धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सत्संग स्वर्ग और कुसंग नरक

ओ३म्

किसी भी विषय के प्रायः दो पहलु होते हैं, एक सत्य व दूसरा असत्य। सत्य व असत्य का प्रयोग ईश्वर व जीवात्मा से लेकर सृष्टि के सभी पदार्थों व व्यवहारों आदि में सर्वत्र किया जाता है। ईश्वर  निराकार है, यह सत्य है और निराकार नहीं है अथवा साकार है, यह असत्य है। निराकार अर्थात् आकार रहित होने से उसका चित्र व मूर्ति नहीं बन सकती। जिस प्रकार आकाश व वायु की मूर्ति व चित्र नहीं बनाये जाते उसी प्रकार निराकार होने से ईश्वर का चित्र व मूर्ति भी न हीं बन सकती अर्थात् ऐसा होना असम्भव है। यदि कोई मूर्तिकार व तथाकथित विद्वान किसी मूर्ति को बनाकर कहे कि यह ईश्वर की मूर्ति है तो वह असत्य होगा। बुद्धिमान व ज्ञानी लोग इस बात को समझते हैं परन्तु अज्ञानी व भोले लोग इसको न समझकर अन्धपरम्पराओं जो विगत दो या ढाई हजार पहले आरम्भ हुईं, उसी को परम्परा मानकर उसका अनुगमन करते हैं। सत्य को जानना व उसे जीवन में धारण करना ही सत्संग है। असत्य के लिए कुछ पुरुषार्थ व तप करने की आवश्यकता नहीं होती। असत्य अज्ञान की वह अवस्था होती है जिसके लिए मनुष्य को कुछ करना ही नहीं होता। सत्य के लिए अवश्य ही अध्ययन, विद्वानों के उपदेश, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना होता है। किसी को गुरु बनाते समय यह देखना होता है कि वह वस्तुतः सच्चा ज्ञानी, निर्लोभी व सदाचारी है वा नहीं। आजकल अज्ञानी और छल व कपट से युक्त स्वार्थी व्यक्ति भी स्वयं को गुरु बनाये हुए हैं और अपने छल व कपट से अपने अनुयायियों के जीवन का शोषण कर खिलवाड़ करते हैं। अतः किसी एक व्यक्ति को गुरु कभी नहीं बनाना चाहिये परन्तु गुरु बदलते रहें और जहां जिससे जितना ज्ञान मिले उसे प्राप्त करते रहना चाहिये, यही उचित प्रतीत होता है। संसार में गुरू स्थानीय सत्ता के रूप में परमात्मा सर्वोपरि है और उसके बाद स्वाध्याय के लिए परम प्रमाणित वेद व उनके महर्षि दयानन्द व आर्यविद्वानों कृत वेदभाष्य व सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ हैं। इनके द्वारा कोई भी साधारण अक्षरज्ञानी व भाषाज्ञानी व्यक्ति ईश्वर, जीवात्मा व संसार के विषय में सत्य ज्ञान से परिचित हो सकता है।

आर्य समाज में आचार्य भद्रसेन जी के नाम से एक सच्चे ब्राह्मण, पण्डित व विद्वान हुए हैं। आपने अपने जीवन में स्वामी सर्वदानन्द जी की सहायता व पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी के आचार्यात्व में संस्कृत व वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया। आप योग के भी आचार्य थे और इसके साथ आर्ष विधि से पुरोहित के रूप में गृहस्थियों के सोलह संस्कार कराते थे। आपके एक योग्यतम पुत्र कैप्टेन देवरत्न आर्य हुए हैं जो आर्यजगत् में अत्यन्त यशस्वी व सम्मानित रहे हैं और जिन्होंने अपने जीवन में आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय योगदान किया। वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधी सभा के प्रधान भी रहे। आचार्य भद्रसेन जी ने स्वाध्याय के लिए एक प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘प्रभु भक्त दयानन्द तथा उनके आध्यात्मिक उपदेश” लिखी थी। इसका एक अध्याय सत्संग-कुसंग पर है। इसी के आधार पर हम सत्संग व कुसंग विषयक कुछ प्रसंग व उपदेश पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। योग एवं स्वास्थ्य’ नाम से योग पर भी आचार्य भद्रसेन जी काएक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा अन्य कुछ और ग्रन्थ भी हैं।

