धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गुरु विरजानन्द और ऋषि दयानन्द में विद्या का आदान-प्रदान

स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु को विद्या का सूर्य कहा है। यह बात वही कह सकता है जो स्वयं विद्या का सूर्य हो और विद्या की सभी बारीकियों व सूक्ष्मताओं को बखूबी समझता हो। स्वामी दयानन्द का जीवन इस बात का प्रमाण है कि वह महाभारत काल के बाद विश्व भर में उत्पन्न वैदिक विद्वानों में अनेक बातों में अपूर्व एवं अतुलनीय हैं। उन्होंने वेदों पर प्रवचन, शास्त्रार्थ, सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों के लेखन द्वारा अपनी जिस विद्वता का परिचय दिया है उससे वह महाभारत काल से आज तक हुए सभी वैदिक विद्वानों में अपूर्व व अनुपम हैं। यह भी हमारा अनुमान है कि उनका यह स्टेटस वा स्तर सदैव बना रहेगा। स्वामी दयानन्द की यह मान्यता वैदिक साहित्य के अध्ययन व वेदों के भाष्य में विशेष महत्व रखती है कि वेदों के शब्द लौकिक व रूढ़ नहीं अपितु यौगिक व धातुज हैं जिनके एक से अधिक अर्थ हो सकते हैं और वह अर्थ प्रसंगानुसार व वेद मन्त्र के देवता, छंद, स्वर तथा व्याकरण सहित निरुक्त के निर्वचनों को ध्यान में रखकर संगतिपूर्ण ही होने चाहिये जैसे कि उन्होंने स्वयं किये हैं। स्वामी दयानन्द जी का वेदभाष्य और उनके बताये सिद्धान्त विद्वत जगत के सम्मुख हैं और उनके पूर्व भाष्यकारों के वेदों के पूर्ण व आंशिक भाष्य भी उपलब्ध हैं जिनकी स्वयं स्वामी दयानन्द जी ने समीक्षा कर अपने पूर्ववर्तीं वेदभाष्यकारों की अनेक बातों व मान्यताओं का प्रतिवाद व खण्डन किया है। स्वामी दयानन्द जी ने वेदों का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उज्जवल, उपादेय, आचरणीय, सत्य, यथार्थ, अज्ञान से रहित, विद्या की कसौटी पर खरा है एवं अनेक गुणों से युक्त है। स्वामी दयानन्द जी के वेदभाष्य वा वेदज्ञान की एक विशेषता यह है कि उनके द्वारा अपने ग्रन्थों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का जो स्वरूप प्रस्तुत किया गया है वह सत्य व यथार्थ होने से आलोचना से रहित व सर्वजनहितकारी है। स्वामी दयानन्द जी ने वेदों के मंत्रों की व्याख्याओं के आधार पर ईश्वर व जीवात्मा का जो स्वरूप्ां व इनके गुण, कर्म व स्वभाव को प्रस्तुत किया है, वह उनके समय में प्रचलित व आचरण में न होने के कारण देश व जन-जन के लिए लाभकारी एवं जीवन को सुखद व कल्याणकारी बनाता है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, इसका उद्घोष भी उन्होंने किया और उसे अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थप्रकाश आदि में सिद्ध भी किया है। वेदों के ज्ञान के प्रकाश में उन्होंने धार्मिक व सामाजिक जगत में जिस क्रान्ति का सूत्रपात किया था उसने सभी प्रकार के अज्ञान, अंधविश्वासों सहित पापाग्नि को भस्म कर दिया है। यह भी विचारणीय है कि ऋषि दयानन्द और उनके अनुयायी विद्वानों ने विगत 154 वर्षों में विश्व के सभी मतों को उनकी मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्मना जाति व्यवस्था, विवाह में गुणकर्मस्वभाव की उपेक्षा कर जन्मपत्र को महत्व देना आदि की जो आलोचना व उन्हें शास्त्रार्थ, लिखित व मौखिक, की चुनौती दी और लोगों को निरुत्तर किया जबकि किसी विपक्षी मत-मतान्तर द्वारा उनके द्वारा खण्डित मान्यताओं को सत्य सिद्ध करने या आर्यसमाज को चुनौती देने का कार्य नहीं हुआ। यदि कभी कहीं हुआ है तो आर्यसमाज ने उसका उत्तर दिया है। इसका सीधा अर्थ है कि स्वामी दयानन्द जी द्वारा खण्डित सभी मत-मतान्तरों की मान्यतायें आज भी खण्डित हैं और विपक्षियों के पास उनका आज भी कोई उत्तर नहीं है। आज भी वह अज्ञान व अविद्या से ग्रस्त हैं तथा सत्य को अपनाने को तत्पर नहीं है।

