लघुकथा

झाँसा

बिरजू आज मजदुरी करके रोज से कुछ पहले ही घर की ओर लौट रहा था । बाजार से बाहर निकला ही था कि श्यामू ने उसे आवाज लगायी ” बिरजू ! अरे सुन तो ! आज इतनी जल्दी घर को चल दिया ? चल आ जा कुछ देर बैठते हैं मजा करते हैं । ”
नशे में झुमते श्यामू से बचकर बिरजू निकलना ही चाहता था कि श्यामू आगे बढ़कर उसके सामने खड़ा हो गया । ” वाह बेटा ! लग तो ऐसे रहा है जैसे आज तू ही मेरे शराब का बिल देने वाला है ! अरे बेवकूफ ! बिल तो मैं देने वाला हूँ फिर तुझे मेरे साथ बैठने में परेशानी हो रही है ? चल ! ” कहते हुए श्यामू ने बिरजू की तरफ झपट्टा मार कर उसकी कलाई पकड़नी चाही लेकिन बिरजू तो पहले ही सावधान था । उससे बचकर चलता बना । श्यामू ने खीझ कर अपने हाथ में पकड़ी बोतल जमीन पर दे मारी ।
लल्लन श्यामू के हर क्रियाकलाप को बड़ी देर से देख रहा था । अपने प्यासे अधरों पर जबान फेरते हुए श्यामू से बोला ” चाचा ! अगर कहो तो आज मैं तुम्हारा साथ दे दूँ । बिरजुआ तो भाग गया । ”
श्यामू ने झुमते हुए एक भद्दी से गाली लल्लन को दिया और बोला ” अबे लल्लनवा साले ! हमको बुडबक समझा है क्या बे ? चल भाग ! तुझे कौन दारू पिलाएगा ? वो तो बिरजुआ को हम इस लिए दारू पिलाने का बोल रहे थे बेटा कि वो बहुत बढ़िया कमाता है । और अगर वो दो चार बार हमारी दारु पी लेता और शराब पीने की लत उसको लग जाती तो आगे से हम उसके पैसे से मजा करते । लेकिन ससुरा भाग गया । झांसे में आया ही नहीं । ”
कहते हुए श्यामू लड़खड़ाते कदमों से एक तरफ बढ़ गया ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।