सामाजिक

लेख– वृक्ष जीवन का आधार, तो इसे संरक्षित करना हमारा धर्म बने

पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों में हवा, पानी, मिट्टी, खनिज, ईंधन, पौधे और पशु-पक्षी शामिल हैं। इन संसाधनों की देखभाल करना और इनका सीमित उपयोग करके ही प्रकृति का संरक्षण किया जा सकता है। और आने वाली पीढ़ी को सुंदर प्राकृतिक परिवेश। लेकिन वर्तमान दौर में विकास की अंधी दौड़ में इनके संरक्षण के प्रति लोग वफादार नहीं, जिस कारण कहीं तापमान में तीव्र वृद्धि, कहीं मूसलाधार बारिश और कहीं जलजला आ रहा है। इस चराचर जगत में हर वस्तु की अहमियत है, इस लिए इस धरा पर हर उस वस्तु के प्रति सामंजस्य बनाकर चलना होगा, जो जीवन के लिए उपयोगी है, क्योंकि प्रकृति, संसाधन और पर्यावरण हमारे जीवन और अस्तित्व का आधार हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता की उन्नति ने हमारे ग्रह के प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत बुरा असर डाला है। इसलिए आज प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण नितांत आवश्यक बनता जा रहा है। आधुनिक समय में जनसंख्या वृद्धि के परिणाम स्वरूप जंगलों का विनाश बढता जा रहा है। जो आने वाले वक्त में मुसीबतों को न्योता देने वाला है। लोग विकास की चाहत में शायद यह भूल गए हैं, कि पेड़ हमारी जिंदगी का आधार हैं। पेड़ों से हमें जीवनदायिनी वायु ही नहीं मिलती, बल्कि इस धरा पर जो संतुलन बनता है, उसका वाहक वृक्ष ही बनते हैं, साथ में पेड़ों और जंगलों से हम अपनी काफी ज़रूरतों को पूरा कर पाते हैं।

पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में एक फ़ीसद वन क्षेत्र बढ़ा है, लेकिन अगर राज्यों में वन घट रहे तो यह शुभ संकेत नहीं। फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक भले ही बीते दो वर्षों में 6778 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र बढ़ गया हो, लेकिन मध्यप्रदेश सुबे में वन क्षेत्र में कमी आना चिंता का विषय है। वह भी यह उस दरमियान में हो रहा है, जब मध्यप्रदेश सूबे की रहनुमाई व्यवस्था पेड़ो को लगाने के लिए तत्प्रता से आगे आ रहीं है। किसी भी देश की सबसे बड़ी संपदा जंगल और ज़मीन ही होती है, लेकिन अगर सूबे में पिछले दो वर्षों में 12 वर्ग किलोमीटर जंगल घट गए, तो यह आने वाले वक्त के लिए ख़तरे की निशानी है। सूबे में जंगल की कटाई का मुख्य कारण खेती के लिए वन की कटाई, डूब क्षेत्र के लोगों को बचाने के लिए, जंगलों के पास के शहरों के विस्तार के लिए, हाईवे प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने औऱ वैध-अवैध माइनिंग वनों के क्षरण का कारण हैं।

इसके अलावा अगर संयुक्त राष्ट्र की खाद्य और कृषि संगठन की एक रिपोर्ट कहती है, कि हमारे देश में रोपे जाने वाले पौधे में से 35 फ़ीसद बढ़ नहीं पाते, तो यह भी चिंता की बात है। साथ में जो घनघोर वन क्षेत्र वन्यजीवों की शरणस्थली होते हैं, वो कम हो रहा, वह भी प्राकृतिक असंतुलन को उत्पन्न कर रहा है। इसके साथ अगर पूर्वोत्तर के छह राज्यों में वन क्षेत्र घटा है, तो मतलब साफ़ है, इस बार एक फ़ीसद वन बढ़ोतरी पर इतराया नहीं जा सकता, क्योंकि इसबार 589 से बढ़ाकर जिलों की संख्या 633 हो गई थी। तो अगर मानव समाज को अपनी आने वाली पीढ़ी को अच्छा समाज देना है, तो देश और प्रदेश हर जगह वन क्षेत्र को बढ़ाने पर बल देना होगा। शहरीकरण और विकास के नाम पर वनों और पेड़ो की बलि रोकना होगा। हर कार्य रहनुमाई व्यवस्था का नहीं होता, समाज को भी कुछ जिम्मेदारी उठानी होगी। तो फ़िर से चिपको आंदोलन की तरफ़ देश, समाज को बढ़ना होगा।

