राजनीति

लेख– युवा, समाज और राजनीति

शायद आज की युवा राजनीति में इंकलाब की गूंज ठंडी पड़ गई है। युवा किन्हीं कारणवश सिर्फ़ कहने को युवा रह गए हैं। ऐसा इसलिए कि आज युवाओं की पूछ उस देश में कमतर हो रही है, जिस देश की रहनुमाई व्यवस्था भी युवा शक्ति की नुमाईंदगी तो करता है, लेकिन राजनीति करने का अवसर नहीं देती। युवाओं का काम यह नहीं, कि वह जाति, मज़हब और धर्म की बेड़ियों में उलझा रहे, ग़लत कार्यों का निष्पादन करें। युवा तो वो होता है, जो देश और समाज हित के लिए जोखिम उठाने की हिम्मत औऱ साहस रखता है, लेकिन सरकारी तंत्र में बढ़ते परिवारवाद औऱ बढ़ती बेरोजगारी ने आज के युवाओं को अपंग बना दिया है। जिस कारण आज का युवा वैचारिक रूप से भगत सिंह जैसे व्यक्तित्व को बिसार चुका है। इतिहास के पन्नों को उलट-पुलट कर देखा जाए, तो तारीख़ ही नहीं तवारीख़ भी बदल गई है। सुंदर भारतीय इतिहास के पन्नों पर भुखमरी, भ्रष्टाचार, जाति, धर्म के नाम पर खून के प्यासे रोगों की अनैतिक विषवेल समाज में पनप गई है। किसने की देश की ऐसी तस्वीर? यह सवाल पूछने का वक्त नहीं, बल्कि युवा पीढ़ी को आगे आकर इन सामाजिक विकृतियों को हटाने का समय है। आज हमारा देश जिन सामाजिक बुराइयों की गिरफ्त में है, उससे बाहर निकलने का नया तरीका और विचार युवा पीढ़ी ही ढूंढ सकती है, लेकिन आज का युवा परिवारवाद और जाति, धर्म की राजनीति का शिकार हो रहा है। यह चिंता का विषय है। सिर्फ़ नेता पुत्रों को ही मुख्यमंत्री और राजनीति में प्राश्रय औऱ उत्तराधिकार मिल रहा है, जबकि देश का युवा- नौजवान बेरोजगारी भत्ते और जीवनयापन के लिए चपरासी की नौकरी मिल जाएं, इसलिए दर- दर पुलिस की बेंत खा रहा है। इसके अलावा अगर आज की राजनीति अपने हितोउद्देश्य के लिए युवाओं के पैर में जाति, धर्म का घुंघरू बांध रही है, तो यह उस देश का दुर्भाग्य है, जहाँ की आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा नौजवानों का है।

एक वक्त था, कि मात्र 23 वर्ष की उम्र में भगत सिंह ने देश के विकास के लिए अनेकों सपने देख डाले थे, औऱ आज देश के नौजवान को राजनीति करने के योग नहीं समझा जाता। कहते हैं, किसी देश की तकदीर बदलनी है, तो युवाओं की खेप पैदा करो। फ़िर आज की देशी राजनीति को ऐसा कौन सा रंग चढ़ा, कि वह युवाओं को राजनीति के काबिल नही समझ रही। इतिहास गवाह है, कि देश-विदेश की कोई भी बड़ी घटना बिना युवाओं के सहयोग से संपन्न नहीं हुई है। जयप्रकाश नारायण ने भी संपूर्ण क्रांति का सपना युवाओं के इरादों को भांप कर ही देखा था। युवाओं का जोश, जज्बा और जूनून ये तीन ‘ज’ मिलकर किसी भी कार्य को पूर्ण कर सकते हैं। वंशवाद की बेल उजाड़ सकते हैं, औऱ जातिवाद को धूल-धूसरित कर सकते हैं। जरूरत है, तो सिर्फ़ युवाओं को अवसर मिलने और उनकी ताकत का एहसास दिलाने की। तो क्या आज के वक्त में कोई राजनीतिक जामवंत नहीं बन सकता, जो युवा रूपी आज के हनुमान को उसकी ताकत का एहसास करा सकें। दुर्भाग्य वश कोई ऐसा क़दम उठाना नहीं चाहता, आज की राजनीति में मठाधीश बन बैठे लोगों को सिर्फ़ अपनों की फ़िक्र है, अपने सल्तनत की फ़िक्र है, इसलिए युवा बेहाल है, और राजनीति दूषित होती जा रहीं है।