स्वामी दयानन्द और स्वामी विरजानन्द जी का परस्पर सम्बन्ध विद्या के आदान-प्रदान अर्थात् शिष्य व आचार्य के रूप में हुआ। ऐसा नहीं है कि स्वामी दयानन्द उनसे मिलने से पूर्व विद्या नहीं पढ़े थे। स्वामी दयानन्द जी ने उन दिनों देश भर के प्रायः सभी ज्ञात व अनेक अज्ञात गुरुओं के निवास व आश्रमों आदि पर जाकर उनसे सम्पर्क कर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने के साथ उनसे उन विषयों को ज्ञान भी प्राप्त किया था जो विषय वह आचार्य जानते थे। योग विद्या में वह सफलता प्राप्त कर चुके थे और उच्च कोटि के साधक एवं सिद्ध योगी थे। फिर भी वह विद्या प्राप्ति की दृष्टि से स्वयं को अतृप्त अनुभव करते थे। इसी कारण वह सन् 1857 के स्वातन्त्र्य समर के तीन वर्ष बाद सन् 1860 में गुरु विरजानन्द जी के पास अध्ययन के लिए पहुंचे थे। उन्होंने लगभग 3 वर्ष गुरु चरणों में बैठकर संस्कृत की अष्टाध्यायी-महाभाष्य प़द्धति सहित निरुक्त व निघण्टु के विषयों का अभ्यास किया था। स्वामी विरजानन्द विद्या व ज्ञान के सूर्य थे। उनके समान अन्य कोई आचार्य दयानन्द जी के जीवन में नहीं आया था। स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द जी की सभी आशंकाओं व भ्रमों का निवारण किया था। सन् 1863 में उनकी विद्या पूर्ण हुई और उन्होंने गुरु जी से दीक्षा व विदा ली। विदाई के अवसर पर स्वामी विरजानन्द जी ने उन्हें देश भर में धार्मिक व सामाजिक जगत सहित राजनीतिक जगत में फैले अविद्या व अज्ञान को दूर करने का सत्परामर्श दिया था। स्वामी दयानन्द जी ने उनके परामर्श को सहर्ष यथावत् स्वीकार किया था। सम्भवतः इससे अच्छा परामर्श स्वामी दयानन्द जी को और कोई नहीं दे सकता था। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी ने जो भी कार्य किया, प्रचार, ग्रन्थ लेखन, आर्यसमाज की स्थापना, समाज सुधार, असत्यमतों व असत्य मान्यताओं का खण्डन, गोरक्षा, हिन्दी का प्रचार-प्रसार आदि, उन सब के पीछे गुरु की आज्ञा का पालन व देश सहित मानवमात्र का हित था।

