इतिहास

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-७

प्रत्येक मनुष्य, मनुष्य ही नहीं प्रत्येक जीवात्मा में ईश्वर का अंश है। प्रकृति की प्रत्येक कृति ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति कराती है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का ही अवतार या रूप है, समस्या सिर्फ स्वयं को पहचानने की है। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरत्व प्राप्त करने की क्षमता होती है। गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने मानव जाति के लिए उस परम उपलब्धि हेतु संभावनाओं के अनन्त द्वार खोल दिए हैं। जीवन में विभिन्न भूमिकाओं का सामान्य मनुष्य की तरह निर्वाह करते हुए भी श्रीकृष्ण ईश्वरत्व को प्राप्त व्यक्ति हैं। अर्जुन एक सधारण मानव का प्रतिनिधित्व करता है। अर्जुन की द्विधा, अर्जुन के प्रश्न, अर्जुन का द्वन्द्व, एक साधारण परन्तु ईश्वर के प्रति समर्पण की प्रबल इच्छा वाले मनुष्य के हृदय में उत्पन्न होती हुई तर्कपूर्ण जिज्ञासाएं हैं, जिसका समाधान श्रीकृष्ण करते हैं। इस संवाद में श्रीकृष्ण कभी अर्जुन के तल (Level) पर आकर संभाषण करते हैं, तो कभी एक कदम आगे जाकर। संवाद करते-करते वे कभी-कभी उपर उठकर परमात्मा के तल को प्राप्त कर लेते हैं। जब वे ’मैं’ का प्रयोग करते हैं, उस समय वे परम पिता परमेश्वर के तल पर होते हैं। वे कई तलों पर खड़े होकर अर्जुन से संवाद स्थापित करते हैं। तलों का अन्तर समझ लेने से गीता का वास्तविक अर्थ आसानी से समझा जा सकता है। गीता का पाठक या श्रोता सबकुछ अपने ही तल पर घटित होते हुए देखना चाहता है। इससे कभी-कभी मतिभ्रम या विरोधाभास दिखाई देने लगता है।

वेदान्त का सर्वविदित वाक्य है –एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति” – एक ही सत्य अनेक विद्वान अनेक तरह से कहते हैं। बायबिल में भी सत्य है, कुरान में भी सत्य है, वेदों में भी सत्य है। ये सभी अन्त में जाकर परम सत्ता के परम सत्य में विलीन हो जाते हैं। यह कहना कि मेरे ग्रंथ में प्रतिपादित सत्य ही असली सत्य है, बाकी सब मिथ्या, घोर अज्ञान है। आज दुनिया में फैली धार्मिक अशान्ति और हिन्सा का यही मूल कारण है। इतिहास साक्षी है कि इस विश्व में जितना नरसंहार धर्म के नाम पर हुआ है, उतना प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध और हिरोशिमा-नागासाकी पर अणु बम के प्रहार से भी नहीं हुआ है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो भी, जैसे भी, जिस रूप में मेरे पास आता है, मैं उसे उसी रूप में स्वीकार करता हूँ क्योंकि इस ब्राह्माण्ड के सारे रास्ते, चाहे वे कितने भी अलग-अलग क्यों न हों, मुझमे ही आकर मिलते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो की धर्मसभा के उद्‌घाटन भाषण में गीता का संदर्भ देते हुए जब श्रीकृष्ण की उपरोक्त उक्ति दुहराई, तो हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। सबके लिए यह रहस्योद्‌घाटन बिल्कुल नया था। उनके संबोधन के दौरान दो बार जबरदस्त करतलध्वनि हुई – पहली बार जब उन्होंने उपस्थित जन समुदाय  sisters and brothers of America  कहकर संबोधित किया और दूसरी बार जब गीता की उपरोक्त सूक्ति का भावार्थ अपने ओजपूर्ण स्वर में प्रस्तुत किया। ये दोनों चीजें शेष विश्व के लिए नई थीं । विश्व को एकता, भाईचारा, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, समानता और सौहार्द्र के मजबूत धागे में पिरोकर एक सुन्दर पुष्पहार बनाने की क्षमता मात्र गीता में है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एस. एन. श्रीवास्तव ने गत वर्ष एक फैसले के माध्यम से केन्द्र सरकार को गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का परामर्श यूं ही नहीं दे दिया। गीता असंख्य महापुरुषों के जीवन की प्रेरणा रही है। इनमें स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, पंडित मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विनोबा भावे, लाला लाजपत राय, महर्षि अरविन्द घोष,  सर्वपल्ली डा. एस. राधाकृष्णन, भगत सिंह, सुखदेव, राम प्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे.कलाम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

