सामाजिक

समतामूलक समाज के पक्षधर थे तुलसीदास

साहित्य और पत्रकारिता के पुरोधा भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी जी ने तुलसी जी के विषय में  लिखा है-“तुलसी जी  उन कवियों में  से रहे हैं जिन्होंने १६वीं शताब्दी में संयुक्‍त भारतवर्ष का स्वप्न देखा,जो कि भारतीय संस्कृति के प्राचीन साहित्य में  विद्यमान था। इसलिए उन्होंने अपना चरितनायक भी ऐसा चुना,जिसने देश निकाला लेकर ,राज्य का मोह छोडकर न केवल पदयात्रा की बल्कि गरीबी की जिन्दगी व्यतीत करते हुए समस्त भारतवर्षको अपने स्नेह से सबका मन जीतकर एक सूत्र में  पिरोया,ऊंच-नीच के भेद को मिटाया।निषाद को भ्रातृसम माना और ग्राम्य एवं वन जीवन व्यतीत करने वाले लोगो के प्रति स्वयं को समर्पित करके संयुक्त भारत की स्थापना की।
सिया राममय सब जग जानी।
करहूं प्रणाम जोरि जुग पानी।।
सम्पूर्ण जगत को राममय करने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म राजापुर ग्राम में श्रावण शुक्ला सप्तमी को हुआ ।पिता का नाम आत्माराम दूबे व माता का नामहुलसी था। किसी कवि ने भी कहा है,

हुलसी, हुलसी तुलसी पाकर
स्वर्ग देवियाँ ललचाई ।
जल पड़े दीप,खिल पड़े पुष्प
वसुधा हर्षित हो मुसकाई।

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार जन्म से ही इनके ३२ दांत तथा डील -डोल भी अन्य बच्चों की अपेक्षा बड़ा था ।जिस  कारण इन्हें अशुभ मानकर इनका  त्याग कर दिया।चुनिया नाम की दासी द्वारा  इनका पालन पोषण किया  गया किंवदन्ती है कि जन्म लेते ही  रोने के स्थान पर इनके मुख से राम शब्द निकला।इनके गुरु नरहरि आनन्द जी ने इस लिए इनका नाम “रामबोला ” रखा।बचपन से इनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि ये एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे उन्हें कंठस्थ हो जाता था।गुरु  नरहरिदास  ने इन्हें अपने साथ अयोध्या रखा।वहीं पर वेद वेदांगों का अध्ययन किया।तत्पश्चात ही ये अपनी जन्म भूमि लौटे।
सम्वत् १५८३ ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को इनका विवाह सुन्दर सुशील, विदुषी कन्या रत्नावली से सम्पन्न हुआ।बचपन में माता- पिता का स्नेह ना मिलने के कारण ये रत्नावली से बहुत स्नेह करते थे।रत्नावली बहुत विदुषी थी,वह जानती थी कि तुलसी जी सामान्य व्यक्ति नहीं है।अपनी ओर अति आसक्ति देख आखिर एक बार उन्होंने कह ही दिया ,जितनी आसक्ति तुम्हारी मुझमें है,यदि उतनी आसक्ति आप भगवान में रखते  तो आपका कल्याण ही हो जाता।रत्नावली के कहे शब्द हृदय को छू गये और तत्क्षण गृह त्याग कर तीर्थाटन करते हुए वे काशी पहुंच गये।

सम्वत् १६०७ की मौनी अमावस्या को उन्हें भगवान राम के बालक के रूप में दर्शन हुए और हनुमान जी ने तोते के रूप में उन्हें यह दोहा कहकर अवगत करवाया –
चित्रकूट के घाट पर, भई सन्तन की भीर  ।
तुलसीदास चन्दन घिसें,,तिलक देत रघुवीर।।

आदर्श और यथार्थ के सेतु गोस्वामी जी मानवीय चेतना के कवि थे।तुलसी के राम उपदेश न देकर व्यवहार को ही  महत्ता देते हैं ।निषादराज,शबरी,गुह, अंगद और जामवंत आदि कोई भीउच्च कुल से सम्बन्ध नहीं रखते थे,फिर भी तुलसी के राम ने लोक व्यवहार में उन्हें इतना ऊंचा उठा दिया कि उनका महत्व राजाओं और ऋषियों से भी अधिक बढ़ गया॥
उस समय संस्कृत भाषा जन साधारण की भाषा न होकर संस्कृतज्ञ विद्वानों तक ही सीमित थी। इसलिए तुलसी ने लोक भाषा में  रामचरितमानस लिखकर भाषा के क्षेत्र में एक नई क्रांति ला दी ।पण्डितों के उपहास की परवाह ना करते हुए स्पष्ट लिखा है-
भाषा भनिति भोरि मति मोरि
हंसिबे जोग हंसे नहिं खोरि॥

गोस्वामी जी ने अनेक ग्रन्थों की रचना की,लेकिन उनके दो ग्रन्थ जो विश्व में  भी मान्य एवं पूज्य हैं।’राम चरित मानस’ और ‘विनय पत्रिका।’ जहाँ मानस में श्री राम के चरित का विस्तृत वर्णन है,वहीं विनय पत्रिका में स्वयं के आत्मचरित्र व आत्मकथा का वर्णन है।
मानस में हमें बुद्धि और हृदय का अद्भुत सामंजस्य मिलता है जबकि पत्रिका में हृदय तत्त्व की प्रधानता हैं ।इसमें तुलसी ने अपनी भावनाओं को ज्यों का त्यों व्यक्त किया है।
जिस तरह समुन्द्र में लहरें उठती हैं  तो दिखाई देती हैं, वैसे ही तुलसी ने अपने मन में उठी भाव तरंगों को प्रकट कर दिया।
तुलसी जी वास्तव में जनता जनार्दन के कवि थे।उन्होंने लोगों के मनोभावों की परख करके ही रचनाएँ रची ।तुलसी जीअकबर के शसनकाल में सम्मानित हो सकते थे,लेकिन नहीं हुए।वे जानते थे कि अकबर के आदर्शों से भारत की जनता का कल्याण नहीं हो सकता।उन्होंने शासन की चाटुकारिता पर व्यंग्य करते हुए स्पष्ट कहा है-
‘हम चाकर रघुवीर के,पटौ लिख्यो  दरबार।
तुलसी अब क्या होईंगे,नर के मनसबदार ॥’

