दंगा
भाषणों का जहर घुला था
मनभावन एक शहर जला था।
हो रही थी अनर्गल बातें
जय जयकारों का शोर मचा था।
फिर शब्दों के बाण छूटे
और द्वेश की एक लहर उठी।
जैसे शांत खड़ी उस भीड़ की
संयम की मर्यादा टूटी।
कल तक जो भाई थे
उनपे भाई ने आज प्रहार किया।
प्रतिउत्तर में भाई ने
अपनों का संहार किया।
खूब चले लाठी-डंडे
मानवता का अंतिम-संस्कार हुआ।
जैसे अपनेपन का राग यहां
एक क्षण में था बेकार हुआ।
नेताओं की चक्की में
जानें मजलूम कितने पीस गये।
इस जात-पात के दंगे में
बस आम जन हैं घिस रहें?
इस तर्क बिहीन लड़ाई में
कुछ ऐसे लोग बेजान हुए
जो न थे इस जात न उस जात के
थे पेट की ज्वाला में हलकान हुए।
अब मातम उन घरों का देखने
नहीं कोई है जा रहा?
आज भी मासुम वहां बिलखते हैं
उनकी खबर न कोई लगा रहा।
मुकेश सिंह
सिलापथार,आसम।
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