लेखसामाजिक

प्रगति का आधार ‘नारी‘

भारत एक प्रगतिशील राष्ट्र है। प्रगतिशील राष्ट्र है तो यहाँ बाधाएँ, ऊँच-नीचता और लैंगिक भेदभाव सहज ही होता है। इसका मतलब यह नहीं है कि शोषण भी हो। बाधाएँ तो आती और जाती रहेंगी, किंतु लैंगिक भेदभाव खत्म करने के लिए हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी और कुछ कड़े क़दम उठाने पडेंगे, इसी से महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों में कमी आएगी।

भारत को स्वतंत्रता प्राप्त किये 68 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं, किंतु आज भी अनेक महिलाएँ कार्यकुशलता होने के बावजूद लैंगिक भेदभाव के कारण अनेक क्षेत्रों में अपना योगदान नहीं दे पा रही हैं। भारत में मनुवादी संस्कृति के चलते कईं प्रतिभाशाली महिलाएँ मनुस्मृति की भेंट चढ़ गई हैं, और उनका अभी तक शोषण हो रहा है। मनु के अनुसार स्त्री केवल भोग की वस्तु है और समाज में पुरुषों के मुकाबले कोई अधिकार नही हैं। स्त्रियों को घर की चार दिवारी तक ही सीमित कर दिया गया। उनके अधिकार में केवल रसोई और बच्चे ही आते हैं, और दुनिया से तो उनका कोई लेना-देना ही नहीं।

महिलाओं पर हो रहे बलात्कार, अत्याचार, पारिवारिक और सामाजिक शोषण में वृद्धि हो रही है। हाल ही में करीमनगर ज़िला में दो भाईयों ने मिलकर लड़की को जला डाला, और एक ज़िले में चार वर्ष की लडकी से बलात्कार किया। यह तो बेहद शर्मसार करने वाली बात है कि परसों ही मंत्री के बेटे ने जिन्हें हम अपना नायक मानते हैं, एक पाठशाला के अध्यापिका से बीच चौराहे पर बदतमीज़ी की।

समय के साथ-साथ समाज में वैचारिक बदलाव लाने की आवश्यकता है। आज की स्त्री केवल घर तक ही सीमित नहीं रही, वह भी राजनीतिक क्षेत्र में के. कविता, स्मृति इरानी, सुषमा स्वराज के नाम से, व्यापार क्षेत्र में अरुंधति भट्टाचार्य, चंदा कोच्चर, इंद्रा नुई, प्रीति रेड्डी के नाम से और विद्या एवं खेल आदि के क्षेत्र में निखत ज़रीन, सानिया मिर्ज़ा, सायना नेहवाल, मिताली राज के नाम से अपनी और राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ा रही है।

लक्ष्मी, दुर्गा, महाकाली और पार्वती इन सभी शक्तियों का वास महिलाओं के भीतर होता है, वे इन्हीं के रूप हैं, बस आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए इनकी पूजा की जानी चाहिए न कि शोषण। स्त्रियों में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए यू.पी.ए. सरकार ने महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश किया था, किंतु वह राज्यसभा में स्थगित कर दिया गया।

केंद्र और राज्य सरकार की ओर से अनेक योजनाएॅ बनायी और लागू की जा रही हैं। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ‘ योजना आरंभ की। उसी तरह तेलंगाना राज्य के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव ने भी महिलाओं की सुरक्षा को मद्देनज़र रखते हुए ‘शी टिम्ज़‘, महिला पुलिस थाने आदि योजनाएॅं अमल में लाने का प्रयास किया है।

महिलाएँ राष्ट्र निर्माण में भागीदार रह चुकी हैं। चाहे वह किसी भी तरीके से क्यों न हों। अभी जो महिलाएँ विविध कार्यशैलियों में निपुण हैं, वह उतनी ही नहीं हैं कि जितनी अभी कार्यरत हैं। इनके अलावा और भी हैं जो किसी पीड़ा या छल के कारणवश नज़र नहीं आ रही, और अपने कार्यकौशल को छुपाए किसी कोने में पड़ी हुई हैं। ऐसी महिलाओं को ढूंढ़कर उन्हें प्रोत्साहित कर के असिम ऊँचाइयों पर ले जाने का प्रयास हमें करना है।

