इतिहास

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-६

छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों का श्रीमद्भगवद्गीता पर एक आरोप यह भी है कि गीता जाति-व्यवस्था को न सिर्फ स्वीकृति देती है, वरन्‌ इसे ईश्वरीय भी मानती है। अपने समर्थन में वे गीता के अध्याय चार के निम्न श्लोक का उद्धरण देते हैं –

      चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

                        तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्

      “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं” – चार वर्णों की रचना मैंने की । तो क्या मनुष्यों को चार भागों में बांट दिया? श्रीकृष्ण कहते हैं – नहीं, “गुणकर्म विभागशः”- गुणों के माध्यम से कर्म चार भाग में बांटा। गुण एक पैमाना है। उस गुण के ही कारण मनुष्य एक वर्ण विषेश का प्रतिनिधित्व करेगा। सृष्टि के आरंभ से लेकर आजतक मनुष्यों का वर्गीकरण होता आया है। यह कोई नई बात नहीं है। गुण और कर्म के आधार पर वर्गीकरण न्यायोचित और स्वाभाविक है। जब यह विभाजन जन्मना हो जाता है, तो जातियां पैदा होती हैं। सनातन/हिन्दू धर्म का दर्शन विश्व में सर्वोत्तम है लेकिन कालक्रम में इसको माननेवालों के आचरण में क्षय आता गया। जिस व्यवस्था को श्रीकृष्ण गुणकर्म के आधार पर स्वीकृति देते हैं, वही व्यवस्था चुपके से जन्मना बन गई। दबे पांव इस कुरीति ने कब और कैसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त कर ली, यह शोध का विषय है। आशा थी कि देश के स्वतंत्र होने के बाद इस व्यवस्था को तिलांजलि दे दी जाएगी। महात्मा गांधी जाति व्यवस्था के मुखर विरोधी थे लेकिन उनके ही शिष्यों द्वारा निर्मित संविधान ने जन्मना जाति-व्यवस्था पर मुहर लगा दी। जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था संविधान ने मात्र १० वर्षों के लिए की थी लेकिन इस लोकतंत्र ने इसे अनन्त काल का विस्तार दे दिया है। उपरी मन से भ्रष्ट राजनीतिज्ञ भी जाति का विरोध करते हैं लेकिन अंदर से सभी समर्थन करते हैं। यह सभी को सूट करता है। वोट-बैंक की राजनीति ने इसे स्थाई स्वरूप दे दिया है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में जाति आधारित जनगणना का क्या औचित्य? लेकिन वह भी हो रहा है। हमने श्रीकृष्ण के गीता संदेश को भुला दिया। परिणाम सामने है – समाज में टूटन, बिखराव, वैमनस्य और अविश्वास। यह बीमारी इतनी बढ़ गई है कि अब लगता है इसके उपचार के लिए श्रीकृष्ण को पुनः आना ही पड़ेगा।

दुनिया का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जहां गुणकर्म के आधार पर समाज में वर्गों का निर्माण न हुआ हो। आज भी सरकार ने कानून बनाकर राजकीय सेवकों को चार श्रेणियों में बांट रखा है —

१. क्लास-१ — नीति निर्माण, प्रबंधकीय, कार्यकारी और वित्तीय अधिकार से संपन्न उच्च अधिकारी।

२. क्लास-२ — आदेश पालक अधिकारी।

३. क्लास-३ — इन्हें आफिसियल या सबआर्डिनेट स्टाफ़ कहा जाता है। ये कार्यालय सहायक या तकनिकी सहायक               कर्मचारी होते हैं।

४. क्लास-४ — चपरासी, रनर, कूली, अकुशल श्रमिक।

क्लास-१ और २ में भी कई उपवर्ग हैं। इसी तरह क्लास-३ और ४ में भी सैकड़ों उपवर्ग हैं। उपरोक्त व्यवस्था आज का सच है जिसे संविधान सम्मत बताकर हर कोई मौन साध लेता है। क्या एक क्लास-१ के अधिकारी ( जिलाधिकारी का उदाहरण ले लें) और उसके चपरासी जो क्लास-४ का कर्मचारी होता है, के वेतन, ग्रेड वेतन, सुविधाओं, सामाजिक प्रतिष्ठा (social atatus) और रहन-सहन में कोई समानता है? दोनों सरकारी कर्मचारी हैं। एक के पास सरकारी कारों का काफ़िला है, तो दूसरे के पास सरकारी सायकिल भी नहीं। एक के पास कई एकड़ में विस्तृत आवास है, तो दूसरे के पास एक झोंपड़ी भी नहीं। दोनों सरकारी यात्रा करते हैं – एक हवाई जहाज के एक्ज़िक्युटीव क्लास में, दूसरा भारतीय रेल के सामान्य डिब्बे में, धक्के खाता हुआ खड़े-खड़े। इस विभाजन का आखिर आधार क्या है? गुण और कर्म ही न? बस, इस व्यवस्था की एक अच्छाई है, और वह यह है कि यह विभाजन जन्मना नहीं है। यहां श्रीकृष्ण के संदेश ने काम किया है।