आचार्य भद्रसेन जी लिखते हैं कि गृहस्थियों को चाहिये कि वह सत्कारपूर्वक दूरस्थ उत्तम विद्वान अतिथि महानुभावों को सुविधाजनक वाहनों, रथ आदि सवारियों पर बैठा कर उपदेश के लिए अपने निवासों पर लावें और अन्नादि वा स्वादिष्ट भोजन आदि से उनका स्वागत सत्कार करें।                                                                    (आधार ऋग्वेद भाष्य 5/1/1)

जैसे बादल स्वयं छिन्न-भिन्न होकर भी दूसरों का सदा उपकार ही करते हैं। उसी प्रकार से सच्चे विद्वान् दूसरों के अपकार करने से छिन्न-भिन्न होकर भी उनका सदा उपकार ही करते हैं।

जो लोग उस परमात्मा और आप्त विद्वानजनों को छोड़कर दुष्ट मनुष्यों की संग करते हैं, वे हमेशा दुःखी ही रहते हैं।                                                                                                                                           (आधार ऋग्वेद भाष्य 6/29/8)

जो जन अपवित्र आहार-विहार करनेवाले, विषय-लम्पट, दूसरों की चुगली करनेवाले, और असत्पुरुषों का संग करनेवाले हैं, उनको कभी भी विद्या प्राप्त नहीं होती और जो पवित्र आहार-विहार वाले, जितेन्द्रिय, यथार्थ-वक्ता, सत्पुरुषों का संग करनेवाले और पुरुषार्थ-परायण हैं, उनको सब प्रकार की विद्या प्राप्त होती है। ऐसा अवश्य निश्चय जानों।                                                                                                                                                   (आधार ऋग्वेद भाष्य 6/28/41)

कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वासघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी कपटी, छली आदि दुष्ट मनुष्यों का संग न करे। और जो सत्यवादी, परोपकार-प्रिय आप्त जन हैं, उनका सदा संग करें।                                                       (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 10)

परमेश्वर और परमेश्वर के तुल्य धार्मिक विद्वानों के बिना कोई सब पदार्थों और सब प्रकार के सुखों का देनेवाला और कोई नहीं है।                                                                                                                                     (आधार ऋग्वेद भाष्य 5/20/2)

गृहस्थ स्त्री-पुरुष कार्यकर्त्ता सद्धर्मी, लोकप्रिय, परोपकारी सज्जन, विद्वान् व त्यागी पक्षपातरहित संन्यासी जो सदा विद्या की वृद्धि और सब के कल्याणार्थ वर्तनेवाले हों, उनका नमस्कार, आसन, अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, धन आदि के दान से उत्तम प्रकार से यथासामथ्र्य अवश्य सत्कार करें।               (सत्यार्थ प्रकाश)

विद्वानों के संग और सेवा से क्या-क्या प्राप्त होता है इसका उल्लेख महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद भाष्य के 6/2/2 मन्त्र में किया है। वह लिखते हैं जो मनुष्य विद्वानों की सेवा से शुभ गुण, कर्म, स्वभावों को प्रापत करते हैं, वे वृद्धजनों को (अपनी सेवा द्वारा) सुख पहुंचानेवाले दीघार्यु और सुन्दर गृहस्थवाले बनकर शरीर और आत्मा से सदा बलवान् और पुष्ट हो जाते हैं। (ये मनुष्या विद्वत्सेवया शुभ, गुण, कर्म, स्वभावान् प्राप्नुवन्ति ते वृद्धरक्षा चिरंजीविनः सुन्दर गृहाश्च भूत्वा शरीरात्मभ्यां पुष्टा जायन्ते।)

ऋग्वेद मंत्र भाष्य 7/15/2 में कहा गया है कि संन्यासी महात्मा हमेशा सर्वत्र भ्रमण करता रहे। और गृहस्थ इन्हें (अपने गृह पर बुलाकर) इनका सदैव सत्कार करे। और इनके सदुपदेशों का ग्रहण करें।