जंगलों के ही कारण बारिश होती है लेकिन तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या के कारण मानव अपनी जरूरतों के लिए अंधाधुंध जंगलों का विनाश कर रहा है। इसी कारण से आज जंगलों का अस्तित्व खतरे में है। नतीजतन मानव जीवन खतरे में पड़ता दिख रहा है। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में हर वर्ष 1 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र काटे जाते हैं। और भारत में भी वनों की कटान तेजी से बढ़ रही है। शहरीकरण का दबाव, बढ़ती आबादी और तेजी से विकसित होने की चाहत, औऱ जीवन में हर सुख- सुविधा की चाहत ने हमें हरी-भरी जिंदगी से वंचित करना शुरु कर दिया है। वनों की कटाई से मिट्टी, पानी और वायु क्षरण होता है। जो धरा के संतुलन को बिगाड़ने का कार्य करती है। शायद यह आज का मानव भूल गया है। घटते जंगल और पेड़-पौधे ही बाढ़-सूखा, मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में कमी, वायु प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग के साथ पशु-पक्षियों की प्रजातियों की विलुप्तिकरण का कारण हैं। यह भी मानव समाज शायद भूल रहा।

जल स्तर में कमी के साथ आदिवासियों के जीवन चक्र को रोकने का कार्य वनों की बढ़ती विनाशलीला ने किया है। आज के दौर में भले ही आधुनिक समाज की सोच ने जंगल के विनाश को जीवन के लाभ का उद्देश्य बना लिया है, लेकिन उन आदिवासियों का क्या जिनके लिए जंगल ही जीवन शैली है। साथ-साथ आजीविका का साधन भी। ऐसा माना जाता है, कि अगर बागी आदिवासी प्रसव के दौरान पेड़ों की छाल का उपयोग करते हैं। इसके अलावा छाल हटाने से पहले वे वृक्षों को चावल, दाल की भेँट देते हैं, और फिर वे वृक्ष भगवान की प्रशंसा में धूप और मंत्रों के साथ पेड़ की पूजा करते हैं। तो अगर ऐसे जंगल नष्ट होते रहे तो ऐसी जनजातियों औऱ उनकी प्रथाओं का क्या होगा। तो अगर वृक्ष और जंगल ही जीवन का आधार है, तो उसे अपने शरीर से बढ़कर महत्वा देनी होगी। भारत अगर विश्व मे जैव विविधता में 17 वें स्थान पर आता है, तो वह आज के वक्त में जनजागरण से ही बचा रह सकता है। आज वनों के विस्तार के लिए सम्यक नीति और नियत की ज़रूरत है, तो क्यों न जंगल और पेड़ो की रक्षा करना न केवल हमारा कर्तव्य हो बल्कि उसे आज का समाज अपना धर्म बनाएं। और अगर सिक्किम देश के सबसे स्वच्छ और हरित प्रदेशों में शुमार है। 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य का लगभग 47 फ़ीसद हिस्सा वनाच्छादित है। यहां वनों से रिश्ता रखने की पुरानी परम्परा भी रहीं है। इसके अलावा अब सिक्किम सरकार ने पेड़ो के साथ मानवीय रिश्ते की सरकारी मान्यता दे दी है। यह उस प्रदेश में हो रहा है, जो देश का सबसे वनाच्छादित राज्य है, तो क्या अन्य राज्यों और देश को इससे कुछ सीख लेने की ज़रूरत नहीं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896