श्रीकृष्ण ने जो भी कहा है, विश्वास के साथ कहा है। वे स्पष्ट कहते हैं कि चारों वर्णों की रचना गुणकर्म के आधार पर की गई। ध्यान देने की बात है कि यह व्यवस्था कही से भी जन्मना नहीं थी। ब्राह्मण अपने गुणकर्म से च्युत होता था, तो उस वर्ण से निष्कासन का विधान था और शूद्र भी अगर शुभ कर्म करता था, तो उच्चीकृत करके ब्राह्मण वर्ग में सम्मिलित किया जाता था। महर्षि बाल्मीकि और वेद व्यास जन्मना शूद्र ही थे। लेकिन स्वाध्याय, त्याग, तपस्या के द्वारा गुणों का विकास करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। एक ने रामायण लिखी, तो दूसरे ने महाभारत जिसमें गीता भी सम्मिलित है। परम ज्ञान की पुस्तक वेद को उसके विषय के अनुसार चार भागों में बांटकर सर्वसुलभ बनाने का पुनीत कार्य जिस कृष्ण द्वैपायन ने किया, वे एक कुंआरी केवट कन्या के अवैध पुत्र थे। आज सारा हिन्दू समाज उन्हें वेद व्यास के नाम से जानता है और पूजता है। गुणहीन ब्राह्मण का हमारे स्वर्ण काल में कोई स्थान नहीं था। महाभारत के शान्ति पर्व में शर- शय्या पर पड़े भीष्म पितामह श्रीकृष्ण की उपस्थिति में पांचो पाण्डव और द्रौपदी को राजा के धर्म-कर्म को विस्तार से समझाते हुए स्पष्ट कहते हैं —

“जो विद्वान-द्रोह और अभिमान से रहित, लज्जा-क्षमा-शम-दम आदि गुणों से युक्त बुद्धिमान, सत्यवादी, धीर, अहिंसक, राग-द्वेष से शून्य, सदाचारी, शास्त्रज्ञ और ज्ञान से संतुष्ट हो, वही ब्रह्मा के आसन पर बैठने का अधिकारी है – वही ब्राह्मण है।”

                              (शान्ति पर्व, महाभारत)

महर्षि वेद व्यास देखने में अत्यन्त कुरूप थे, रंग भी काला था लेकिन उन्होंने उपर वर्णित समस्त गुणों को धारण किया था; इसलिए वे वेद व्यास कहलाए। महाभारत काल से लेकर आजतक के वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण थे। आज भी जो कथा वाचक रामायण, महाभारत, गीता या भागवत्पुराण पर प्रवचन देता है, उसे व्यास ही कहा जाता है और जिस आसन पर बैठकर  वह श्रोताओं को संबोधित करता है, उसे व्यास गद्दी कहा जाता है।

पितामह भीष्म की शान्ति पर्व में ही एक और उक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण है —

“काठ का हाथी, चमड़े का हिरन, हिजड़ा मनुष्य, ऊसर खेत, नहीं बरसने वाला बादल, अपढ़ ब्राह्मण और रक्षा न करने वाला राजा — ये सबके सब निरर्थक और त्याज्य हैं।”

श्रीकृष्ण ने गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बांटा। गुण ही एकमात्र पैमाना है, मापदण्ड है। तामसी गुण होगा तो आलस्य, निद्रा, प्रमाद, कर्म में न प्रवृत होने का स्वभाव, जानते हुए भी अकर्तव्य से निवृति न हो पाने की विवशता रहेगी। ऐसे लोगों को शूद्र की श्रेणी में रखा गया। उनके लिए कहा गया – “परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्जो महापुरुष अव्यक्त की स्थिति वाले हैं, अविनाशी तत्त्व में स्थित हैं, उनकी तथा इस पथ पर अग्रसर अपने से उन्नत लोगों की सेवा में लग जाओ। इससे दूषित संस्कारों का शमन होगा और साधना में प्रवेश दिलाने वाले संस्कार सबल हो जाएंगे।

क्रमशः तामसी गुण न्यून होने पर राजसी गुणों की प्रधानता तथा सात्विक गुण के साथ साधक की क्षमता वैश्य श्रेणी की हो जाती है। उस समय वही साधक इन्द्रिय संयम, आत्मिक संपत्ति का संग्रह स्वभावतः करने लगेगा। कर्म करते-करते उसी साधक में सात्विक गुणों का बाहुल्य हो जाएगा, राजसी गुण कम रह जाएंगे, तामसी गुण शान्त रहेंगे। उसी समय वही साधक क्षत्रिय श्रेणी में प्रवेश पा लेगा। शौर्य कर्म में प्रवृत रहने की क्षमता, पीछे न हटने का स्वभाव, समस्त भावों पर स्वामीभाव, प्रकृति के तीनों गुणों को काटने की क्षमता उसके स्वभाव में ढल जाएगी। वही कर्म और सूक्ष्म होने पर, मात्र सात्विक गुण कार्यरत रह जानेपर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण, एकाग्रता, सरलता ध्यान, समाधि, ईश्वरीय निर्देश, आस्तिकता इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली स्वभाविक क्षमता के साथ वही साधक ब्राह्मण श्रेणी का कहा जाता है। यह ब्राह्मण श्रेणी के कर्म की निम्नतम सीमा है। जब वही साधक ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तो उस अन्तिम सीमा में वह स्वयं न ब्राह्मण रहता है, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र। किन्तु दूसरों के मार्गदर्शन हेतु वही ब्राह्मण है। कर्म एक ही है – नियत कर्म, आराधना। अवस्था भेद से इसी कर्म को उँची-नीची चार सीढ़ियों मे बांटा गया।

क्रमशः

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-६

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी लेखमाला. गुण कर्म स्वाभाव के अनुसार जिम्मेदारियां और अधकार बांटना प्राकृतिक प्रक्रिया है. जो गधे-घोड़े सबको बराबर बताते हैं, मनवाना चाहते हैं, वे महामूर्ख हैं. प्राचीन वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार थी, लेकिन जब से यह जन्म के आधार पर होने लगी है, तब से इसमें विकृतियाँ आ गयी हैं.

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