अभी इस बात पर बहस जारी है कि सरकार या न्यायालयों को लोगों की आस्था और विश्वास के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कुछ मुद्दे धर्म आधारित हैं तो कुछ परम्परा और रूढ़ि आधारित तथापि यह एक बहस का मुद्दा हो सकता है किन्तु हमारे समाज में आज भी बहुत सी दकियानुसी बातें प्रचलित हैं और इनका समर्थन धर्म की आड़ लेकर किया जाता रहा है जबकि इनके समर्थक लोग भी जानते हैं कि वे बुराईयों का समर्थन कर रहे हैं किन्तु धर्म प्रमुखों के प्रभाव के कारण उनमें विरोध करने का साहस नहीं रहता है।संभवतः इसका कारण हमारा रीति-रिवाजों,परम्पराओं और रूढ़ियों से लगाव भी है। यह भी सर्व ज्ञात तथ्य है कि पुराना आसानी से छोड़ा नहीं जाता और नया स्वीकारा नहीं जा सकता।ऐसा नहीं है कि हमारा समाज ही पूरी तरह से परम्पराओं से बंधा हुआ है, कमोबेश विश्व समुदाय कहीं न कहीं अपने-अपने रीति-रिवाज ,परम्पराओं और रूढ़ियों से जुड़ा हुआ है और इन्हें सहजता से छोड़ भी नहीं पाता है।ब्रिटिश जन तो सर्वाधिक परम्परावादी रहे हैं अर्थात कट्टरता की सीमा तक!मुस्लिम समाज और ईसाई धर्मावलम्बी भी अपने धार्मिक मामलों तथा मान्यताओं के सम्बन्ध में अत्यधिक संवेदनशील और कट्टर हैं।ऐसी स्थिति में दकियानुसी मानसिकता तथा पुरातनपंथी घर कर जाती है, व्यक्ति आसानी से अपने रीति-रिवाजों ,परम्पराओं,रूढ़ियों को छोड़ नहीं पाता है।यह भी तथ्यपरक है कि सभी रीति-रिवाज ,परम्पराएँ,रूढ़ियाँ पिछड़ेपन की निशानी नहीं है। आखिर परम्परा हैं क्या?परम्परा वह व्यवहार है जिसमें वर्तमान पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की देखा देखी करते हुए उनके रीति -रिवाजों का अनुकरण करती है; यानी प्राचीन समय से चली आ रही रीति,परिपाटी को मानते रहना अर्थात वे घटनाएँ,बातें या कार्य जो एक-एक कर क्रम से अनुक्रम में चली आ रही हैं, वही परम्परा है।अब हो सकता है कि बहुत से लोग परम्परा निष्ठ होते हैं जो कि परम्पराओं में निष्ठा रखते हों, परम्पराओं का निष्ठापूर्वक पालन करते हों।कुछ लोग परम्पराभंजक भी होते हैं जो पुरानी रीतियों -परम्पराओं को सड़ी-गली करार देते हुए उन्हें नकारने और तोड़ने में विश्वास रखते हों।इस तरह से ये अपने आप को आधुनिक साबित करना चाहते हों लेकिन देखा यह भी गया है कि कई लोग पुरातनपंथी या दकियानुसी न कहलाने के चक्कर में तथा स्वयं को आधुनिक साबित करने की चाह रखते हुए न तो इधर के रह पाते हैं और न ही उधर के रह पाते हैं।यानी न तो आधुनिक ही हो पाते हैं और न ही रूढ़िवादी या कहें कि परम्परावादी रह पाते हैं। सीधी सी बात है कि अधिकांश लोग अपनी पुरातन सभ्यता एवं संस्कृति का पूरी तरह से परित्याग नहीं कर पाते हैं।कई पुरानी परम्पराऐं अच्छी भी हैं जो समाज में एक-दूसरे को जोड़े रखती हैं, ऐसे में इनका परित्याग किया जाना संभव भी नहीं है।इसी तरह से रस्म-रिवाज की बात करें तो ये ऐसी परम्पराऐं हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी मानव सभ्यता में चली आ रही है।