लघुकथा

चायवाला

शाम का वक्त था । उबलती हुई चाय में अदरक डालते हुए आज वो चायवाला बहुत खुश था।
सुबह से काफी अच्छी बिक्री हुई थी।
आज वो घर खाली हाथ नहीं जाएगा, छोटू की किताबें और नये जूते लाने हैं, इतने दिनों से ज़िद कर रहा है , पुराने जूते से उसका अंगुठा बाहर आ जाता है…।
छुटकी के लिए नयी ड्रेस और Computer Class मे Admission कराना है …।

हमेशा कि तरह उसकी पत्नी जो उससे कुछ नहीं कहती थी , पर वो जानता था उसे क्या चाहिए .. इसलिए वो इस हफ्ते उसके लिए एक अच्छी सी साड़ी लेगा…।
और तो और गांव पर बूढ़े बाबा ,अम्माँ की दवायें और दूसरे खर्चो के लिए भी पैसे भेजने हैं।
इस महीने थोड़े खर्चे तो हैं पर कमाई तो अच्छी हुई है, और महीना पूरा होने में अभी 5 दिन बाकी हैं, भगवान ने चाहा तो सब अच्छा ही होगा।
अच्छा….! वो खुद के लिए कुछ लेगा..? कई हफ्तों से उसके कंधों में दर्द है । डॉक्टर को दिखाता हूँ…. अरे नहीं इस बार नहीं। अभी इस महीने घर , बिजली, पानी सबका बिल देना है,
बजट ख़राब हो जायेगा , छोड़ो अगले महीने डॉक्टर के पास जाउंगा, वो यही सब सोच के मन ही मन खर्चो का हिसाब लगा ही रहा था, कि तभी …….
एक ओर से लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी।
लोग डरे सहमे इधर -उधर भाग रहे थे, उनके पीछे दूसरे लोग जिनके हाथो में डंडे, बोतलें, पत्थर थे…,
चारों तरफ अफरा-तफरी, दूर से उठता काला धुआँ, तोड़ फोड़ कर रहे लोगों की भीड़ देखकर वह डर गया उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था .. क्या हुआ ? क्या हो रहा है ?
वो काफी घबरा गया। तभी पास वाली दुकान का शटर गिराते हुए दुकानदार ने कहा – अरे खड़ा क्या है.. जान बचा अपनी,भाग जल्दी..।

उसने अचानक से खुद को सम्भाला , गैस चूल्हा बंद किया , सारे बर्तन ठेले पर रखने लगा, पास पड़ी टेबल को ठेले पर रखने के लिए उठाया ही था की एक पत्थर तेजी से उसके सिर पर आकर लगा, अचानक एक तेज चीख के साथ वो धड़ाम से जमीं पर आ गिरा, उसे कुछ महसूस नहीं हो रहा था , वो उठने की कोशिश कर रहा था पर उठ नहीं पा रहा था। गर्म खून उसके सर के पास तेजी से बहा जा रहा था ,
वो बेजान सा वहीं पड़ा था, कुछ लोगों की भीड़ उसके सामने से गुजरी, वो मदद के लिए चिल्लाना चाहता था पर मुँह से कुछ बोल न पाया।
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लोगो ने उसे देखा वो उसके पास आये, उसे उम्मीद की किरण नजर आई पर, उनमे से एक ने ठेले पे पड़ी माचिस उठायी उसके ठेले पे पेट्रोल छिड़का और आग लगा दी।

ठेला धू-धू कर के जलने लगा , वो चीखा पर आवाज कहीं दब के रह गयी। आखों के सामने उसका ठेला जल रहा था, ठेले के साथ-साथ छोटू की किताबें, नये जूते, छुटकी की नयी ड्रेस , ट्यूशन फीस , पत्नी की साडी़, बाबा-अम्मा की दवायें भी जल रही थी।
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आग ने भयंकर रूप ले लिया और उसके ठेले के पास रखे सिलिंडर गैस के पास पहुंच गई। एक ज़ोरदार धमाका हुआ और सब कुछ शांत……
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-राज सिंह

राज सिंह रघुवंशी

बक्सर, बिहार से कवि-लेखक पिन-802101 raajsingh1996@gmail.com