सत्यप्रिय मनुष्यों को सदैव (वेद के) विद्वानों का सत्कार करना चाहिये। जो सत्य, विद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले, सकल वेदों के ज्ञाता, विद्वान, अध्यापक और उपदेशक जगत् में मनुष्यादिकों को अपने सदुपदेशों द्वारा सब प्रकार से उन्नत करते हैं, वे ही सब प्रकार से सब को सत्कार करने योग्य हैं। यजुर्वेद मन्त्र 3/42 में विद्वानों से प्रीति तथा उनका संग करने की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि गृहस्थों को सब धािर्मक अतिथि लोगों के वा अतिथि लोगों को गृहस्थों के साथ अत्यन्त प्रीति रखनी चाहिए, किन्तु दुष्टों के साथ नहीं। तथा अतिथि विद्यानों के संग से परस्पर वार्तालाप कर विद्या की उन्नति करनी चाहिए। और जो परोपकार करनेवाले विद्वान, अतिथि लोग हैं, उनकी सेवा गृहस्थों को निरन्तर करनी चाहिए।

हमें एक प्रेरणादायक घटना स्मरण हो आयी। आर्यसमाज के एक प्रसिद्ध संन्यासी, महात्मा व अनेक गुरुकुलों के संचालक पिछले दिनों देहरादून आये हुए थे। उन्हें पता चला कि एक आर्यविद्वान की धर्मपत्नी किसी अस्पताल में उपचारार्थ भर्ती हैं। उनके शिष्य अस्पताल पहुंचं और रोग की स्थिति आदि का पता किया और कहा कि धन की चिन्ता न करें। कुछ सहस्र रूपये भी हमारी उपस्थिति में उन्होंने प्रदान किये। कुछ कारणों से अस्पताल में उचित चिकित्सा न होने के कारण एक अन्य प्राइवेट नर्सिंग होम में ले जाकर उनका आपरेशन कराया गया। वहां अगले दिन स्वामीजी पहुंचे और उनका हाल पूछकर उन्हें चिकित्सा सहायतार्थ बिना मांगे ही कुछ सहस्र रूपये देवीजी के हाथ में साशीर्वाद प्रदान किये। इससे पूर्व भी लगभग 15 वर्ष पूर्व एक बार उन्होंने कैन्सर से पीडि़त हमारे आर्य विद्वान एक मित्र के परिवार को दिल्ली के पंत चिकित्सालय में पहुंचकर एक लाख रूपयों की धनराशि प्रदान करते हुए उनकी धर्म पत्नी को उनकी चिकित्सा किसी अच्छे चिकित्सक वा चिकित्सालय में कराने को कहा था और आश्वासन दिया था कि उनसे जो हो सकेगा, वह और सहायता करेंगे। हमने इन आर्य विद्वान संन्यासी में वेद वर्णित सभी गुण प्रत्यक्ष देखें और अनुभव किये हैं। वस्तुतः ऐसे विद्वान महात्मा और संन्यासी ही सत्संग, सेवा व सत्कार के पात्र होते हैं। हमारा सौभाग्य है हमें इन स्वामीजी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

यह भी निवेदन है आजकल देशभर में कुछ कथावाचक आदि बड़ी बड़ी जनसभायें करते हैं। इनमें सत्य के साथ बड़ी मात्रा में असत्य भी परोसा जाता है जिससे समाज में अन्धविश्वास बढ़ रहे हैं। हम इन्हें सत्संग नहीं मानते और वस्तुतः यह सत्संग हैं भी नहीं। जो विचार वेदों से प्रमाणित हैं, वही सत्संग की कोटि में आते हैं अन्यथा वह कुसंग ही होते हैं। इन जनसभाओं के विपरीत आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं गुरूकुल आदि के अधिवेशनों व समारोहों में होने वाले धार्मिक प्रवचनों को सत्संग कहा जा सकता है क्योंकि यहां सभी बातें वेद पर आधारित वा वेदों से पुष्ट कही जाती हैं। हम आशा करते हैं कि सत्संग विषय में जो संक्षिप्त विचार व कथन लेख में प्रस्तुत किये हैं, उनसे पाठकों को लाभ मिलेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