पुरानी लीक पर या कहें ढ़र्रे पर चलने वालों को ही परम्परावादी या रूढ़िवादी माना जाता रहा है जो अपने स्थापित रीति-रिवाजों को नहीं छोड़ पाते हैं। रूढ़िवाद सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत एक ऐसी विचारधारा है जो पारम्परिक मान्यताओं का अनुकरण तार्किकता या वैज्ञानिकता के स्थान पर केवल आस्था ,विश्वास और पूर्व अनुभवों के आधार पर करती है।यह चिरकाल से प्रचलित मान्यताओं और व्यवस्था के प्रति दृढ़ रहकर नवीन विचारों और संस्थाओं को अपनाने का समर्थन नहीं करती है। इस लिहाज से देखें तो भारतीय समाज पूर्ण रूप से परम्परावादी रीति-रिवाजों पर दृढ़ रहने वाला तथा रूढ़िवादी नहीं है।हमने कई अच्छी बातों को स्वीकारा है तो कई बुराईयों का परित्याग भी किया है।हिन्दू समाज इस मामले में अग्रणी रहा है। यहाँ मूल प्रश्न यही है कि क्या व्यक्ति को अपने रीति-रिवाज,परम्पराओं,रूढ़ियों का परित्याग कर आधुनिक जीवन शैली को अपनाते हुए सभी नवीन विचारों-मान्यताओं को पूरी तरह से आत्मसात कर लेना चाहिए या फिर अपनी पुरानी मान्यताओं,रूढ़ियों और परम्पराओं से बंधे रहना चाहिए।जहाँ हमारा समाज बहुलतावादी और बहुसंस्कृति का मिश्रण होकर उनका पोषक है वहीं स्वाभाविक है कि स्थापित मान्यताओं और विचारों में स्थायित्व संभव भी नहीं है तथापि आधुनिक दृष्टिकोण तथा तार्किकता के आधार पर अपने रीति-रिवाज ,परम्पराओं और रूढ़ियों को तौलना चाहिए।कई मान्यताएँ तात्कालिक परिस्थितियों की देन रही हैं और उन्होंने रीति रिवाज,परम्परा का रूप धारण कर लिया अर्थात देश,काल और परिस्थितियाँ भी रीति रिवाजों और परम्पराओं को जन्म देती हैं लेकिन यह तत्कालीन परिस्थिति के लिहाज से तर्कसंगत हो सकती हैं किन्तु उनकी निरन्तरता के लिए वर्तमान हालातों के आधार पर ही विचार किया जाना चाहिए।कुछ परम्पराएँ तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती अतः उन्हें त्याज्य देने में कोई बुराई भी नहीं है लेकिन कई रीति-रिवाज और परम्पराएँ वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी उतरी हैं,साथ ही सामाजिक ताने-बाने को एक सूत्र में रखने की दृष्टि से भी स्थापित विचार एवं मान्यताएँ बहुपयोगी साबित हुए हैं।अतः पूर्ण रूप से उनका तिरस्कार भी नहीं किया जा सकता। अतः जीवन में स्वयं को इतना आधुनिक होने या दर्शाने के फेर में हम सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न न कर बैठें,साथ ही नवीन विचारों,व्यवहारों और संस्थाओं को अपनी पुरातन मान्यताओं और परम्पराओं की श्रेष्ठता साबित करने के उद्देश्य से खारिज भी न कर दें।गुण-दोषों के आधार पर भी स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता का निर्णय किया जाना चाहिए।अंधभक्ति या अंधानुकरण प्रत्येक दृष्टि से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।ऐसी स्थिति में परम्पराओं और रूढियों का आदर करते हुए आधुनिकीकरण से सामञ्जस्य स्थापित किये जाने की चुनौती हमें स्वीकारना होगी,तभी हम बेहतर समाज की स्थापना में मददगार सिद्ध हो सकेंगे।
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