सामाजिक

धर्म के नाम पर

काफी दिनों से पढ़-पढ़ कर पक गया हूँ… आखिर अब फूटने का वक़्त आ गया है…

प्रश्न-धर्म आखिर है क्या?

संभावित उत्तर
‘अद्वैत लाइफ एजुकेशन’ के प्रमुख प्रशांत त्रिपाठी जी के अनुसार धर्म समझ है…बिलकुल सटीक और सीधी बात है ये|
धर्म हमे खुद को समझने के लिए प्रेरित करता है, धर्म को जीवन दर्शन कहे तो कुछ हद तक सही है क्यूंकि धर्म लोगो में समझ पैदा करने के लिये है| धर्म सत्य है|

प्रश्न– अगर धर्म समझ है तो फिर अलग अलग क्यूँ? हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी आदि क्यूँ? एक क्यूँ नही?

संभावित उत्तर
इसका जवाब साफ़ है…अगर इन्सान अपने विवेक से समझे तो साफ-साफ़ समझ आएगा| उदहारण के तौर पर जीवन को इंग्लिश में ‘लाइफ’, उर्दू में ‘ज़िन्दगी’ कहते है

इसका मतलब ये तो नहीं कि जीवन का अर्थ बदल जायेगा! ठीक उसी प्रकार सभी धर्म में एक ही बात कही गयी है, बस कहने का जरिया और तरीका अलग-अलग है| भारत में २००० भाषाएँ बोली जाती है, किन्तु वे लोग जो इन्हें बोलते है मिलकर भारतीय ही कहलाते है| हिन्दू,मुस्लिम,सिख,इसाई,यहूदी आदि भगवान,अल्लाह, वाहेगुरु(चाहे जो कह ले,है एक ही) तक पहुँचने का जरिया है…और कुछ नही…|

प्रश्न-ये तो बाते तो सब किसी न किसी रूप में जानते है फिर लड़ाई क्यूँ?

संभावित उत्तर
जानना और समझना दोनों अलग बाते है| ऐसे लोग उसी तरह होते है जैसे कस्तूरी हिरन| इंसानियत दिल में छुपी होती है पर समाज उसपर हावी हो जाता है क्यूंकि ऐसे लोग खुद को भूल जाते है और किसी और के होकर रह जाते है.|

प्रश्न-मैं कैसे मान लूं? इस्लाम में हिजाब के लिए सख्त कानून है और हिन्दू धर्म में नही?

संभावित उत्तर
मानने को तो हम कुछ नही मानते! जो चीज़ हमे अच्छी लगी उसे ले लिया,बाकी को त्याग दिया…यही तो फितरत बन गयी है हमारी| जो कहा गया है उसे हम अपने अनुसार समझते है और फिर तर्क-कुतर्क, लड़ाई-दंगे का सिलसिला चलता रहता है| क्या हिन्दू धर्म के पुण्य पुस्तक ‘रामायण’ की वो बात याद नही आती जिसमे नारी को शर्म,दया,सहानुभूति का प्रतीक माना गया है? क्या कभी घूंघट ओढ़े बहु नहीं देखी? क्या वो हिन्दू नहीं? फिर अब ये बताओ कि हिजाब और घूंघट में अंतर कैसा? कुतर्क तो बहुत है पर तर्क नहीं क्यूंकि हम सिर्फ विरोध उन्मुख है, सहमति से तो हमारा नाता जाने कब का टूट चूका है!

इस्लाम और हिन्दू आदि धर्मो में अपनी नियत साफ़ रखने के लिए कहा गया है, इन्सान बनने के लिए कहा गया है….कभी झूठ न बोलने के लिए कहा गया है, हिंसा न करने के लिए कहा गया है….अब धर्मान्धो से ये पूछो की इन सब बातो का कितना पालन करते है? ०%,१%,२%…इससे ज्यादा नहीं…तब पूछो कि वो कैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, यहूदी आदि हुए?

— ठाकुर दीपक सिंह कवि

ठाकुर दीपक सिंह कवि

प्रधान संपादक लिटरेचर इन इंडिया जालपत्रिका

2 thoughts on “धर्म के नाम पर

  • विजय कुमार सिंघल

    आपकी बात विचारणीय है !

  • मनमोहन कुमार आर्य

    लेखक महोदय का लेख पढ़ा। अनुरोध है कि धर्म और मत-संप्रदाय-मजहब-रिलीजन आदि के अंतर को समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश पढ़े, सभी बातें स्पष्ट हो जाएंगी। धर्म वस्तुतः सत्य के आचरण को कहते हैं। अन्धविश्वास, अज्ञान, पाखण्ड व कुरीतियां धर्म का अंग या भाग नहीं हैं। सभी मत वा संप्रदाय इन बुराइयों से ग्रस्त वा युक्त हैं। यदि आप अपना ईमेल भेज सकें तो सत्यार्थ प्रकाश की पीडीएफ प्रति भेज सकता हूँ। आपका लेख जिज्ञासाओं से पूर्ण है, समाधान आपको सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से प्राप्त हो सकेंगें। मेरा ईमेल : manmohanarya@gmail.com

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