संस्मरण

नागमणि — एक रहस्य (भाग –१ )

बात लगभग 1993 के आखिरी दिनों की है । एक शाम मैं अपने एक मित्र की दुकान पर यूँ ही गपशप लड़ाते बैठा था । अचानक एक जाना पहचाना चेहरा देखकर थोडा आश्चर्य चकित हुआ । वह एक आदिवासी था जो मेरे यहाँ पूर्व में काम कर चुका था । यहाँ यह बताना आवश्यक है कि मेरा पहले पेड़ों की कटाई का व्यवसाय था और इसी काम में लगभग तीस मजदुर रोजाना मेरे पास काम करते थे । समयचक्र की मेहरबानी से फिलहाल मैं खुद ही बेकार था और मित्र के यहाँ समय काटने के उद्देश्य से बैठा था ।
आदिवासियों की अपनी ही एक अदा होती है । मुझे देखते ही खुश होते हुए बोला ( उसने मुझसे मराठी आदिवासी शैली में बात की थी जैसा कि वो अक्सर करते हैं । पाठकों की सुविधा के लिए मैं उसका अनुवाद लिख रहा हूँ )  ” अरे शेठ ! तू यहाँ बैठा है और मैं कब से तुम्हें ढूंढ रहा हूँ । घर पे भी जाकर आया । शेठानी ने यहाँ का पता दिया और बोली जाकर देख  तो मैं यहाँ आ गया । ”
प्यार से बोली गयी इनकी भाषा में बेअदबी का पुट होता है यह मुझे मालूम था सो मुस्कुराते हुए उन्हीं की भाषा में पुछ बैठा ” इतनी क्या जल्दी थी मुझसे मिलने की ? क्या तुझे नहीं मालुम कि मैं शाम को घर पर मिलता हूँ ? ”
कुछ परेशानी सी जाहिर करते हुए उसने साथ आये एक दुसरे आदिवासी की तरफ इशारा करते हुए बताया ” मुझे मालुम था । मैंने इसको बताया भी था लेकिन इसके पास समय ज्यादा नहीं है । इसको किसी भी हाल में रात को अपने गाँव पहुंचना है । ” ( बता दें उनका गाँव नालासोपारा शहर से लगभग पचास किलोमीटर दुर मनोर के जंगलों में है । )
अब मैंने थोड़ी नाराजगी जाहिर किया ” तो इसमें मेरा क्या काम है ? जाना है तो जा । फिर मेरे से मिलने क्यों आया  ”
नाराजगी का अहसास होते ही वह सहम गया था ” नहीं नहीं शेठ ! गुस्सा मत करो ! ”  कहते हुए उसने एक लोहे की छोटी सी डिबिया मेरे हाथ पर रख दिया और बोला ”  यह मेरा दुर का रिश्तेदार है । इसको कुछ पैसे की बहुत जरुरत है । मैं इसको यहाँ लेकर आया हूँ कि मैं अपने शेठ से पैसे दिला दुंगा । ”
डिबिया को खोलने का प्रयत्न करते हुए मैं अनायास ही पुछ बैठा ” क्या है इसमें ? ”
उसने बड़ी आसानी से तुरंत जवाब दिया ” नागमणि ! ”
सुनकर मेरे साथ ही मेरा मित्र भी चौंक गया । हमें उसकी बात का यकिन नहीं हो रहा था । मैंने थोडा डपटने के अंदाज में ही उससे कहा ” क्या रे ? दिन में ही दारू पी लिया है क्या ? ज्यादा हो गयी ? ”
गिडगिडाते हुए वह कसम खाने लगा ” नहीं शेठ ! देवा शपथ ! मैंने दारू नहीं पी है । ”
कहते हुए उसने मेरे हाथ से वह डिबिया लेकर खोलकर हमारे सामने रख दिया । उत्सुकता से हमने उस डिबिया में झांक कर देखा । डिबिया में थोड़े से सिंदूर के बीच एक छोटी सी कौड़ी जैसी सफ़ेद सी कोई चीज दिख रही थी । हमने सुन रखा था कि नाग मणि से कोई दिव्य रोशनी निकलती है जिससे आसपास का वातावरण प्रकाशमान हो जाता है । लेकिन डिबिया में से कोई रोशनी नहीं नजर आ रही थी सो उससे पुछ ही लिया ” ये नाग मणि है ? ”
