मा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी समीक्षा ! पुस्तक पढने और मनन करने योग्य है.

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