धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

यज्ञ अग्निहोत्र का स्वरूप व इससे होने वाले लाभ

ओ३म्

यज्ञ श्रेष्ठ कर्म को कहते हैं। इसमें सत्य बोलना, वेद पढ़ना व वेदों का प्रचार करना, माता-पिता, आचार्य व अतिथियों की सेवा करना सहित ईश्वरोपासना एवं यज्ञ अग्निहोत्र-देवयज्ञ सभी कर्म सम्मिलित होते हैं। यज्ञ के अर्थां में देवपूजा, संगतिकरण एवं दान भी सम्मिलित है। देव पूजा का सरल अर्थ देवों की पूजा होता है। देव जड़ व चेतन दो प्रकार के हैं। चेतन देवों में ईश्वर, माता, पिता, विद्वान, आचार्य, परापकारी व देश भक्त लोग, समाज के हितकारी मनुष्यजन व सभी चेतन प्राणी जिनसे हमें व दूसरों को लाभ पहुंचता है वह सभी सम्मिलित हैं। जो विद्वान व महात्मा प्रवृत्ति के लोग दूसरों को अपने अधिकार की निजी वस्तुयें व ज्ञान आदि देते हैं, वह भी देव कहे जाते हैं। जड़ देवताओं में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवी के अग्नि, जल, वायु, वृक्ष, वनस्पति, अन्न व औषधियों के पृक्ष व पौधे आदि सभी आ जाते हैं। इन सभी पदार्थों से हम किसी न किसी रूप में लाभान्वित होते हैं। इनसे हमें जो उपकार व लाभ होता है, उसके बदले में यह हमसे कुछ मांगते नहीं और न हम इन्हें कुछ देते हैं। अतः इनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना व इनसे मिलने वाले लाभों को त्यागपूर्वक भोग करना ही इनकी पूजा है। पूजा का अर्थ सत्कार करना होता है। हम जड़ व चेतन सभी देवताओं का यदि यथायोग्य सत्कार करें तो यह देवपूजा का सत्य स्वरूप होता है। यज्ञ का दूसरा प्रमुख अर्थ संगतिकरण हैं। संगतिकरण में हमें अपने से अधिक, समान व कम ज्ञान वाले लोगों के साथ संगति व मेल जोल करना होता है। अधिक ज्ञान वालों से हम ज्ञान लेते व शंका समाधान आदि करते हैं। समान बुद्धि व सामर्थ्य वालों को यदि ज्ञान व किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो दे सकते हैं और कम ज्ञान वालों को हम ज्ञान आदि देते हैं। इससे देने व लेने वाले दोनों ही पक्ष लाभान्वित होते हैं। हम देते हैं तो हम देवता कहे जाते हैं और हमें उससे सत्कर्म की पूंजी अर्जित होती है और यदि लेते हैं तो जिनसे लेते हैं उनके शुभकर्मों में वृद्धि होती है। संगतिकरण का ही परिणाम है कि आज हम दूसरों के श्रम से उत्पन्न वस्तुओं का उपभोग कर पाते हैं व दूसरे हमारे ज्ञान व कर्मों से लाभान्वित हो पाते हैं। दान ज्ञान, धन, पदार्थ व अधिकारों आदि का होता है। अन्न व वस्त्र आदि का भी दान किया जाता है। किसी की सेवा करना भी एक प्रकार का दान ही होता है। इससे समाज में सुख की वृद्धि और दुःखों की निवृत्ति होती है। ईश्वरीय ज्ञान वेद व ऋषियों के ग्रन्थ मनुष्यों को यज्ञ अर्थात् देवपूजा, संगतिकरण व दान करने की प्रेरणा करते हैं व सबको यह कार्य करने चाहिये।

