कविता

अमलतास के झूमर

 

धरती तपती लोहे जैसी

गरम थपेड़े लू भी मारे ।

अमलतास तुम किसके बल पर

खिल- खिल करते बाँह पसारे ।

पीले फूलों के गजरे तुम

भरी दुपहरी में लटकाए ।

चुप हैं राहें, सन्नाटा है 

फिर भी तुम हो आस लगाए ।

कठिन तपस्या करके तुमने

यह रंग धूप से पाया है ।

इन गजरों को उसी धूप से

कहकर तुमने रँगवाया है ।

इनके बदले में पत्ते भी

तुमने सबके सब दान किये

किसके स्वागत में आतुर हो

तुम मिलने का अरमान लिये ? 

तुझे देखकर तो लगता है

जो जितना तप जाता है ।

इन सोने के झूमर –जैसी

खरी चमक वही पाता है ।

जीवन की कठिन दुपहरी में

तुझसे सब मुस्काना सीखें ।

घूँट –घूँट पी रंग धूप का

सब कुन्दन बन जाना सीखें ।

— रामेश्वर  काम्बोज ‘हिमांशु’

One thought on “अमलतास के झूमर

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता !

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