हम तो कहते हैं कि महिलाएँ पुरुषों के साथ-साथ चलते हुए आगे निकल गयी हैं, यह केवल कहने वाली बात है। इसमें तथ्य बहुत कम है। हमें चाहिए कि हम अपने गिरहबान में झाॅक कर देखें कि हमने कहा क्या और किया क्या? केवल बोलें ही नहीें, करने का साहस भी रखें।

अगर हम महिलाओं को पारिवारीक प्रगति का हिस्सा बनाते हैं, तो इससे हमारा परिवार उन्नति की राह पर चलेगा। परिवार के साथ समाज और समाज के साथ राष्ट्र भी…….!

— सय्यद ताहेर
पी एच डी शोधार्थी
तेलंगाना विश्वविद्यालय
डिचपल्ली, निज़ामाबाद

सय्यद ताहेर

सय्यद ताहेर पीएच डी शोधार्थी तेलंगाना विश्वविद्यालय डिचपल्ली, निज़ामाबाद संपर्क : 9391764590

5 thoughts on “प्रगति का आधार ‘नारी‘

  • विजय कुमार सिंघल

    आपका लेख अच्छा है। कई वर्तनी की ग़लतियों को मैंने ठीक कर दिया है।
    लेकिन आपका यह कहना सही नहीं है कि मनुस्मृति के अनुसार स्त्री केवल भोग की वस्तु है। मनुस्मृति में ऐसा कोई श्लोक नहीं है। आप दुष्प्रचार से भ्रमित हो गये हैं।
    वास्तव में इस्लाम में ही महिलाओं को बराबरी के अधिकार नहीं दिये गये है। पुरुष चार चार शादियाँ कर सकता है जबकि महिला एक ही कर सकती है। उसके कानून में भी दो महिलायें एक पुरुष के बराबर होती हैं।
    इस्लामी देशों में महिलायें केवल बच्चे पैदा करने की मशीन बन गयी हैं जिसके कारण मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सयीअद ताहेर जी , लेख बहुत अच्छा लगा . भारत में औरतों की स्थिति इस बात से भी समझ ली जा सकती है कि कोई ज़माना था जब औरत को अपने पती की मृतु हो जाने पर उस को पती के साथ जलना पड़ता था ,और इस का ज़िकर तो इबनबतुता ने भी किया है किओंकि उस ने अपनी आँखों के सामने सती हो रही दो सत्रीओं को देखा था . सब से पहले तो हम को अपने घर में ही देखना चाहिए कि हम अपनी बेटीओं बहनों को कैसे देखते हैं . दुसरी बात भारत की तो पुरानी सभियता ही हमारे खून से निकल नहीं पाती लेकिन यह बीमारी अर्ब देशों में भारत से कहीं ज़िआदा है . कल ही मैं फेस बुक पर एक खबर पड़ रहा था कि एक अरब देश में चालिस साल के एक पुरष ने आठ साल की लड़की के साथ शादी रचाई लेकिन वोह बदनसीब बच्ची सुहाग रात को इंटर्नल इन्जरीज़ के कारण अल्ला को पियारी हो गई . भारत में बहुत तबदीली आ रही है ,औरत बहुत आगे जा रही है लेकिन दुसरी तरफ सत्री के प्रति कमज़ोर मानसिक विचारधारा भी परचलित है . यह भी समरण रहे कि भारत की औरत को आगे लाने वाले भी मर्द ही हैं जिन्होंने औरत के हक्क में आवाज़ उठाई और यह आवाज़ अब भी जारी है . मैं ७३ का होने वाला हूँ और जो मैंने देखा है औरत की उस समय की हालत को वोह सुन कर आज के युवा काँप जायेंगे . आप इस बात से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि जब सकूलों में कोईजुकेशन शुरू हुई तो औरतें ही इस बात के खिलाफ थीं कि लड़किओं के बाहर जाने से उन की घर की इज़त नहीं रहेगी लेकिन यह मर्द ही थे जिन्होंने इतना हौसला कर दिखलाया कि बेतिओं को पड़ा लिखा कर समझदार बनाया जाए .

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत अच्छा लिखा है आपने भाईसाहब !

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        धन्यवाद विजय भाई .

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      सादर प्रणाम भाई
      आपकी बातों से सहमत हूँ

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