आज अनगिनत ऐसे सांसद और विधायक है, जो अगर सरकारी नौकरी में होते, तो कब का घर पर बैठ गए होते, लेकिन राजनीति में यह कहकर धूनी रमाए हुए हैं, कि युवाओं में तो राजनीति की समझ नहीं होती। इसलिए हमारा बने रहना आवश्यक है। यह बड़ी दयनीय और अजीबोगरीब बात उस देश के लिए है। जिसने भगत सिंह, राजगुरु और सुभाष चन्द्र बोस जैसी शख्सियत दिया है। राजनीति के पुरोधा इस बात की रट लगाते रहते हैं, कि युवाओं को राजनीति में निर्देशन की जरूरत होती है। ये राजनीति को बदलने का माद्दा तो रखते हैं, लेकिन दिशा देने का नहीं। इसके लिए तो वयोवृद्ध राजनेताओं की जरूरत है, ऐसे में तो यक्ष प्रश्न यह भी बनता है, जब युवा शक्ति में राजनीति का खेवनहार बनने की शक्ति नहीं, फ़िर नेताओं के बेटे क्या जन्म से पूर्व ही राजनीतिक गुण सीख कर आते हैं? जो युवा देश का नाम अपनी क़ाबलियत के बल पर विश्वपटल पर लिख रहा, उसकी क्षमता को कम आंकना आज की राजनीति की सिर्फ़ भोथरी चाल लगती है।

अरस्तु के मुताबिक कुछ आदमी स्वभाव से ही दूसरों पर निर्भर होते हैं, इसलिए सही मायने में उन्हें या तो दास कहा जा सकता है। अथवा ऐसा ही कोई चलता-फिरता प्राणी। लेकिन युवा पीढ़ी किसी की दास बनकर इतिहास में कभी नही रहीं। फ़िर आज क्यों उसे अकर्मण्यता की तरफ़ ढकेला जा रहा है। ऐसा इसलिए भी हो रहा, क्योंकि अपने राजनीतिक अधिकार के प्रति युवा पीढ़ी भी निष्क्रिय हो चली है। उसने समझ लिया है, कि सिर्फ़ राजा का बेटा ही राजा बन सकता है। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। तो अब युवा पीढ़ी को अपने राजनीतिक अधिकार के लिए डॉक्टर, इंजीनियर आदि का मोह छोड़कर आगे आना होगा। यह वक्त की मांग भी है, क्योंकि देश घटिया स्तर के लोगों के हाथ की मैल बनता जा रहा है। ऐसे में बढ़ती सामाजिक बुरी को दूर करने के लिए युवाओं को राजनीति की तरफ़ रुख़ करना होगा। वर्तमान समय में जब दक्षिण यूरोपीय देश सर्बिया 500 युवाओं का एक राजनीतिक नेता प्रोग्राम चलाता है, जिसके तहत देश में लोकतंत्र के पुनरुद्धार के लिए युवा नेताओं की खोज की जाती है। फ़िर ऐसी कोई पहल हमारे देश के भीतर क्यों नहीं होती? जबकि देश की रहनुमाई व्यवस्था नारा भी देती है, नया जोश, युवा शक्ति। इक्वाडोर, एल- साल्वाडोर, सेनेगल और युगांडा जैसे छोटे देशों में युवाओं को राजनीति में अवसर उपलब्ध कराने के लिए सभी विधायिकाओं में उम्मीदवारी की उम्र घटाकर 18  वर्ष निर्धारित की गई है, लेकिन हमारे देश में तो 25 से 30 साल की उम्र क्या 40 से 45 की उम्र में भी बडी मुश्किल से जगह मिलती है। बोस्निया जैसे देश में चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिलने की दशा में चुनाव कानून की धारा 13.7 के तहत सबसे युवा उम्मीदवार को वह सीट मिल जाती है। लेकिन हमारे देश और प्रांतों में डिग्रियां बिक रही हैं, रोजगार नहीं। युवाओं पर नाज है, लेकिन राजनीति में उनका कोई स्थान नहीं। अब इस रवायत को बंद करना होगा, युवाओं की समस्या युवा नेता अच्छे से समझ सकते हैं, और सामाजिक बुराई दूर करने के लिए नया विचार।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896