सामाजिक

लेख– रोजगार के लिए हथेली पर जान लेकर कहाँ तक घूमेगा देश का युवा?

राजनीतिक पृष्ठभूमि दावा करती है, कि हम नित नए विकास के आयाम लिख रहें हैं। साथ में रहनुमाई व्यवस्था के आंकड़े ऐसे बयाँ किए जाते हैं, जैसे हम कितनी सीढ़ियां सामाजिक विकास की चढ़ चुके हैं। पर विकास किस दिशा में हुआ, इसका ज़िक्र हमारी सियासी व्यवस्था करना शायद उचित नहीं समझती। तो इस परिस्थिति में एक बात निर्वाद सत्य समझ आती है, कि हमनें विश्व परिदृश्य पर बहुआयामी विकास के तराने तराशे जरूर हैं, पर आम आदमी की ज़िंदगी में खुशहाली भरने में पिछड़ रहें हैं, और देश के लोग मौत के मुंह में हाथ पेट भरने के लिए डाल रहें। तो मतलब साफ़ है, कि रहनुमाई व्यवस्था अवाम के प्रति संवेदनशील औऱ समर्पित नहीं है। फ़िर चाहें वह आज के दौर की सरकारें हो, या एकाध दशक पुरानी। पिछले दिनों विदेश मंत्रालय के हवाले से एक दुखद ख़बर आई, कि ईराक के मोसुल में फंसे सभी उनतालीस भारतीय नागरिक मारे जा चुके हैं। यह दर्दनाक समाचार जहां आतंकवाद के क्रूर चेहरे को व्यक्त करता है, वहीं हमारे देश में बेरोजगारी के कुरूप होते चेहरे को भी व्यक्त करता है।

यह दुखद घटना हमारे देश के उन सियासतदां के गालों पर सीधा तमाचा है, जो देश को गुमराह औऱ सिर्फ़ दिवास्वप्न दिखते हैं। सभी को रोजगार दिलाने की बात करने वाली व्यवस्था को इन मौतों का कर्ज चुकाना होगा। इसके साथ अगर साढ़े तीन वर्षों तक इस बात को स्पष्ट नहीं किया जा सका, कि आतंकियों के चंगुल से बच निकले हरजीत मसीह की बातें सही थी, या ग़लत। तो लगता तो यहीं है, कि राजनीतिक हित के लिए उन उनतालीस लोगों की मौत पर भी राजनीति हुई। जब आज के समय में विदेश मंत्रालय यह मान रहा है, कि उन उनतालीस परिवारों का दीपक बुझ गया है, तो यहीं बात तो साढ़े तीन वर्ष पूर्व हरजीत ने भी बोली थी। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, कि हमारी सरकार ने अगर हरजीत के बयान के मुताबिक उनकी आंख के सामने ही इस्लामिक स्टेट के आतंकियों द्वारा उन 39 लोगों को मौत के घाट नहीं उतार दिया होगा। तो उनको सुरक्षित देश लाने की कोशिश न की होगी। पर जिस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने इस वारदात को अंजाम तक पहुँचाया। वहां भारत सरकार तो दूर, उस समय तक इराक सरकार की भी पहुंच नहीं थी। वह ऐसा क्षेत्र था, जहां न भारत की कूटनीति कुछ काम कर सकती थी और न ही भारत की सैन्य ताकत। यहां तक कि उस इलाके में भारत की खुफिया उपस्थिति भी नहीं थी। हालांकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि सरकार इस मामले में हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। इस्लामिक स्टेट के कब्जे वाले मोसुल इलाके से उसी दौरान फ़िर भी हमारी सरकार ने केरल की नर्सों को मुक्त कराकर जिस हिसाब से भारत लाई थी, उससे तत्कालीन परिवेश में उम्मीद तो बनी थी, अगर 39 लोग जिंदा होंगे। तो भारत वापस जरूर आएंगे।

