धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेदाध्ययन में स्त्रियों व दलितों सहित सभी का समान अधिकार

वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जिसका उद्देश्य सभी विषयों, तृण से लेकर ईश्वर पर्यन्त, में मनुष्यों को सत्य व असत्य का विवेक कराना है। यदि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान न दिया होता तो मनुष्य आंख, नाक, कान, मुंह, जिह्वा, कण्ठ, मन व बुद्धि के होते हुए भी अज्ञानी ही रहते। वह परस्पर कुछ भी बोल न पाते। बोलने के लिए भाषा चाहिये और भाषा के लिए मन व मस्तिष्क में विचार आना चाहिये। मन व मस्तिष्क में विचार भी भाषा में ही आते हैं। अतः मन व मस्तिष्क में विचार ही न आते तो यह हमारा मन, मस्तिष्क, बुद्धि, मुंह, कण्ठ आदि सभी अंग व्यर्थ सिद्ध हो जाते। ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई चेतन सत्ता ऐसी नहीं थी जो यह कार्य कर सकती। ईश्वर सर्वव्यापक व निराकार होने से हमारी आत्मा व अन्य सभी आत्माओं के भीतर भी विराजमान होता है। वह जीवात्मा में उसी प्रकार से ज्ञान दे देता है जैसा कि हम विचार, इच्छा, संकल्प या भावना से अपने शारीरिक अंगों से कार्य लेते हैं। हमें हाथ उठाने के लिए आत्मा या मन में इच्छा करनी होती है व हाथ को प्रेरणा करते हैं तो वह उठ जाता है, पैर चल पड़ते हैं, लेख लिखना हो तो लिखने का कार्य आरम्भ हो जाता है। लिखना बन्द करना हो तो वह भी इच्छा करने से हो जाता है। ईश्वर भी सबकी आत्माओं के भीतर होने से इच्छा व संकल्प के द्वारा जीवात्माओं को प्रेरणा करके ज्ञान देता है। वेद ज्ञान देने का कार्य वह सृष्टि के आरम्भ में करता है और चाहता है कि मनुष्य इस वेद ज्ञान की रक्षा करते हुए इसका उपयोग कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध करें। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में ही ईश्वर ने वेदों का ज्ञान वैदिक संस्कृत भाषा, जिसके शब्द व पद यौगिक वा धातुज हैं, सभी मन्त्रों के अर्थ सहित चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था।

यह वेद ज्ञान सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक और उसके बाद अब तक चला आया है। मध्यकाल में वेदाध्ययन में आलस्य, प्रमाद व कुछ लोगों के क्षुद्र स्वार्थों के कारण यह सीमित हो गया था और फिर उसमें अन्धविश्वास व कुरीतियों के कारण अर्थ के अनर्थ किये जाने लगे। यहां तक हुआ कि एक काल्पनिक वाक्य स्त्री शूद्रो नाधीयातामिति श्रुतेः कह कर सभी स्त्रियों व अपठित शूद्रों व उनकी सन्तानों को वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया। अन्य भी अन्धविश्वास व कुरीतियों के कारण इन लोगों का जीवन नरक बना दिया गया जिसमें दोष वेदों या वेदों पर आधारित मनुस्मृति का न होकर हमारे तत्कालीन पण्डितों के अज्ञान व स्वार्थ था। महर्षि दयानन्द ने इस चालाकी, अज्ञान व स्वार्थ को जानकर व अपने पुरूषार्थ से वेदों के सत्य अर्थों को जानकर असत्य का निराकरण किया और सभी मनुष्यों वा स्त्री-पुरूषों को वेदाध्ययन का ब्राह्मणों के समान अधिकार देकर संसार की सबसे बड़ी शैक्षिक क्रान्ति को जन्म दिया। इस क्रान्ति का लाभ उठाकर एक निर्धन व सभी दलित व्यक्ति और सभी स्त्रियां भी वेदों की विद्वान बनकर समाज व देश के पूजनीय व्यक्ति बन सकते हैं वा आर्य समाज ने सहस्रों स्त्रियों, दलितों व पिछड़ों को वेदों का विद्वान बनाया भी है।

