सामाजिक

लेख– दहेज़ प्रथा एक सामाजिक बीमारी बनती जा रहीं!

उत्तरप्रदेश के बलरामपुर से बीते दिनों एक दर्दनाक सामाजिक घटना अख़बारी पन्नों में आई। ऐसी घटना जिसने यह साबित कर दिया, कि समाज भले इक्कीसवीं सदी में उड़ान भर रहा हो। नित-नए आयाम लिख रहा हो। पर लोगों की सोच और मानसिकता वहीं रूढ़वादी और परम्परागत बने-बनाए लीक पर चल रही है। ऐसे में सवाल तो बहुतेरे है, पर उत्तर न समाज ढूढ पा रहा है, और न ही कानून का डंडा सवालों के उत्तर दे पा रहा है। यहां पर हम बात एक ऐसी सामाजिक कुरीति का कर रहें, जिसे ख़त्म करने की पहल वर्षों से चल रही। पर वास्तविक धरातल पर काम शून्य बटे सन्नाटा तब मामूल होता दिखता है। जब पता चलता है, कि दहेज हत्या के मामले देश में घटने के बजाय बढ़ते जा रहें। हमने शुरुआत में ज़िक्र उत्तरप्रदेश के बलरामपुर से किया था। तो बात को वहीं से आगे बढ़ाते हैं। बीते दिनों बलरामपुर जिले के कुरेवार थाने के सेवरा गांव में सुनील नामक व्यक्ति ने अपनी तीन वर्ष की दुधमुंही बच्ची की नृशंस हत्या कर दी। हत्या के बाद सुनील के साथ क्या घटित हुआ, उसको समझने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि छोटी सी अनन्या जिसने समाज को अच्छे से पहचाना भी नही था, आख़िर उससे क्यों इस दुनिया मे रहने का हक छीन लिया गया। आख़िर उसने इस मरते हुए समय और मानसिकता के दौर में जन्म लेकर कोई गुनाह तो किया नही था! और जब उसका जन्म लेना गुनाह ही था। तो कहते हैं जब किसी का खून करने की सजा तत्काल मौत नही होती फ़िर उसे मौत क्यों मिली।

वैसे अब अगर इस घटना के तार शुरु से अंत तक एक- एक करके जोड़ने की कोशिश करें, तो यह घटना लगभग एक महीने पहले की है। अनन्या की हत्या क्यों हुई। इसका पता लगाने में प्रशासनिक व्यवस्था को लगभग एक महीने का वक़्त लग गया। इससे पता चलता है, कि सबको सुरक्षा देने की बात करने वाली पुलिस व्यवस्था के पैर में कैसे बिल्ली बंधी मामूल पड़ती है, लेकिन आज बात तो किसी ओर विषय की हो रही। हमें अपने विषय को उसी के इर्दगिर्द रखना होगा। हत्या के पीछे की जो जानकारी अनन्या की उभरी है। वह बताई जा रही है, कि उसकी हत्या इसलिए कर दी गई। क्योंकि आगे चलकर उसके परिजन इस स्थिति में अपने-आप को नही देख पा रहे थे, कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दहेज की जो दुकान सजती है। उसकी पूर्ति कर सकें। फ़िर सवाल तो सरकारी नीति पर भी उठनी चाहिए, कि कैसी नीतियां बना रही। जिससे गऱीबी दूर नही हो पा रही। अगर सुनील पांडेय ने अपनी दुधमुंही बेटी की हत्या दहेज़ के डर से कर दी। फ़िर इसने बहुतेरे यक्ष प्रश्न लोकतांत्रिक व्यवस्था और समाज दोनों के सापेक्ष छोड़ें हैं। जिसका उत्तर समाज और व्यवस्था दोनों को ढूढ़ना होगा। तभी अनन्या जैसी लड़कियां इस समाज में रह पाएंगी।

