धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जन्म दिवस मनाते हुए विचारणीय कुछ मुख्य बातें

ओ३म्

संसार में तीन पदार्थ वा सत्तायें अनादि, अनुत्पन्न, सनातन, शाश्वत्, नित्य, अविनाशी एवं अमर हैं। इनके नाम हैं ईश्वर, जीव एवं प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अजन्मा, अमूर्त, आकार रहित, शरीर रहित, अवतार न लेने वाला और सृष्टिकर्ता है। उसका स्वरूप सदैव अपने यथार्थ रूप में, जैसा पूर्व पंक्तियों में वर्णन किया है, ही रहता है। वह सर्वशक्तिमान होने से अपना प्रत्येक कार्य अपने निराकार व सर्वव्यापक रूप में स्थित रहकर कर सकता है। उसे जन्म व अवतार लेने की किंचित भी आवश्यकता नहीं है। जो लोग ईश्वर का जन्म व अवतार मानते हैं वह अविद्याग्रस्त लोग हैं। अपनी अविद्या की आड़ में बहुत से लोग अपना स्वार्थ भी सिद्ध करते हुए देखे जाते हैं। ईश्वर निराकार व सर्वव्यापक है और हमेशा इसी स्वरूप में विद्यमान रहता है। उसका यथार्थ स्वरूप ही संसार के सभी वा प्रत्येक मनुष्य के लिए ध्यान, विचार व चिन्तन सहित उपासना करने योग्य है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि उपासना तभी फलीभूत होती है जब उसे वैदिक विधि के अनुसार की जाये। ईश्वर के समान संसार में कोई नहीं है, अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। यह भी जानने योग्य है कि संसार में एक ही ईश्वर, सर्वव्यापक चेतन सत्ता, होने के कारण उसके अनेक नामों गाड, अल्लाह, खुदा, वाहे गुरु आदि शब्द एक प्रकार से उसी एक ईश्वर के लिए प्रयुक्त होते हैं।

ईश्वर के बाद दूसरा मुख्य पदार्थ वा सत्ता जीवात्मा की है जो संख्याओं में अनन्त हैं। इन जीवात्माओं में एक हम व एक आप भी हैं। जीवात्मा ईश्वर से पृथक एक स्वतन्त्र सत्ता है। यह मनुष्य शरीर में होने पर कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु अपने शुभ व अशुभ कर्मों के सुख व दुःखरूपी फल भोगने में ईश्वर के अधीन है। यह जीवात्मा अपने पूर्वजन्मों के कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म प्राप्त कर ज्ञान व कर्मों को करने वाला, एकदेशी, ससीम, जन्म मरण के चक्र मे फंसा हुआ, वेदज्ञान को प्राप्त कर उसके अनुरूप कर्मोंपासना से मोक्ष प्राप्त करने वाला, अजर, अमर, नित्य आदि गुण, कर्म व स्वभाव वाला है। एकदेशी, समीम, अणुमात्र होने से यह अल्पज्ञ है अतः इसे ईश्वर से सहायता व कृपा की अपेक्षा है। गीता के शब्दों में जीवात्मा के स्वरूप पर कुछ कुछ प्रकाश पड़ता है जिसमें कहा गया है कि शस्त्र जीवात्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नही सकती, जल से यह गीली नहीं होती और वायु से यह सूखती नहीं है। जीवात्मा बिना मनुष्य जन्म धारण किये अपने आप को जान व पहचान भी नहीं सकती, अतः इसे ईश्वर से अपने पूर्वजन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य जन्म की अपेक्षा रहती है जिससे यह वेदज्ञान की प्राप्ति व उसके अनुसार आचरण कर समस्त दुःखों से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो सके।