वेदों के अध्ययन से स्त्रियों व दलितों-शूद्रों को बाधित करने के लिए जो वाक्य वा सूक्ति स्त्री शूद्रौ नाधीयातामिति श्रुतेः का प्रतिबन्ध बताया गया वह वस्तुतः वेद या किसी प्रमाणिक ग्रन्थ की न होकर किसी अज्ञानी व स्वाथी पण्डित के द्वारा इसे बनाया गया था। इसके आधार पर दो सहस्रों से अधिक वर्षों तक इन दोनों ही वर्गों पर भीषण अत्याचार किये गये। महर्षि दयानन्द के कार्य क्षेत्र में अवतीर्ण होने पर उन्होंने कहा कि यह वाक्य कपोलकल्पित है एवं किसी प्रामाणिक ग्रन्थ या वेदों का कदापि नहीं है। इस वाक्य को मानने वाले हमारे पौराणिक पण्डित इसे वेद या अन्य किसी प्रमाणित शास्त्र का सिद्ध न कर पाने के कारण परास्त हो गये और महर्षि दयानन्द की बात स्वीकार हो गई। इतना ही नहीं वेद को पढ़ने का सभी स्त्री-पुरुषों, दलितो, अगड़े व पिछड़ों का समान अधिकार है, इससे सम्बन्धित यजुर्वेद 26/2 मन्त्र को भी उन्होंने प्रस्तुत किया जिसमें परमात्मा ने कहा है कि मैं सब मनुष्यों के लिए कल्याणकारिणी, संसार और मुक्ति के सुख को देने वाली वेदवाणी का उपदेश करता हूं। तुम भी मेरा अनुकरण करों व तुम भी अज्ञानियों को वेदों का ज्ञान कराओं। मन्त्र में परमात्मा ने कहा है कि उसने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने भृत्य वा स्त्री आदि और अतिशूद्र-अज्ञानी-अपठित-निर्धन-किसान-मजदूर-सेवक आदि के लिए भी वेदों का प्रकाश व उपदेश किया है। यह प्रसिद्ध मन्त्र निम्न हैः

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

            ब्रह्मराजन्याभ्याम् शूद्राय चार्याय स्वाय चारणाय च।

यजुर्वेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है कि परमात्मा की ओर से मनुष्य मात्र को वेदों के अध्ययन का अधिकार है और यह अधिकार स्वयं परमात्मा ने वेद के इस मन्त्र व मनुष्यों के शरीर में बुद्धि व ज्ञान इन्द्रियां बनाकर सबको दिया है जिससे उसके सभी पुत्रियां और पुत्र वेदों के विद्वान बनकर संसार को स्वर्ग बना सकें। मध्यकाल के पण्डितों द्वारा प्रचारित स्त्री शूद्रो नाधीयताम् सूक्ति के विरूद्ध यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या परमेश्वर स्त्री, शूद्रों व अन्य किसी का भला नहीं करना चाहता? क्या वह चाहता है कि केवल ब्राह्मणों का ही भला हो व अन्यों का भला न हो? क्या वह पक्षपाती और अन्यायकारी है कि शूद्रों को वेदों को पढ़ने व सुनने का निषेध करे और द्विजों के लिए विधान करे? यदि ईश्वर ऐसा सोचता वा चाहता तो फिर वह स्त्री और शूद्रादि अपने पुत्र व पुत्रियों के शरीर में वाणी, श्रोत्र-इन्द्रिय, बुद्धि आदि क्यों बनाता? शारीरिक रचना से यह सिद्ध है कि परमात्मा ने मनुष्यों को बुद्धि, वाक् व श्रोत्र आदि अंग इसी लिए प्रदान किये हैं कि जिससे सभी मनुष्य वेदों में निहित विद्याओं  का अध्ययन कर उन्नति कर सकें। परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्न आदि पदार्थ सभी मनुष्यों व प्राणियों के लिए बनाये हैं, किसी के साथ पक्षपात व अन्याय नहीं किया है, उसी प्रकार वेद ज्ञान भी सभी मनुष्यों जिसमें स्त्री व शूद्र भी सम्मिलित हैं, सबके लिए प्रकाशित किये है। ईश्वर ने यदि कहीं निषेध किया है तो उसका अर्थ यह है कि जिन कुछ मनुष्यों को पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी विद्या व ज्ञान उत्पन्न न हो, ऐसे लोगों के निर्बुद्धि और मूर्ख होने से उन्हें सेवा का कार्य दिया जाये जिससे उनका शारीरिक विकास हो सके और वह अपने जीवन की आवश्यकतायें पूरी कर सकें। सेवा का कार्य करने और विद्याहीन होने से उन्हें शूद्र नाम से जाना जाता है। यहां यह भी स्पष्ट करना उचित होगा कि वैदिक वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर ज्ञान-गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित है। इस व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि पुत्र-पुत्री मूढ़ बुद्धि होने से शूद्र हो सकते हैं और किसी शूद्र का बालक व बालिका पठित व ज्ञानी होने से उच्च वर्ण का हो सकता है। जो व्यक्ति पढ़ने वा पढ़ाने से कुछ भी न समझ सके उसको पढ़ाना व उसका पढ़ना व्यर्थ होता है। अतीत में हमारे देश के जिन लोगों ने स्त्रियों के पढ़ने का निषेध किया व अब भी करते हैं वह मूर्खता, स्वार्थपरता और निर्बुद्धिता कके कारण किया गया व कर रहे हैं। अथर्ववेद के मन्त्र 11/5/18 में ईश्वर ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। कन्याओं को, ब्रह्मचर्य का सेवन करने तथा वेदादि शास्त्रों को पढ़कर पूर्ण विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त होकर और युवती होकर पूर्ण युवावस्था में अपने सदृश प्रिय विद्वान् और पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरूष से विवाह करके प्राप्त हो, कहा गया है। इसी प्रकार के विधान श्रौतसूत्रों में भी है। वहां कहा गया है कि इमं मन्त्रं पत्नी पठेत् अर्थात यज्ञ में पत्नी इस वेद मन्त्र को पढ़े। इससे सिद्ध है कि वैदिक काल में स्त्रियां वेद पढ़ा करती थी। यदि वह वेद पढ़ी हुई न होती तो यज्ञ में स्वर सहित मन्त्रों का उच्चारण और संस्कृत में भाषण व वार्तालाप कैसे किया करती? शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढ़कर पूर्ण विदुषी अर्थात वेदों की मर्मज्ञ वा विदुषी हुईं थी।