यज्ञ का एक अंग देवयज्ञ व अग्निहोत्र कहलाता है। अग्निहोत्र में हम एक यज्ञ कुण्ड का प्रयोग करते हैं जिसमें हम आम्र आदि सूखी समिधाओं जो प्रदुषण न करें या कम से कम करें, उनसे अग्नि प्रज्जवलित करते व उसे यज्ञ की समाप्ति तक प्रज्जवलित रखते हैं। इस यज्ञ की अग्नि में हम गोधृत व साकल्य की आहुति देते हैं। यज्ञ का साकल्य चार मुख्य पदार्थों से बनता है। गोधृत तो मुख्य यज्ञ द्रव्य है ही। इसके अतिरिक्त रोगनाशक व पुष्टिकारक ओषधि, वनस्पतियां अर्थात् सोमलता, गुग्गल आदि, शक्कर, केसर कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ तथा सूखे मेवे बादाम, काजू, नारीयल, छुआरा, किशमिश आदि द्रव्य होते हैं। वेदों के मन्त्र जिनका विधान व विनियोग यज्ञ में किया गया है, उनको बोलकर स्वाहा कहकर थोडी मात्रा में घृत व साकल्य को अग्नि पर श्रद्धा के साथ आहूत करते हैं। ऐसा क्यों करते हैं? इसलिये की देशी गाय का घृत रोग नाशक, पुष्टिकारक, प्रदुषण की निवृत्ति करने वाला, विष का प्रभाव नष्ट करने वाला, कीटाणुनाशक, बल वा शक्ति वर्धक, शरीर को स्वस्थ बनाये रखने में सहायक व रोगों से रक्षा करने में उपयोगी होता है। अग्नि में घृत व अन्य पदार्थों को डालने से वह सूक्ष्म होकर अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं। एक मिर्च के उदाहरण से बात को समझ सकते हैं। यदि अग्नि में एक सूखी लाल मिर्च डाल दी जाये तो उसके प्रभाव से वहां व कुछ दूरी तक मनुष्यों का बैठना अशक्य हो जाता है। मिर्च के जलने से उसका प्रभाव अत्यधिक बढ़ने से ऐसा होता है। इससे नाक व आंख से छीकें व अश्रुकणों का प्रवाह होने लगता है जो अत्यन्त कष्टदायक होता है। इसी प्रकार से यज्ञ में साकल्य की भी साथ साथ मन्त्र बोलकर आहुति देते हैं। इससे साकल्य भी अति सूक्ष्म होकर हमारे स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाने के साथ प्रदूषण दूर करने सहित वायु शुद्धि, आकाशस्थ जल की शुद्धि व सूक्ष्म किटाणुओं के लिए लाभप्रद होता है। स्वास्थ्य को तो इससे विशेष लाभ होता ही है। बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं और यज्ञ करने वालों को बहुत से रोग होते ही नहीं।

हमारे सामने देश की भीषण भोपाल गैस त्रासदी का उदाहरण है। जब यह त्रासदी हुई तो विषैली गैस के रिसाव से आसपास के सहस्रों की संख्या में लोग मृत्यु को प्राप्त हुए थे, अन्य बहुत से विकलांग व अनेक रोगों से ग्रसित हो गये थे। एक परिवार दैनिक यज्ञ करता था। वह यज्ञ कर रहा था। उस परिवार पर गैस के रिसाव का कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। हमने पढ़ा है कि उनकी गाय आदि पशुओं को भी यज्ञ का लाभ हुआ व वह भी सब सुरक्षित बच गये थे। यहां हम आर्यसमाज के एक कीर्तिशेष विद्वान पं. वीरसेन वेदश्रमी जी की भी चर्चा करना चाहते हैं। उन्होंने यज्ञों से बहुत से हृदय रोगियों को स्वस्थ किया था। कुछ बहरे व गूंगे लोग भी यज्ञ के प्रभाव से सुनने व बोलने लगे थे। पं. वेदश्रमी जी ने यज्ञ के द्वारा अनेक बार अनेक स्थानों पर वर्षा भी कराई थी जहां वर्षा के मौसम में वर्षा नहीं हो रही थी। उनकी पुस्तक वैदिक सम्पदा एवं याज्ञिक आचार संहित वैदिक साहित्य में महत्वपूर्ण ग्रन्थों में सम्मिलित हैं। यह सब लाभ यज्ञ करने से यज्ञकर्ता वा यजमान को मिलते हैं। यहां इतना ही समझना है कि यज्ञ एक वैज्ञानिक कृत्य है। यह लाभ विज्ञान की प्रक्रिया व सिद्धान्तों के पालन से मिलते हैं। यज्ञ में कहीं कोई किसी प्रकार का अन्धविश्वास नहीं है। इतना अवश्य है कि यज्ञ को ईश्वर का ध्यान करते हुए पूर्ण श्रद्धा भक्ति से करना चाहिये। ऐसा करने पर यज्ञ का अधिक लाभ होता है। वैज्ञानिक अनुसंधानों व परीक्षणों से भी यज्ञ के उपर्युक्त लाभों की पुष्टि हुई है। यज्ञ में गोघृत का प्रयोग होता है। हमने लगभग तीस वर्ष पूर्व सार्वदेशिक साप्ताहिक पत्र में पढ़ा था कि यूरोप की खोजों के अनुसार गाय के गोबर से लीपे हुए घर या कुटिया पर रेडियों धर्मिता का किंचित कुप्रभाव नहीं होता। यज्ञ के वैज्ञानिक स्वरूप व लाभों पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। एक पुस्तक डा. रामप्रकाश जी की यज्ञ विमर्श है। एक अंग्र्रजी पुस्तक ‘अग्निहोत्र’ के नाम से आर्यजगत के सुविख्यात विद्वान स्वामी डा. सत्यप्रकाश सरस्वती जी ने लिखी थी। डा. रामनाथ वेदालंकार जी की यज्ञ मीमांसा भी यज्ञ पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है। यज्ञ पर ऋषि दयानन्द जी ने भी सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में प्रकाश डाला है। उनके लोगों से जो वार्तालाप हुए व उन्होंने जो प्रवचन आदि किये उसमें भी यज्ञ के महत्व व लाभों का उल्लेख आया है। पूना में दिये उनके प्रवचनों में एक प्रवचन यज्ञ पर ही है।

