धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सब सत्य विद्याओं से युक्त ईश्वरीय ज्ञान वेद का अध्ययन-अध्यापन सब आर्यों का परम धर्म

ओ३म्

सारा संसार इस तथ्य से परिचित है कि वेद वैदिकधर्म का प्रमुख धर्मग्रन्थ होने सहित संसार का आदि ग्रन्थ है। वेद की विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के पालन को ही वैदिक-धर्म कहते हैं। वेद की सबसे प्रमुख विशेषता है कि यह किसी मनुष्य वा ऋषि मुनि द्वारा प्रणीत ग्रन्थ नहीं है अपितु वेद में विद्यमान समस्त ज्ञान व शब्दावली ईश्वर द्वारा प्रादुर्भूत है। विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि यह सृष्टि जड़ पदार्थ सूक्ष्म प्रकृति के कणों से बनी है। जड़ पदार्थों में बुद्धि तत्व वा ज्ञान नहीं होता। सृष्टि की रचना बुद्धिपूर्वक की गई स्पष्ट दिखाई देती है। अतः इसकी रचना करने वाली सत्ता जड़ न होकर चेतन व सर्वज्ञ अर्थात् श्रेष्ठ व उत्तम बुद्धि से युक्त है। सृष्टि की विशालता भी उस चेतन सत्ता को निराकार, सर्वव्यापक व सबसे बड़ी सत्ता अर्थात् ब्रह्मा सिद्ध करती है। सृष्टि की रचना इसके रचयिता द्वारा ज्ञान पूर्वक की गई है, अतः मनुष्य को ज्ञान भी उस सृष्टिकर्ता से ही प्राप्त हो सकता है। मनुष्य की जीवात्मा व उसकी क्षमताओं पर विचार करें तो यह अति सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम और अल्पज्ञान युक्त सत्ता है। अतः इससे न तो सृष्टि बन सकती है और न ही इसे पूर्ण ज्ञान हो सकता है। वेद में जो ज्ञान है वह मनुष्यों के द्वारा रचित नहीं हो सकता। इसलिए यह सिद्ध होता है कि वेद में संसार व अध्यात्म विषयक जो यथार्थ ज्ञान दिया गया है वह सृष्टिकर्ता से प्रादुर्भूत वा उसकी रचना ही हो सकता है। चार वेद संहिताओं में निहित ज्ञान को ही वेद कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से देश के सभी वैदिक विद्वान वा ऋषि आदि वेद विषयक इन्हीं मान्यताओं को मानते आये हैं।

वेदों में प्राप्य ईश्वर के स्वरूप का ऋषि दयानन्द ने अपने लेखों में अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है। हम यहां आर्यसमाज के दूसरे नियम से ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर का यह स्वरूप व गुण, कर्म और स्वभाव उपासना करने योग्य हैं जिससे मनुष्य को स्वगुणवर्धन व अवगुणत्याग में लाभ होता है। ईश्वर मनुष्यों के कर्मों का फलदाता भी है। यह बात नियम में न्यायकारी शब्द में निहित है। ईश्वर का एक प्रमुख गुण उसका सर्वज्ञ होना है। यह उसके अन्य सभी गुणों से स्पष्ट प्रतीत होता है। यह सृष्टि ईश्वर के सर्वज्ञ होने का प्रमाण है। सर्वज्ञ वा सर्वज्ञानमय होने के कारण ही ईश्वर में समग्र ज्ञान व सर्वोत्कृष्ट भाषा का होना भी निहित है। अतः जिस प्रकार से परमात्मा ने सभी प्राणियों को उनके कर्मानुसार मनुष्यादि शरीर रचकर दिये हैं उसी प्रकार से ईश्वर ने ही मनुष्य के ज्ञानादि अवयवों, अंगों-प्रत्यंगों को सार्थक सिद्ध करने के लिए सर्वश्रेष्ठ ज्ञान एवं भाषा के रूप में वेद ज्ञान भी दिया है। वेदों की रचना, भाषा, विचार और भाव सामग्री के आधार पर ईश्वर ज्ञान सिद्ध होती है।

किसी भी मनुष्य को सबसे अधिक कौन जान सकता है? इसका उत्तर हमें यह मिलता है कि सभी मनुष्य अपने सभी गुणों व अवगुणों को पूर्णरूपेण जानते हैं। अतः दूसरों की अपेक्षा मुनष्य स्वयं को सर्वाधिक जानता है। जब तक मनुष्य अपने सभी गुणों को दूसरों को न बतायें अथवा आत्मकथा आदि लिखकर प्रकट न करें तब तक दूसरे लोग इष्ट मनुष्यों के बारे में नहीं जान सकते। इसी प्रकार से ईश्वर को दूसरे मनुष्य उतना नहीं जान सकते जितना कि ईश्वर स्वंय अपने आप को जानता है। यदि मनुष्य वेदों के बिना चेष्टा करेंगे तो ईश्वर विषयक उनका ज्ञान कुछ कुछ सत्य होने पर भी अधिकांश में वह भ्रम व कल्पनाओं पर आश्रित होगा जिसे प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। सभी मत-मतान्तर इसी दोष से ग्रसित है। वेदों में ईश्वर के सभी गुणों का पूर्ण प्रकाश उपलब्ध होता है जो विचार व विवेचन से यथार्थ सिद्ध होता है। योगीजन समाधिस्थ होकर ईश्वर के उसी स्वरूप को प्राप्त होते हैं व अपने प्रवचनों में उपदेश करते हैं। इससे ईश्वर वेदों में अपने स्वरूप को स्वयं प्रकाशित करने वाला सिद्ध होता है जिस कारण वेद ईश्वरीय ज्ञान माने जाते हैं। संसार में अनेक मत-मतान्तर एवं मजहब आदि हैं जिनके अपने अपने मत पुस्तक हैं। यह अधिक प्राचीन नहीं हैं। कोई दो हजार तो कोई 1500 वर्ष या 300 वर्ष पुराना है। इन सभी मतों की पुस्तकों में ईश्वर का वैसा शुद्ध स्वरूप उपलब्ध नहीं है जैसा कि वेदों के अध्ययन करने से जाना जाता है। इस कारण से वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान सिद्ध होते हैं जबकि अन्य जनश्रुति व कल्पनाश्रित हैं।