स्त्रियों को वेदाधिकार से सम्बन्धित महर्षि दयानन्द लिखित शब्द भी ध्यान देने योग्य हैं। वह लिखते हैं – देखों ! आर्यावर्त्त के राजपुरूषों की स्त्रियां धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या भी अच्छे प्रकार जानती थी। यदि वे युद्धविद्या को जानती होतीं तो कैकेयी आदि दशरथ आदि के साथ युद्ध में क्योंकर जा सकतीं और युद्ध कर सकतीं। सुशिक्षिता स्त्री ही घर को सुन्दर बना सती हैं। वैद्यकविद्यानिपुण स्त्री घर को स्वर्ग बनाएगी और शिल्पविद्या निपुण स्त्री घर को शोभावाला बनाएगी, अतः स्त्रियों को वेद आदि शास्त्र पढ़ने और पढ़ाने ही चाहिएं। यहां हम यह भी बताना चाहते हैं कि विगत 115 वर्षों में आर्य समाज में देश भर में कन्याओं व बालकों के लगभग 250 गुरूकुल स्थापित किया जहां पढ़कर सहस्रों स्त्रियां, मनुष्य वा दलित वेदों के विद्वान बने और उन्होंने महर्षि दयानन्द के विचारों को क्रियात्मक रूप दिया। आज भी यह संस्थायें कार्यरत हैं जो वेदों की रक्षा व प्रचार-प्रसार का दृण आधार हैं। देहरादून में ही कन्याओं के दो गुरूकुल द्रोणस्थली कन्या गुरूकुल व कन्या गुरूकुल हैं तथा बालकों का आर्ष गुरूकुल पौंधा हैं जहां एक सौ से अधिक कन्यायें व बालक वेदों व वेद-व्याकरण का अध्ययन करते हैं। गुरूकुल कांगड़ी, हरिद्वार तथा गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालपुर का ऐतिहासिक महत्व रहा है। पतंजलि योग पीठ, हरिद्वार के संस्थापक स्वामी रामदेव भी आर्य समाज के एक गुरूकुल, गुरूकुल कालवां-हरियाणा, के विद्यार्थी रहे हैं और वेदों सहित योग व आयुर्वेंद के क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। देश भर में प्रत्येक जिले में वेद विद्या के प्रचार व प्रसार के लिए एक गुरूकुल आचार्यकुलम् की स्थापना हेतु वह प्रयासरत हैं।