अग्निहोत्र यज्ञ का एक आवश्यक अंग है यज्ञ करते हुए व अग्नि में आहुति देते हुए वेद मंत्रों का उच्चारण। आचमन, इन्द्रियस्पर्श, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण व अनेकानेक आहुतियों को मन्त्र बोल कर अग्नि देवता को घृत व साकल्य की आहुति को समर्पित करना। यज्ञ में विनियुक्त मंत्रों के अपने अर्थ होते हैं। यह अर्थ सभी यजमानों को ज्ञात होने चाहिये। आर्यसमाज में यज्ञों की जो पुस्तकें हैं उनमें से कुछ में यह मन्त्रार्थ दिये होते हैं। इन्हें यज्ञ से पूर्व मन्त्र के पदार्थ सहित पढ़ा जा सकता है व पढ़ लेना चाहिये। मन्त्र यजमान को स्मरण होने चाहिये। जब मन्त्र बोले तो मन यज्ञ, मन्त्र व उसके अर्थ पर केन्द्रित हो वा एकाग्र हो। ऐसा करने से मन्त्रों में की गई प्रार्थनाओं के अनुरूप फल यजमान को ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है। संसार में किसी मत, पन्थ, समुदाय आदि में अग्निहोत्र करने हुए इन उच्च भावनाओं से प्रार्थना करने का विधान नहीं है। इसी लिए शास्त्रकारों का यह अनुमान सही है कि यज्ञ कर्म करने से मनुष्य की आत्मोन्नति होकर मोक्ष प्राप्ति में सफलता प्राप्त होती है। अतः यज्ञ करते हुए वेदमंत्रों को एकाग्रता के साथ बोलकर उनके अर्थों पर भी साथ साथ विचारते रहना चाहिये।

भौतिक पक्ष पर विचार करने पर प्रतीत होता है कि बृहद यज्ञों में अधिक मात्रा में घृत व सामग्री के जलने का लाभ तो होता ही है परन्तु भीड़भाड़ में यज्ञ करने से यजमान व दर्शकों का मन पूर्णतः एकाग्र नहीं होता। उनकी प्रवृत्ति आन्तरिक न होकर बाह्य होने की सम्भावना होती है। इसलिए लाभ भी उसी के अनुरूप होता है। यदि यज्ञ को घर में परिवार सहित बैठकर पूर्ण श्रद्धा व एकाग्रता से करेंगे तो उसका लाभ अधिक होगा, ऐसा हमें प्रतीत होता है। हमने इस लेख में अपने ज्ञान व अनुभव पर आधारित निजी विचार लिखे हैं। कुछ विद्वानों के इससे पृथक भी विचार भी हो सकते हैं। हम आशा करते हैं इस लेख विचारों से पाठकों की यज्ञ विषयक जानकारी में कुछ वृद्धि हो सकती है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य