ईश्वर का स्वरूप सर्वज्ञ वा सर्वज्ञान-विज्ञानमय है। इसी कारण वह सृष्टि की रचना कर उसमें विज्ञान के सभी नियमों को उपस्थित व प्रदर्शित करता है। सृष्टि विषयक उन नियमों को जो जानता है वह ज्ञानी व वैज्ञानिक कहा जाता है। हमारे आज कल के वैज्ञानिक भी सृष्टि का अध्ययन करते हैं। वह परमात्मा प्रदत्त बुद्धि से सृष्टि के नियमों को जितना जान पाते हैं उसी सीमा तक वह वैज्ञानिक कहे जाते हैं। कोई वैज्ञानिक वनस्पति विज्ञान का अध्ययन कर वनस्पति विज्ञान में कार्यरत नियमों को जान पाता है तो कोई शरीर विज्ञान, कोई सृष्टि विद्वान तो कोई पदार्थ विज्ञान आदि आदि। वैज्ञानिक जिन नियमों को अध्ययन व प्रयोगों के द्वारा जान पाते हैं वह सब नियम सृष्टि में ईश्वर के द्वारा ही प्रकाशित किये गये हैं। सृष्टि में कार्यरत नियम अन्य किसी ईश्वरेतर सत्ता के द्वारा व स्वमेव प्रकाशित नहीं हुए है। इस कारण से ईश्वर सर्वज्ञानमय तथा उसके द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान व उस ज्ञान की पुस्तक वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक कही जाती हैं। सभी विद्याओं का वेदों में बीज रूप में ज्ञान उपलब्ध भी होता है। इस विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ लिखकर इस विषय को स्पष्ट किया है। आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने भी वेद और विज्ञान विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। इनमें पदमश्री सम्मान प्राप्त डा. कपिलदेव द्विवेदी और पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी की पुस्तकें पठनीय हैं।

प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य वेदों का अध्ययन व अध्यापन अर्थात् पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना का काम क्यों करे? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य वा जीवात्मा ज्ञान व कर्म करने की प्रवृत्ति व क्षमता रखने वाली सत्ता का नाम है। ज्ञान की प्राप्ति आत्मा का स्वाभाविक गुण है। ज्ञान ही सब सुखों का आधार भी हैं। प्रत्येक मनुष्य जीवन में सुख व समृद्धि की कामना करता है। यह उसे वेदादि ज्ञान सहित पुरुषार्थ अर्थात् कर्म करने से प्राप्त होते हैं। ज्ञान के प्रचार व प्रसार से सत्य का विस्तार होता है जिससे मनुष्य असत कर्मों को छोड़ते व सत कर्मों के आचरण में प्रवृत्त होते हैं। सत कर्मों की वृद्धि से मनुष्य, परिवार, समाज, देश व विश्व में सुख-शान्ति विद्यमान रहती है जबकि असत कर्मों की वृद्धि से समाज में हिंसा, अधर्म, दुःख आदि का विस्तार होता है। अतः वेदों के प्रचार प्रसार से समाज सुदृण एवं सुव्यस्थित होकर सुखों से पूरित होता है। इसी कारण से वेद के प्रचार व प्रसार अथवा उसके अध्ययन-अध्यापन को सामान्य धर्म नहीं अपितु परम धर्म कहा जाता है। महाभारत काल से भी पूर्व विश्व के अधिकांश लोग वेद वा वैदिक धर्म का पालन करते थे जिससे संसार में आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुख व शान्ति थी। लोग ईश्वर को जानते थे और उसकी उपासना करते थे। वायु की शुद्धि व रोगरहित रहने के लिए यज्ञ व अग्निहोत्र किये जाते थे। ईश्वरोपासना में स्वाध्याय और यज्ञ में विद्वानों का संगतिकरण करना आवश्यक माना जाता है। इससे समाज उन्नत व ज्ञान विज्ञान से युक्त होता था। आज भी इस परम्परा को प्रवृत्त करने की आवश्यकता है जिससे अविद्या व अज्ञान का नाश किया जा सके। यदि संसार में वेद का प्रचार व प्रसार होगा तो इससे मिथ्या मत-मतान्तर व मजहब आदि समाप्त होंगे और विश्व में सुख शान्ति अर्थात् राम-राज्य का वातावरण उत्पन्न होगा। सुख व समृद्धि से युक्त रामराज्य को आदर्श राज्य माना जाता है। वह स्थिति केवल वेदों के अध्ययन-अध्यापन व प्रचार प्रसार कर अविद्या के नाश से ही उत्पन्न हो सकती है। देश आदर्श देश बन सकता है। लोग सुखी व बलवान हो सकते हैं। पक्षपात व अन्याय समाप्त हो सकता है। सामाजिक असमानता दूर होकर छोटे-बड़े व ऊंच-नीच की भावना वा भेदभाव समाप्त हो सकते हैं। राक्षस व अनार्य प्रवृत्ति दूर होकर आर्यत्व अर्थात श्रेष्ठ मानवीय गुणों का विस्तार हो सकता है। अतः वेदों का प्रचार व उसके अनुसार आचरण मनुष्य का कर्तव्य व परम धर्म है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य