हमारे इस लेख प्रस्तुत विचारों से यह सिद्ध है कि वेदों सहित सभी विद्याओं को पढ़ने का सभी स्त्री व शूद्रों-दलितों सहित सभी मनुष्यों को पूर्ण अधिकार है। वैदिक काल में भी समाज के सभी मनुष्यों को वेदाध्ययन का अधिकार रहा है। मध्य काल में यह अधिकार छीन लिया गया जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द ने पुनः सबको लौटाया। उन्होंने वेदों के हिन्दी भाषा में सरल व सत्य अर्थ करके वेदभाष्य ग्रन्थों की रचना की। सत्यार्थ प्रकाश उनकी अमर कृति है जिसे पढ़कर वेदों से परिचित हुआ जा सकता है। वेदों को पढ़कर, उन्हें जान व समझकर तथा उनकी शिक्षा के अनुसार आचरण कर सभी मनुष्य अनार्य व अनाड़ी की श्रेणी से ऊपर उठकर ब्रह्मज्ञानी व विद्वान की कोटि में पहुंच जाते हैं और उनका अज्ञान, निर्धनता, न्यूनता, पिछड़ापन आदि दूर हो जाता है। वह समाज के पूजनीय व आदर्श बन जाते हैं। किसी वेद ज्ञानी को आरक्षण जैसी किसी चीज की अपेक्षा नहीं रहती। वह अपने ज्ञान व आचरण से समाज का अनुकरणीय व्यक्ति बन जाता है। आईये, ईश्वरीय ज्ञान वेद के नियमित अध्ययन व स्वाध्याय का व्रत लें जिससे प्राचीनतम वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित रहने के साथ पृथिवी पर मानवता भी सुरक्षित रह सकें।

-मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “वेदाध्ययन में स्त्रियों व दलितों सहित सभी का समान अधिकार

  • रमेश कुमार सिंह

    मैं भी पढा बहुत अच्छा।

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद माननीय श्री रमेश जी।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , आप का लेख बहुत अच्छा लगा . आप का कहना ठीक ही है कि यह शूद्रों पर अतियाचार वेदों में लिखे शालोकों के गलत अर्थ करके ही हुआ होगा वर्ना धर्म कोई भी यह नहीं कहता कि यह बुरे लोग हैं वोह अछे हैं . छोटी सी बात करूँगा , मैं सिख धर्म में पैदा हुआ हूँ , चाहे मैं ज़िआदा धार्मिक भी नहीं हूँ लेकिन इतनी बुधि तो मुझ में होनी ही चाहिए कि सिखों के धार्मिक ग्रन्थ में सभी भगतों की बाणी है, एक तरफ बाबा फरीद और कबीर तो दुसरी तरफ नामदेव पीपा बैनी और सूर दास बैठे हैं , ३६ भगतों की बाणी दर्ज है जो भारत के इलग्ग इलग्ग हिस्से के रहने वाले थे . इन सब की बाणी को दर्ज करने का एक ही मकसद था कि सभी लोग बराबर हैं , इस के इलावा इस्त्री को इतना बड़ा दर्जा दिया कि वोह भी ग्रंथि बन सकती है . गुरु नानक देव जी ने तो यहाँ तक कह दिया था यह देख कर कि इस्त्री की हालत इतनी बुरी थी कि सो कियों मंदा आखिए जित जमे राजान . लेकिन दुःख की बात यह है सिखों में भी जात पात का कोहड है . उंच नींच अभी भी है . इस का मतलब यह हुआ कि ग्रन्थ डिस्क्रिमिनेशन नहीं सिखाते बल्कि इस के गलत परोहत वर्ग ही जिमेदार हैं .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद। मुझे लगता है कि धर्म का अभिप्राय कुछ भी हो परन्तु किसी भी मत को मानने वाले अपने ही धर्म को सबसे अच्छा मानते हैं तथा दूसरे मत का अध्ययन करने का प्रयत्न नहीं करते व दूसरों की अच्छी बातो को स्वीकार नहीं करते। मेरा यह भी मानना है कि अपवाद को छोड़कर सभी मतों व धर्मों में बहुत सी अच्छी बातें हैं वा कुछ बाते विवादास्पद हैं। विवादस्पद बातों पर मतों के विद्वानों को विचार करना चाहिए परन्तु वह नहीं करते। सिख धर्म ने इतिहास में वैदिक धर्म की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शायद यह सत्य हो कि सिख धर्म का प्रादुर्भाव ही वैदिक धर्म की रक्षा के लिए हूवा था। वेदो में भी ऐसे मंत्र है जिनमे कहा गया है की सभी मनुष्यों में न कोई छोटा है न कोई बड़ा अर्थात सभी समान है। वेदो के आधार पर ही महर्षि दयानंद जी ने नियम बनाया कि सभी मनुष्यों को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। यह समानता के साथ दलित वा पिछडो की उन्नति करने का सन्देश देता है। मैं आपसे सहमत हूँ कि सभी मतों में उसके पुरोहित वर्ग ने अपने स्वार्थों वा अज्ञानता के कारण असमानता उत्पन्न की है। लेख पढ़ने, पसंद करने और प्रतिक्रिया देने के लिए हार्दिक धन्यवाद।

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