पर जिन छह सूत्रों के मुताबिक हरजीत की बात को उस वक्त नकारा गया था, और आज न वे छह सूत्र सार्वजनिक किए जा सकें, औऱ उन लोगों को मृत मान लिया गया। इसका निहितार्थ यहीं है, कि रहनुमाई तंत्र के पास उन उनतालीस लोगों को जिंदा घोषित करने का कोई पुख़्ता सबूत उस वक्त भी नहीं था। जिससे आज विदेश मंत्रालय की बातों की विश्वसनीयता पर हस्तक्षेप हुआ है। यह मामला सिर्फ़ उन उनतालीस लोगों की मौत या जिंदा होने का मामला नहीं था। बल्कि यह भावनात्मक और रिश्तों की भंवर का मामला था, न कि राजनीतिक मुद्दा। अगर इस मुद्दे को राजनीतिक नफ़ा-नुकसान के लिए इतने संशय की स्थिति में रखा गया, तो यह जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ नहीं।

देश एक बार इन मौतों को भूल कर आगे बढ़ सकता है। पर क्या आगे से रहनुमाई व्यवस्था यह प्रण लेगी, कि वह आगे से ऐसे भावनात्मक और जनसरोकार से जुड़े विषयों पर राजनीति न करके सबूतों के आधार पर बात करेंगी। इसके अलावा स्वहित का विषय चयन को राजनीति से इतर रख जनसरोकार से ज़ुड़े मसले हल करने का प्रयास करेगी। अख़बारी पन्नों की सुर्खियां अगर बनती है, कि हमारे देश के नौजवान महज 35 हजार रुपये महीने के लिए मोसुल जैसे मौत के कुंए में जा रहें, तो ऐसे में प्रश्न बहुतेरे उत्पन्न होते हैं। पर उत्तर देना अगर व्यवस्था मुनासिब न समझे, या गुमराह करने की कोशिश करें, तो यह देश की धुंधली तस्वीर लोकतांत्रिक व्यवस्था के समकक्ष प्रस्तुत करती है। पहला प्रश्न अगर कम पैसे में दूसरे देश जाकर लोग पेट के लिए जान को हथेली पर रख कर निकलते हैं। तो क्या माने संसाधनों का विकास देश के भीतर नहीं हो पा रहा। साथ-साथ देश के लोगों को नौकरी करना किन देशों में अच्छा रहेगा, यह भी नहीं बता पा रही। इसके अलावा शायद उन एजेंटों से रहनुमाई तंत्र सज़ग नहीं, जो देश के युवाओं को जोख़िम भरे क्षेत्रो में नौकरी के लिए भेज देते हैं।

आज ईराक ही नहीं, अन्य देशों में भी जान की बाज़ी लगाकर देश के युवा रोजगार की ख़ातिर जाते हैं। ऐसी तमाम दर्दनाक घटनाएं कहानी के रूप में दफ़न हैं, जब युवा रोजगार की ख़ातिर विदेशी भूमि पर जान गंवाता है। चाहें फ़िर बात माल्टा नौका घटना की हो, या कंटेनर में छिपकर जाते भारतीय नागरिकों की दुर्घटना में मौत हो। ये मौत इस बात की बानगी प्रस्तुत करती हैं, कि राजनीतिक नारे के रूप में शाइनिंग इंडिया और न्यू इंडिया का ज़िक्र करने से देश में रोजगार की समस्या ख़त्म नहीं होने वाली। जब तक चुनावी वायदे और सरकारी नीतियां सतही स्तर पर आकर क्रियान्वित नहीं होंगी। तो अगर वर्तमान रहनुमाई व्यवस्था पेट की ख़ातिर ईराक में अपनी जान गंवाने वाले लोगों को श्रद्धांजलि और उन लोगों के घर वालों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करना चाहती है, तो आगे से अपनी तरफ से लगातार ऐसी चेतावनी जारी करें, कि भारतीयों को कामकाज या नौकरी के लिए किन क्षेत्रों में जाना जीवन बने रहने की दृष्टि से सही होगा। साथ में सरकार उन एजेंटों और दलालों पर भी लगाम कसे और निगरानी रखें, जो युद्धग्रस्त और अशांत क्षेत्रों में युवाओं को रोजगार वहां की स्थिति बिना बताए उपलब्ध कराते हैं। सबसे बडी श्रद्धांजलि ईराक में जान गंवाए लोगों के लिए यह होगी, कि देश की व्यवस्था अपने देश में ही सबके लिए सम्मानजनक और पर्याप्त रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएं। तो न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी वाली उक्ति चरितार्थ होगी, और सरकार की किरकिरी भी नहीं होगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896