बिना कोई जवाब दिए उसने डिबिये में हाथ डालकर वह छोटी सी कौड़ी नुमा चीज निकाला और उसमें लगा सिंदूर पोंछकर मेरीे हथेली पर रख दिया । अब वह मणि मेरे हाथों में थी । इसकी आकृति किसी छोटे से सर्प के मुख के आकार जैसी थी । निचे से चपटी और ऊपर से गोलाकृति में बिलकुल सर्प के सर के आकार जैसा । उसे उठाकर सामने से देखा तो हमें उसके निचले हिस्से पर वैसा ही निशान बना दिखाई दिया जैसा नाग के फन पर बना होता है । यह पानी और हलके दूधिये रंग का पारदर्शी पत्थर जैसा कोई अजीब सी चीज थी । हमने उसे हर तरह से परखकर देखा । वह चिकने सफ़ेद पत्थर जैसा लग रहा था लेकिन पत्थर नहीं था और न ही वह प्लास्टिक से बनी कोई नकली चीज प्रतीत हो रही थी ।  कुछ अजीब सी अनजानी सी चीज देखकर हम दोनों मित्र असमंजस में थे । हमें असमंजस में देख वह मजदुर बोला ” शेठ मेरे ऊपर भरोसा नहीं है क्या ? यह असली नागमणि है । ”
” तो फिर इसमें लाइट क्यों नहीं है ? ”  आखिर मैं पुछ बैठा ।
उसने साथ में आये आदमी की तरफ इशारा करके बताया ” बहुत साल पहले इसके दादा को यह मणि जंगल में जमीन के फटे हुए छिद्र में मिली थी । इस मणि के बगल में ही सांप भी मरा हुआ पड़ा था । तब इसमें दिव्य ज्योति थी । इसके दादा इस मणि की सहायता से सांप द्वारा डँसे गए लोगों की जान बचाने का काम करते थे …. ”
उसे बीच में ही टोक कर मैं उससे पुछ बैठा ” इससे लोगों का इलाज करते थे ? कैसे ? ”
उसने समझाया ” लोग दूर दूर तक इसके दादा को जानते थे । इलाके में जब भी किसी को सांप काट लेता तो उसे तुरंत ही इसके दादा के पास ले जाया जाता था । इसके दादा सांप के काटे का निशान पहचानकर उस निशान पर इस मणि को छुआ देते थे । यह मणि उस निशान पर खुद ही चिपक जाती थी और कुछ ही मिनटों में उस आदमी के शरीर से पूरा जहर खिंच लेती थी । जब शरीर से पूरा जहर बाहर आ जाता तब यह मणि अपने आप निचे गिर जाती थी । फिर इस मणि को दूध में धोकर वापस अपने घर में बने मंदिर में रख दिया जाता था । जिस दूध से मणि को धोया जाता था उस दूध को सावधानी से एक गड्ढा खोद कर उसमें गीरा दिया जाता था क्यूंकि वह दूध बहुत जहरीला हो जाता था । जहर के प्रभाव से धीरे धीरे कई सालों में अब इसकी लाइट ख़त्म हुयी है । लेकिन हलकी सी लाइट अभी भी है आप देख सकते हैं । ” कहते हुए उसने वह मणि अपनी दोनों हाथों की हथेलियों के बिच बंद करते हुए अँधेरा करने का प्रयास किया और हमें अपने अंजुली के बिच रखे मणि को देखने के लिए कहा । हमारे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा । बड़े ध्यान से देखने पर उसकी अंजुली की गहराई से बने हलके अँधेरे में भी उस मणि से अगरबत्ती की चिंगारी जैसा प्रकाश दिख रहा था ।
वह आदिवासी शायद हमारे मनोभावों को पढ़ने में कामयाब रहा था । उसने तुरंत ही वह मणि मेरी हथेली पर रख दिया और मुझसे मुट्ठी बंद करने के लिए कहा ।

  क्रमशः  ( शेष अगले भाग में  )

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।