घर में माता-पिता और विद्यालय में आचार्य अपनी सन्तानों व शिष्यों के हित के लिए उनका ताड़न करते ही हैं। इसी प्रकार एक सच्चे आचार्य की तरह देश व समाज के सुधार व मानवमात्र के हित में स्वामी दयानन्द ने असत्य मत व मान्यताओें का खण्डन और सत्य मत व सत्य मान्यताओं के मण्डन का कार्य किया। स्वामी दयानन्द जी के प्रयासों से देश में लोग सत्य व असत्य का विवेचन करने की शैली व पद्धति को प्राप्त हुए, उन्हें अच्छाई व बुराई का ज्ञान हुआ, धार्मिक व सामाजिक असत्य व अज्ञानपूर्ण मान्यताओं का देशवासियों को ज्ञान हुआ एवं स्वकर्तव्य व अनुचित व्यवहारों से भी वह परिचित हुए। प्रायः सभी अवैदिक मतों के आचार्यों ने अपने हित वा स्वार्थ के कारण असत्य व अज्ञान को तो नहीं छोड़ा परन्तु कुतर्कों द्वारा वह अपने मत का समर्थन करते रहे और आज भी करते हैं। जो भी हो, स्वामी जी के उपदेशों, शास्त्रार्थों व प्रचार से देश भर में पुनर्जागरण हुआ जिसका प्रभाव देश व समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ा। इस कार्य को और बढ़ाने के लिए सन् 1883 में स्वामी दयानन्द जी के परलोक गमन पर उनके शिष्यों ने ‘दयानन्द ऐग्लों वैदिक स्कूल’ व ‘गुरुकुल’ खोले। इन विद्यालयों में स्वदेशीय हितों को प्रधानता देते हुए अध्ययन-अध्यापन कराया जाता था जिससे एक ऐसी पीढ़ी तैयार हुई जिसमें धर्म व अधर्म को जानने की क्षमता थी और देश को स्वतन्त्र कराकर स्वराज्य स्थापित करने की भी प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न हुई। अनेक बाधाओं के होने पर भी देश को स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा से लाभ हुआ जिसके परिणामस्वरूप एक ओर जहां अन्धविश्वास कम व समाप्त हुए वहीं बाल विवाह आदि पर रोक लगी, विधवा विवाह प्रचलित हुए, जन्मना जाति में विवाह के साथ गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित अन्तर्जातीय विवाह भी प्रचलित हुए। सामाजिक असमानता कम व दूर हुई। छुआछूत वा अस्पर्शयता की भावना समाप्त व कम हुई। आर्यसमाज ने दलित परिवारों के अनेक बच्चों को अपने गुरुकुलों में पढ़ाकर उन्हें पण्डित, आचार्य, पुरोहित व समाज में उच्च स्थानों पर स्थित किया। आर्य समाज को यह भी गौरव प्राप्त है कि आर्यसमाज के कई संन्यासी व विद्वान दलित परिवारों से आये और उन्होंने सर्वश्रेष्ठ वेदभाष्य व उस पर टीका आदि लिखने का कार्य तक किया है। संस्कृत भाषी दलित परिवार के अनेक विद्वान बन्धु पहले भी आर्य समाज में थे और आज भी हैं। आर्यसमाज में आज अधिकांश वैदिक विद्वान सभी वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र (जन्मना दलित जाति के बन्धु भी) आदि से हैं। यह भी कम गौरव की बात नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वामी दयानन्द जी ने किसी भी पक्ष के औचीत्य को सिद्ध करने के लिए तर्क व युक्ति का हथियार हमें पकड़ाया था जिसका आज देश भर में सर्वत्र प्रयोग हो रहा है। संक्षेप में इतना ही कह सकते हैं कि जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां आर्यसमाज ने अपनी उपस्थिति दर्ज न की हो व उसे प्रभावित कर उससे देश हित सम्पन्न न किया हो।

लेख की अपनी सीमा होती है। अतः लेख का अधिक विस्तार न करते हुए इतना ही कहना उपयुक्त प्रतीत होता है कि आर्यसमाज ने अन्धविश्वास, अज्ञानता और परतन्त्रता से भारत को बाहर निकाला। देश को स्वराज्य, सुराज्य, वैदिक साम्राज्य व चक्रवर्ती राज्य बनाने के मन्त्र देशवासियों को दिये। ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति के सत्य वैज्ञानिक स्वरूप को देश व समाज के सामने रखा। जीवन को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष दिलाने वाली संन्ध्या पद्धति व देवयज्ञ अग्निहोत्र सहित पंचमहायज्ञ पद्धति भी देशवासियों को प्रदान की है। आज आर्यसमाज को भीतर व बाहर से चुनौतियां मिल रही है। भीतर से चुनौतियां इसके नेता देते हैं जिनमें लोकैषणा व वित्तैषणा आदि स्वार्थ हो सकते हैं और बाहर भी मत-मतान्तरों में अज्ञानता व स्वार्थ दृष्टिगोचर होते हैं जो आर्यसमाज की सत्य मान्यताओं को स्वीकार नहीं करते और अपनी अविद्यायुक्त बातों का ही आचरण करते व कराते हैं। आर्यसमाज को अपनी कमियों को दूर कर प्रचार तन्त्र को शक्तिशाली व प्रभावशाली बनाना होगा। तभी स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द जी द्वारा आरम्भ मिशन सफल हो सकता है। इन दोनों महापुरुषों के मिलन से देश को अपूर्व व सर्वाधिक लाभ हुआ है। ओ३म् शम्।

— मनमोहन कुमार आर्य