कथनी और करनी में साम्यता न लाने वाले समाज के सभी वर्गों पर प्रहार किया।वे कहते हैं -‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’।तुलसी जी ने जन कवि के रूप में  जो देखा- भोगा उसी को उतारा।उनकी दृष्टि में श्रम ही समृद्धि तथा सफलता की कुंजी है। वे समता मूलक समाज स्थापना  के पक्षधर थे।तुलसी के राम का समाज समता वाला था।राम का लक्ष्य समाज के दबे,पिछड़े लोगो को उठाना था।तभी तो कुलीन तंत्र पर प्रहार करते हुए कहते हैं -“कहहु   कवन मैं  परम कुलीना ।”

तुलसी जी का पर्यावरण पर निर्देश भी आज अत्यन्त प्रासंगिक है॥शाश्वत वृक्षारोपण, वन उद्योगों की सुन्दरता,उनकी सुरक्षा परमावश्यक है।वे लिखते हैं –
सुमन वाटिका सबहिं लगाई,
विविध भांति कर जतन बनाई॥
लता ललित बहुजाति सुहाई,
फूलहिं फलहिं बसंत की नाई।
देश तथा समाज की सुख समृद्धि तभी संभव है  जब विदेशी घुस पैठिए तथा पनपते आतंकवाद कोसमूल नष्ट किया जाए।ताड़का,खरदूषण जैसे घुस पैठिए ऋषियों के तपस्थलों में प्रवेश कर गये थे।इसमें कोई सन्देह नही कि किसी भी देश की संस्कृति पराभूत हो जाए तो वह देश स्वयं गुलाम हो जाता है।अत: चौदह वर्षों के बनवास काल में राम ने सर्वप्रथम घुसपैठियों को नष्ट किया था,समाज को एकसूत्र में बांधा।

तुलसी जी की वर्ण व्यवस्था जातिगत संकीर्णता पर आश्रित नहीं थी।वह कर्म प्रधान थी॥पवित्रतात्मक शूद्र के प्रति  सभी ऋषि -मुनि यहाँ तक कि  भगवान राम को भी अटूट श्रद्धा थी।तब राम राज्य में चर -अचर  समय,कर्म ,स्वभाव व गुण से उत्पन्न दुख किसी को नहीं होते थे।तुलसी के राम राज्य में सभी जाति, धर्म,सभी वर्ग वेदमार्ग पर चलते थे।वे लिखते हैं –
‘ वर्णाश्रम निज-निज धरम निरत वेद पथलोग ।चलहिं सदा पावहिं सुखहिं न भय शोक न रोग।’
इस प्रकार तुलसी जी ने सामाजिक विषमता को दूर कर जितना सामाजिक न्याय प्रतिष्ठित किया आज उसकी  कल्पना भी नहीं की जा सकती।सामाजिक समरसता,राज्य सत्तामें दंड और भय से नही आ सकती,,यह तो पारस्परिक सौहार्द्रता और नैतिकता की उपज है।जैसा कि मानस में  भी दिखाया गया है।

मानस के पवित्र चार घाट-शिव, काकभुशुंडी, याग्वलक्य व तुलसी हैं। चार श्रोता -पार्वती, गरुड़,भारद्वाज व सुजन और ये चारों वक्ता एवं श्रोता है-देव,  पक्षी ,ऋषि व मनुष्य॥ यही चारों वर्ग के प्रतिनिधि हैं ।समन्वय की भावना का यही प्रथम रहस्य इस ग्रंथ में  समस्त विश्व को बांधने की क्षमता है।तुलसी का मानस ही एक ऐसा ग्रंथ है जो समस्त प्राणियों के समन्वय का संयोजन कर सकता है।पांच सो वर्ष पूर्व तुलसी जी ने आज के समाज की कल्पना करके ही लिखा होगा-
‘अनुज वधु, भगिनी ,सुत ,नारी
सुनु सठ कन्या सम ए चारि
इन्हहिं कुदृष्टि विलोकई जोई
ताहि वधे कछु पाप न होई॥’
तुलसीजी के कथनों में सागर जैसी गहराई है तो हिमालय जैसी ऊंचाई भी है।मूलत: वे एक महान भक्त थे ।जिनकी दृष्टि अपने आराध्य को ही सर्वत्र देखने की प्रेरणा देती है।

सुरेखा शर्मा (पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष /समीक्षक )

सुरेखा शर्मा

सुरेखा शर्मा(पूर्व हिन्दी/संस्कृत विभाग) एम.ए.बी.एड.(हिन्दी साहित्य) ६३९/१०-ए सेक्टर गुडगाँव-१२२००१. email. surekhasharma56@gmail.com

One thought on “समतामूलक समाज के पक्षधर थे तुलसीदास

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख ! गोस्वामी जी पर ब्राह्मणवाद का पोषक होने का आरोप लगाया जाता है। यह लेख इस आरोप को गलत सिद्ध कर देता है।

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