गीता किसी विशिष्ट व्यक्ति, जाति, वर्ग, पन्थ, धर्म, देशकाल या किसी रूढ़िग्रस्त संप्रदाय का ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यह सार्वलौकिक, सार्वकालिक धर्मग्रन्थ है। यह प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति तथा प्रत्येक स्तर के स्त्री-पुरुष के लिए, सबके लिए है। केवल दूसरों से सुनकर या किसी से प्रभावित होकर मनुष्य को ऐसा निर्णय नहीं लेना चाहिए, जिसका प्रभाव सीधे उसके अपने व्यक्तित्व पर पड़ता हो। पूर्वाग्रह की भावना से मुक्त हुए सत्यान्वेषियों के लिए यह आर्षग्रन्थ आलोक-स्तंभ है. पूर्वाग्रहियों को इसमें कुछ नहीं मिलेगा। वही गीता अर्जुन ने सुनी, वही संजय ने और उसी गीता को संजय के माध्यम से धृतराष्ट्र ने भी सुनी। तीनों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा। अर्जुन के सारे मोह नष्ट हो गए और परम ज्ञानी हो गया। धृतराष्ट्र जहां थे, तहां रह गए। उनका मोह और प्रतिशोध इतना बढ़ गया कि महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद आलिंगन के बहाने छल से वीर भीमसेन की हत्या की असफल कोशिश भी की. ऐसा इसलिए हुआ कि वे आरंभ से ही पूर्वाग्रह से भरे थे। संजय का सत्य-अन्वेषण का प्रयास और तेज हो गया।

हिन्दुओं का आग्रह है कि वेद ही प्रमाण हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान, परंपरा की जानकारी। गीता चारो वेदों का सार-तत्त्व है।  परमात्मा असीम है, सर्वव्यापी है। वह न संस्कृत में है, न संहिताओं में, न अरबी में, न हिब्रू में, न लैटिन में न अंग्रेजी में। पुस्तक तो उसका संकेत मात्र है। वह वस्तुतः हृदय में जागृत होता है।

प्रत्येक महापुरुष की अपनी शैली और अपने कुछ विशिष्ट शब्द होते हैं। श्रीकृष्ण ने भी गीता में कर्म, यज्ञ, वर्ण, वर्णसंकर, युद्ध, क्षेत्र, ज्ञान इत्यादि शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है। इन शब्दों का विशेष आशय है। गीता के जिज्ञासु सुधि पाठकों के लिए इन शब्दों के गीता के संदर्भ में उचित अर्थ देने का नीचे प्रयास कर रहा हूँ। इन शब्दों के भावों को हृदय में रखकर यदि गीता का अध्ययन और श्रवण किया जाय, तो गीता रहस्य सरलता से हृदयंगम किया जा सकता है, ऐसा मेरा अनुभव है।

      श्रीकृष्णपरमात्मा।

            अर्जुनमनुष्य की चेतना।

            विश्वाससंदेह गिरे बिना ओढ़ा गया आवरण।

            श्रद्धासंदेह के पूरी तरह गिर जाने के बाद उत्पन्न स्थिर भाव।

            द्वन्द्वसत्य तक पहुंचने का मार्ग।

            सत्यआत्मा ही सत्य है।

            सनातनआत्मा सनातन है, परमात्मा सनातन है।

            युद्धदैवी और आसुरी संपदाओं का संघर्ष।

            ज्ञानपरमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी।

            योगसंसार के संयोगवियोग से रहित अव्यक्त परमात्मा से मिलन का नाम।

            ज्ञानयोगआराधना ही कर्म है। स्वयं पर निर्भर होकर कर्म में प्रवृत्त होना ज्ञानयोग है।

            निष्काम कर्मयोगइष्ट पर निर्भर होकर समर्पण के साथ कर्म में प्रवृत्त होना निष्काम कर्मयोग है।

            यज्ञसाधना की विधिविशेष का नाम यज्ञ है।

            वर्णएक ही साधक का ऊंचानीचा स्तर।

            कर्मयज्ञ को कार्यरूप देना ही कर्म है।

            वर्ण संकरपरमार्थ पद से च्युत हो जाना।

            अवतारव्यक्ति के हृदय में होता है, बाहर नहीं।

            विराट दर्शनयोगी के हृदय में  ईश्वर द्वारा दी गई अनुभूति।

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। श्रीमद्भगवद्गीता का महात्म्य शब्द या वाणी में वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं। मैं कोई  गीता का मर्मज्ञ नहीं हूँ। लेकिन शान्त जल में भी पत्थर फेंकने पर हिलोरें उठने लगती हैं। पिछले कुछ दिनों से छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों ने अपने-अपने लेखों के माध्यम से गीता के विषय में कुछ भ्रान्तियां फैलाने के प्रयास किए। उससे मेरा मन गहरे में आहत हुआ – परिणाम आपके सामने है। अपने लेखों  के माध्यम से मैंने अपनी बात आप तक पहुंचाई है। सात कड़ियों के इस लेख के लिए सर्व प्रथम मैं छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों के प्रति आभार प्रकट करना चाहूंगा। न उन्होंने कंकड़ फेंका होता, न लहरें उठतीं और न  इस लेखमाला का सृजन होता। पाठकों ने अपनी उत्साहवर्धक टिप्पणी से मेरा मनोबल बनाए रखा, अन्यथा यह लेखमाला एक या दो अंकों से आगे नहीं जा सकती थी।

इति

 

संदर्भ ग्रन्थ —

१. श्रीमद्भगद्गीता (गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित) – भगवान श्रीकृष्ण

२. महाभारत (गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित) – महर्षि वेदव्यास

३. गीता रहस्य – लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

४. गीता दर्शन – आचार्य रजनीश

५. कृष्ण-स्मृति – आचार्य रजनीश

६. यथार्थ गीता – स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी

७. श्रीमद्भगवद्गीता-प्रवाह – ईं. प्रभु नारायण श्रीवास्तव।

 

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी – चर्चा-७

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी लेख माला. गीता को जितना पढ़ा जाय कम है. इससे जीवन को हर बार नया मार्गदर्शन मिलता है.

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