जीवात्मा का स्वभाविक गुण ज्ञान व कर्म है। हमें अपना, ईश्वर व इस सृष्टि का यथार्थ ज्ञान होना चाहिए तभी हमारा मनुष्य जन्म सार्थक हो सकता है। हम अपनी आंखों से अपना, अन्य मनुष्यों व पशु, पक्षियों एवं इस ब्रह्माण्ड के सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, अग्नि, जल, वायु, आकाश व पृथिवी का दर्शन एवं अनुभव करते हैं। संसार के जीवेतर सभी पदार्थ जड़ पदार्थ हैं जो मूल प्रकृति, सत्, रज व तम गुणों वाली प्रकृति, की साम्यावस्था का विकार हैं। यह विकार ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में किया था जिससे यह सृष्टि बनी है। उसी परमेश्वर के नियमों के अनुसार प्रकृति में नई नई रचनायें व परिवर्तन हो रहे हैं। इसका सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करना हो तो इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश, दर्शन, उपनिषद्, मनुस्मृति और वेदों का अध्ययन करना होगा। ऐसा करके हम प्रकृति वा सृष्टि का विस्तार से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जो कि विज्ञान पर आधारित होने से युक्ति एवं तर्क संगत है। पूर्व पंक्तियों में हमने ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के बारे में संक्षेप में जो लिखा है वहीं इस संसार का रहस्य व निचोड़ है। इसे जान लेने पर ही हम वेद, वैदिक साहित्य एवं स्वविवेक से अपने कर्तव्यों का निर्धारण कर सकते हैं।

हम मूलतः एक जीवात्मा हैं। पूर्वजन्मों के अवशिष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए ईश्वर ने हमें यह मनुष्य जन्म दिया है। यह जन्म ज्ञान की प्राप्ति और उन कर्तव्यों के पालन के लिए है जिससे हम पूर्वकर्मों का भोग करने के साथ नये सत्कर्मों को करके सभी प्रकार के दुःखों से छूट जायें और मृत्यु होने पर जन्म व मरण के चक्र से भी छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जायें। हमारे इस प्रयोजन को सफल करने के लिए ही परमात्मा ने हमें वेद ज्ञान दिया था। उसी वेद ज्ञान को ऋषियों ने सरल शब्दों में समझाने के लिए अनेक प्रकार के ग्रन्थों की रचना की। आर्य विद्वानों ने उस परम्परा का निर्वहन जारी रखा जिससे आज समस्त वैदिक वांग्मय हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के सरलीकरण के प्रयास में ही सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। मनुष्य जीवन में कर्तव्यों पर ध्यान दें तो सभी मनुष्यों को पांच महायज्ञ प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक करने चाहिये। यह पांच महायज्ञ सन्ध्या या ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ या अग्निहोत्र, पितृयज्ञ या माता-पिता व वृद्धों की सेवा व सम्मान, अतिथियों व विद्वानों का सम्मान व सत्कार तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ अर्थात् मनुष्येतर प्राणियों के प्रति प्रेम व अहिंसा का भाव रखकर उनके जीवनयापन व भोजन आदि में सहायक बनना। यदि हम यह पांच महायज्ञ श्रद्धापूर्वक करते हैं और इसके साथ ही शुद्ध व पवित्र भोजन जो हमें सदाचार का पालन करते हुए प्राप्त होता है, आसन व प्राणायामों के साथ योग की रीति से ईश्वरोपासना एवं देशभक्ति व समाज की उन्नति व सुधार, अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि के साथ अहंकार व क्रोध पर नियंत्रण रखते हुए सब प्राणियों को अपने समान व स्वयं को अन्य प्राणियों के समान क्रियात्मक रूप में देखते है ंतो हमारा जीवन सफल होता है और हम दुःखों से बचने के साथ मोक्ष के निकट भी पहुंचते वा उस ओर बढ़ते हैं। सभी मनुष्यों को इस पर अवश्य ध्यान देना चाहिये और साम्प्रदायिक पूजा पद्धतियों का त्याग कर वैदिक धर्म व संस्कृति को अपने जीवन में अपनाना चाहिये।

