सामाजिक

लेख–डाक्टरों की कमी से जूझता आनंद मत्रालय गठित करने वाला राज्य

जीवन की पहली आवयश्कता भोजन और दूसरी दवा होती है। फ़िर कोई अन्य जरूरते। किसी संपन्न और खुशहाल प्रदेश के लिए नितांत जरूरी है, कि सूबे में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क रूपी मूलभूत सुविधाओं के लाले न पड़ते हो। अब अगर मध्यप्रदेश की बात की जाएं, तो सूबे में शिक्षा व्यवस्था भ्रष्टाचार के जंजाल में ओझिल दिखती है। स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए डाक्टरों की कमी है। सूबे के नौनिहाल जो भावी भविष्य हैं, सूबे का। वे कुपोषण के अगोश में लिपटे हुए है। फिर यह कैसे उम्मीद की जाएं, कि सूबें की स्थिति सुदृढ़ और समुचित विकास की राह पर अग्रशर है। शिक्षा और स्वास्थ्य समाज और देश की प्रारंम्भिक नींव होती है, अगर वहीं नींव ही दरक रही है। उस परिवेश में कैसे उज्जवल भविष्य की रूपरेखा सूबे में खींची जा रही हैं? कुपोषण सूबे के लिए आम बात हो गई है।

देश में सबसे अधिक शिक्षकों की कमी में 2016 के रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश राजस्थान के बाद दूसरे स्थान पर है। फिर हमारे समाज के भविष्य की रूपरेखा तय करने वाले नीति-नियंता किन अंधेरी गलियों में जमीनदोज हो गए है? यह सवाल लाजिमी बनता है। सूबा एक ओर शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहा है। दूसरी तरफ दृष्टि डालें, फिर दिखता है, कि सर्वशिक्षा अभियान, मिड-डे-मिल के नाम पर लाखों- करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहे है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन के पष्चात् भी बच्चों का सरकारी स्कूलों तक न पहुँचना सूबे की शिक्षा और स्वास्थ्य नीतियों की पोल खोलने के साथ दाल में कुछ काला होने का संकेत देते हैं।

प्रदेश में कुपोषण जैसी समस्या आम है, वहीं दूसरी ओर प्रदेश में प्रशासकीय प्रतिवेदन 2016 के मुताबिक दो हजार के करीब विषेशज्ञ डाक्टरों की कमी है। अगर अरबों रूपए खर्च करने के पष्चात् सूबे की स्वास्थ्य सेवाएं जनता के सामने ओझल नजर आती है। फिर यह सवाल उठता है, कि आखिर जनता द्वारा चुकाएं जा रहें टैक्स आदि को व्यर्थ में कहां बहाया जा रहा है? अगर जिला अस्पतालों में बीमारियों से निपटने के पर्याप्त इंतजाम नहीं है, फिर दोष किसे दिया जाएं?

नीति-निर्माता को या किसी अन्य को। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सूबे के 51 जिलों के 250 अस्पतालों में डाक्टरों की कमी है। इसके साथ सूबे में स्वीकृत 3266 प्रथम श्रेणी डाक्टरों में से 2044 पद खाली है। वही प्रदेश में चिकित्सा अधिकारियों के लगभग दो हजार पद रिक्त है। प्रदेश में 2015 के कुल बजट में स्वास्थ्य का प्रतिशत मात्र चार फ़ीसद था। जो 2016 में घटकर लगभग साठे तीन प्रतिशत पर आ गया । और अगर बात की जाएं, तो पिछले एक दशक से स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट का मात्र तीन से चार फीसद ही खर्च होता आया है। फिर स्वास्थ्य प्रदेश की परिकल्पना कैसे की जा सकती है?

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896