राजनीति

कहाँ गया गरीबों का पैसा

देश में एक तरफ जहां अरबपतियों, पूंजीपतियों की संख्या बढ़ रही है, वहीं अब तक बारह पंचवर्षीय योजनाओं में लाखों करोड़ रूपये खर्च करने के बावजूद ग्रामीण बेहद गरीबी में जीने को मजबूर हैं। देश के तमाम राजनीतिक दल जिन गाॅवों, गरीबों, किसानों और मजदूरों को लेकर शोर-शराबा मचाते हैं वे उनकी दशा सुधारने में असफल रहे हैं। सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना 2011 की ताजा सरकारी रिपोर्ट इसी बात की पुष्टि करती है। इसके अनुसार गांवों में हर तीसरा परिवार भूमिहीन है और आजीविका के लिए मजदूरी पर निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 17.9 परिवारों में से 75 फीसदी परिवारों का अधिकतम वेतन 5 हजार रूपये से कम है वहीं 40 फीसदी परिवार भूमिहीन हैं और मजदूरी करते हैं। जाहिर है कि गांव बदहाल हैं। लेकिन उसके सुधार के लिए योजना बनाने वाले कर्ता-धर्ता और तमाम मंत्री, सांसद और विधायक मालामाल हो गये। गांवों की इस बदहाली की जिम्मेदारी उन सभी दलों को लेनी होगी जो कभी न कभी केन्द्र अथवा राज्यों में सत्ता में रहे हैं और किसानों और गांवों का हितैषी बनने का दावा करते रहे हैं। आजादी के 68 वर्षो बाद भी देश की इतनी बड़ी आबादी किसी तरह गुजर-बसर कर रही है। इनकी दशा को सुधारे बिना देश तरक्की कैसे कर सकता है?

क्या यह हमारे राजनेताओं के लिए लज्जा की बात नहीं है कि शासन-सत्ता में आते ही उनकी सम्पत्ति दिन दूनी रात चैगुनी की रफ्तार से बढ़ने लगती है और देश के करोड़ों घरों में दोनों वक्त चूल्हा नहीं जलता है और लोग भूखे सो जाते हैं। देश की लगभग 37 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे बदहाली में गुजर बसर कर रही है। मल्टी डाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स की रिपोर्ट के अनुसार भी देश के आठ राज्यों – बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में गरीबों की संख्या 42 करोड़ है जो अफ्रीका के 26 निर्धनतम देशों की संख्या से भी अधिक है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी के शिकार 84 देशों की सूची में भारत का 67वाॅ स्थान है। बेरोजगारी की दर 10.7 फीसदी है और यदि यही हाल रहा तो यह 2020 तक 30 फीसदी तक पहुॅच जायेगी। उधर हर साल लगभग नौ लाख लोगों की मौत दूषित जल और प्रदूषण से हो जाती है। निरक्षरता, बालश्रम और आर्थिक विषमता के मामले में भी हमारी स्थिति बहुत खराब है। विश्व की 90 फीसदी गंदी बस्तिया विकासशील देशों में हैं जिनमें से 37 फीसदी बस्तियां सिर्फ भारत और चीन में है। ये आंकड़े हमारे राजनेताओं के राज चलाने की क्षमता पर सीधा सवाल खड़ा करते हैं।

एक राष्ट्र के रूप में हमने अपने विकास के लिए संसदीय लोकतंत्र की पद्धति अपनायी हैै। भारतीय संविधान परिषद ने जनता के नाम पर संकल्प लिया है कि भारत एक प्रभुता सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बने। उसके नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता प्राप्त हो तथा उनके बीच व्यक्ति की प्रतिष्ठा एवं राष्ट्र की एकता व अखण्डता को सुनिश्चित करते हुए बन्धुता बढ़ाने की भावना का प्रचार किया जाए। ये लक्ष्य और उद्देश्य लोकतंत्र का एक प्रेरक एवं चुनौतीपूर्ण चित्र प्रस्तुत करते हैं। लेकिन आजादी के छह दशक के बाद भी केन्द्र एवं राज्य सरकारों के मंत्री अपनी जनता के लिए पानी, बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर सके। नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के बजाय खुद भ्रष्टाचार में भागीदार बन गये। संासद और विधायक निधि में भ्रष्टाचार ने संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को पतन की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। इस तरह से जिन लोक प्रतिनिधियों को नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी थी वे अपने दायित्व को निभाने में असफल साबित हो रहे हैं। अंग्रेजों के समय जिस ढंग से जिस प्रकार शासन चल रहा था आज उससे भी बदतर स्थिति है। छोटा से छोटा राजकर्मचारी भी जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं है। उल्टे वह उन पर धौंस जमाता है और पहले की तरह उनसे रिश्वत वसूलता है।

कुल मिलाकर हमारा संसदीय लोकतंत्र सत्तारूढ़ दलों के नेताओं के निहित स्वार्थ पर टिका है। लोक कल्याणकारी राज्य की भावना कहीं दिखाई नहीं देती है। यही कारण है कि हमारी राज्य व्यवस्था लोगों के लिए रोजी रोजगार का प्रबन्ध करने में असफल साबित हो रही है। आम आदमी का जब भी किसी सरकारी विभाग से पाला पड़ता है तो उसकी जेब खाली हो जाती है। हालत यहां तक पहुॅच गयी है कि सुप्रीम कोर्ट को भी एक मामले में सरकारी तंत्र में बढ़ते भ्रष्टाचार पर चिंता प्रकट करते हुए कहना पड़ा कि – ‘कुछ भी बिना पैसे के नहीं होता’ यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है।’ मंत्री से लेकर संतरी तक और राज्य का छोटे से लेकर बड़े से बड़ा अधिकारी देखते ही देखते मालामाल हो जाए और हमारी राज्य व्यवस्था को यह दिखाई नहीं दे तो इसे क्या कहा जायेगा। हमारे कई वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्री और मंत्री, नौकरशाह सी.बी.आई. जांच के दायरे में है। लेकिन हमारी व्यवस्था में किसी भी मामले में किसी बड़े नेता और नौकरशाह को सजा नहीं मिलती है। अब यदि कानून को बड़े बड़े नेताओं और अफसरशाहों की आलीशान कोठियां, शापिंग काम्पलेक्स, कृषि फार्म, महंगी विदेशी गाड़ियां और तमाम नामी और बेनामी सम्पत्तियां दिखाई नहीं देती हैं तो इसकी क्या व्याख्या की जा सकती है।

जरूरत इस बात की है कि केन्द्र और राज्य सरकारें संविधान के निर्देशित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ठोस संकल्प के साथ कदम उठायें। देश और संसदीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए उन्हें यह करना ही पड़ेगा। यह संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की इस दशा को समझा है और वे उसे सुधारने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं। तकनीक के क्षेत्र में उनकी योजनाएं ऐसी हैं यदि उन्हें ठीक से लागू किया तो गांव और शहर की तस्वीर बदल सकती है।

निरंकार सिंह

लेखक हिन्दी विश्वकोष के सहायक संपादक रह चुके हैं। आज कल स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य कर रहे हैं। ए-13, विधायक निवास 6 पार्क रोड कालोनी, लखनऊ-226001 मो. 09451910615

One thought on “कहाँ गया गरीबों का पैसा

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख। ग़रीबों की दशा सुधारने का दम सभी सरकारें भरती हैं पर ठोस कार्य करने वाली सरकारें दुर्लभ हैं।

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