 

4 thoughts on “सत्संग स्वर्ग और कुसंग नरक

  • विजय कुमार सिंघल

    मान्यवर, नमस्ते. मैं इस लेख से पूरी तरह सहमत हूँ. तुलसीदास जी ने सत्संग की बहुत महिमा गायी है। परंतु आजकल सत्संग के नाम पर जो होता है वह बहुत भयावह है। इनसे अंधविश्वास फैलता है।

    • Man Mohan Kumar Arya

      सारगर्भित एवं सार्थक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। आजकल की शिक्षा व्यवश्था में शास्त्रों का अनिवार्य अध्ययन न कराय जाने से अन्धविश्वास बढ़ रहा है। जब तक देश में गुरुकुलीय व्यवस्था थी, जिसमे शास्त्रों का अध्ययन अनिवार्य था और अंधविश्वासों का खंडन किया जाता था, तब अन्धविश्वास नहीं होते थे। आज देश में एक सामाजिक एवं शैक्षिक क्रांति की आवश्यकता अनुभव होती है। इसका आधार सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग होना चाहिए। धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा . पहले भी मैं बहुत दफा लिख चुक्का हूँ कि यह अंधविश्वास लोगों को बहुत गलत दिशा की ओर ले जा रहा है .इस का कारण शाएद यह हो कि गृहस्थ जीवन में समसिया तो आती ही है और लोग धर्म गुरुओं की ओर भागे जातें हैं जो उन को बहुत गलत दिशा की ओर धकेल देते हैं . यकीन मानों हमारे घर में अंधविश्वास है ही नहीं ,बल्कि मैं तो ऐसा हूँ कि कभी भी किसी धर्म गुरु को एक पैसा नहीं दिया ,हाँ कुछ चैरिटी के लिए काम किया करता था जिस के पैसे उन लोगों को जाते थे जिन को सही जरुरत होती थी और मेरी मिसज़ अब भी कभी कभी पिंगल वाडा अमृतसर को पैसे भेजती है जिस में मैंने खुद जा कर देखा था और मेरे मामा जो एस डी ओ थे वहां लूले लंगड़े अपाहज लोगों की मदद किया करते थे . यह ठीक है कि हम सिख धर्म में पैदा हुए हैं लेकिन कर्म काण्ड से हम कोसों दूर हैं .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद। आपके सभी विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ। मुझे लगता है कि जब तक स्कूलों में अनिवार्य रूप से प्राचीन वेद आदि शास्त्रों की सत्य बातों व मान्यताओं को अनिवार्य रूप से सब मत मतान्तरों को मानने वाले बच्चों को नहीं पढ़ाया जायेगा तब तक अन्धविश्वास इसी तरह से बढ़ते रहेंगे और देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बढ़ता रहेगा। अखंड एवं शक्तिशाली व गौरवशैली देश के लिए एक मन व एक विचार वाला होना आवश्यक है। यह मेरे निजी विचार है, जिसे कोई माने या न माने यह उनकी अपनी इच्छा व प्रकृति पर निर्भर है। आप अंधविश्वासों को नहीं मानते यह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। आप चैरिटी के लिए दान देते हैं यह भी अति प्रशंसनीय है। समाज के निर्बल वर्गों की यथासंभव सेवा व सहायता हमारा कर्तव्य और धर्म है। मैं इसके लिए आपको साधुवाद देता हूँ। निश्चित ही आप साधु प्रकृति के होने से साक्षात साधु ही हैं। मैं स्वयं भी इन बातो में आपकी ही तरह हूँ। शास्त्रों के अनुसार वेद विद्या के प्रचार व प्रसार में दिया जाने वाला दान सबसे अधिक महत्वपूर्ण वा महिमाशाली होता है क्योंकि इससे अज्ञान का अज्ञान और अन्धविश्वास मिटते है। यह भी मैं यथा संभव करता हूँ। आपका आभार एवं धन्यवाद।

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