हम सब संसार में किसी एक दिन जन्में हैं। वह दिन हमारा जन्म दिवस कहलाता है। इस जन्म दिवस की सार्थकता यह है कि हमें पता होना चाहिये कि हमारा मनुष्य जीवन का बहुमूल्य समय तेजी से व्यतीत हो रहा है और हम जीवन के अन्त की ओर बढ़ रहे हैं। मृत्यु का किसी को पता नहीं कि यह, शीघ्र व देर, कब आयेगी। अतः हमें साधना पथ पर आरुढ़ होकर ईश्वर द्वारा वेदों में निर्दिष्ट अपने कर्तव्यों को पूरा करना है। यदि आयु अधिक हो गई है तो समझिये हमें अधिक कार्य करना शेष है। गृहस्थ होकर भी मनुष्य सभी धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर मोक्ष का अभिलाषी हो सकता है और मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। वैदिक साहित्य में ऐसे ऋषियों का भी वर्णन है जो गृहस्थी थे। अनेक स्त्रियां भी ऋषिकायें हुई हैं जिनके नाम वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। अतः जन्म दिवस मनाते समय हमें अपने कर्तव्यों पर विचार कर उसके निर्वहन को प्रमखता देने के संकल्प के रूप में मनायें तो यह हमारे इस जन्म व परजन्म में लाभदायक हो सकता है। बीता हुआ समय पुनः हाथ में नहीं आता। समय पर यदि कोई काम नहीं करते हैं तो वह भविष्य में शरीर की अवस्था परिवर्तन अर्थात वृद्धावस्था, रोग व किसी दुर्घटना आदि के कारण किया जाना सम्भव नहीं रहता। अतः हमें जन्म दिवस के ही दिन दृण व पक्का संकल्प लेकर अपने जीवन को योग व वेद मार्ग पर आरूढ़ करना चाहिये। उसका समय समय पर निरीक्षण एवं मूल्यांकन अर्थात् उवदपजवतपदह ंदक तमअपमू करते रहना चाहिये। स्वाध्याय में शिथिलता नहीं आने देनी चाहिये। अच्छे योगनिष्ठ लोगों से मित्रता और धर्म व योग के विपरीत सांसारिक पदार्थौं में लिप्त लोगों से दूर रहने का प्रयास करना चाहिये तभी हमारा वर्तमान और भावी जीवन सुधरेगा। अपने जन्म दिवस पर हमें वैदिक सिद्धान्तों व अपनी जीवन पद्धति का अवलोकन कर अपने जीवन को वेदों के अनुरूप ढालने का संकल्प लेना और उसे मनसा, वाचा व कर्मणा पालन करना ही जन्म दिवस का यथार्थ व सर्वोत्तम प्रयोजन एवं तात्पर्य प्रतीत होता है। इस पर विचार कर स्वयं निर्णय लिया जा सकता है। यदि हमारे मित्र इस पढ़कर हमसे चर्चा करना व शंका समाधान करना चाहें, तो हमें प्रसन्नता होगी। यदि हम जीवन में किसी बात की उपेक्षा करते हैं तो वह बात कालान्तर में हमारे लिए सिरदर्द बन सकती है। अतः उपेक्षा न कर समाधान करना ही उचित है।

लेख को समाप्त करने से पूर्व इतना कहना समीचीन है कि यह सिद्ध है कि वेद ईश्वर द्वारा दिया गया ज्ञान है। ईश्वर ने यह संसार बनाया, इसे चला रहा है, हमारे शरीर बनाकर इन सब को व्यवस्थित किये हुए है, सभी प्राणियों का वह पालनकर्ता है, अतः उसका ज्ञान अशुद्ध, असत्य, अनावश्यक व अनुचित नहीं हो सकता। हमारे प्राचीन सभी ऋषि मुनि भी विद्वान, ज्ञानी व विज्ञानधर्मी व वैज्ञानिक थे। वह सब ईश्वर व वेद पर विश्वास रखने वाले थे। अपने पूर्वज ऋषियों की तुलना में हम अल्पज्ञानी व अविवेकी हैं, अतः हमारा कल्याण उनकी शरण में जाने से ही हो सकता है। आप इस पर अवश्य विचार करें। ईश्वर आपको सत्य मार्ग अवश्य सुझायेंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य