आज वैसे देखा जाए, तो आधी आबादी पुरुषवादी पुरातन विचारों की कोढ़ में दबता जा रहा है। कहने को समाज प्रगतिशील और उत्थान कर रहा। पर शायद आधी आबादी के प्रति समाज की सोच ओर निकृष्ठ होती जा रही है। सुनील पांडेय को अगर यह लगता था, कि पहले बेटी की पढ़ाई-लिखाई पर ख़र्च होगा। उसके बाद शादी में ढेर सारा दहेज़ देना पड़ेगा। तो इसने समाज और व्यवस्था दोनों की कलई खोलने का काम किया है। अगर आज भी ग़रीबी समाज से मिट नही रही। फ़िर दहेज़ जैसी महामारी न जाने कितनी अनन्या उत्पन्न करती होगी। इसके अलावा जब गऱीबी मिट नही रही, और दहेज़ के ढेर से अनन्या जैसी को मौत के घाट उतारा जा रहा। फ़िर सरकारी नारे से देश की आधी आबादी की तक़दीर और तस्वीर नहीं बदलने वाली है। इसके लिए सामाजिक ढांचे में परिवर्तन और क़ानून व्यवस्था को कठोर बनाना होगा। लोगों को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा। दहेज़ प्रथा आज की सामाजिक महामारी बनती जा रही। फ़िर ऐसे में कैसे लिंगानुपात में समानता लाई जा सकती है, और कैसे महिलाओं को समान अधिकार दिलाए जा सकते हैं। कोरे राजनीतिक नारे से आधी आबादी की स्थिति में बदलाव की उम्मीद करना अब सरासर बेईमानी ही लगता है, क्योंकि दहेज़ प्रथा पर रोक के लिए ऐसा नही कानून नहीं। पर न क़ानून सही से काम करता है, और न सामाजिक सोच आज के आधुनिक होते समाज की बदल रही। जिसके कारण हमारे आसपास से अनन्या जैसी लड़कियां उत्पन्न होती रहती है। यहां पर अनन्या के साथ हुआ दर्दनाक हादसा रोंगटे खड़ाकर देता है, क्योंकि उसकी उम्र मात्र तीन वर्ष की थी। इतनी कम उम्र में ही वह दहेज़ के डर से दुनिया छोड़ने को मजबूर हो गई, या उसे मजबूर किया गया।

तो अनन्या की मौत ने हमारी वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के परिपेक्ष्य में एक सवाल ओर छोड़ा है। अगर इसे निर्भया और कठुआ जैसी घटनाओं के परिपेक्ष्य में देखें तो। जो समाज और व्यवस्था बलात्कार की घटना होने पर आग बबूला हो उठता है। वह अगर एक तीन साल की बच्ची के मौत के कारण को जानने के बाद भी घुमशुदगी में रहता है। जैसे समाज में कुछ हुआ ही नहीं। तो यह बताता है, कि शायद समाज ने दहेज़ को मौन स्वीकृति दे दी है। इस परिपाटी में बदलाव लाना होगा। अगर महिलाओं और बच्चियों को बेहतर जीवन पुरुषवादी समाज में दिलाना है, तो। अनन्या की हत्या दहेज़ हत्या का विद्रूप सच है। अगर हम आज कहते हैं, कि लड़कियां समाज के किसी हिस्से में पुरुषों से कमतर नहीं। फ़िर वह चाहें फाइटर प्लेन उड़ाना हो, या अंतरिक्ष मे जाना हो। इन सब के बाद भी परिवार, समाज और व्यवस्था में महिलाओं के प्रति व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता। तो यह हालत काफ़ी दयनीय और चिंतित करने वाली है। दहेज़ हत्या के आँकड़े पर अगर गौर किया जाएं। तो 2012 से 2017 के बीच लगभग 65 हज़ार जानें गई। तो यह समाज के एक ऐसे प्रतिमान के दर्शन कराता है। जिसे बदलने के लिए सामाजिक सोच में बदलाव के साथ सामाजिक मुहिम की आवश्यकता महसूस की जा रहीं है। जब एक लड़की का परिवार अपने पास कुछ न होने की स्थिति में भी अपनी लड़की की खुशी के लिए तमाम साजो-सामान देता है। फ़िर अगर उसके बाद भी ससुराल वाले लड़की का जीवन यातना गृह में तब्दील कर देते हैं। तो क्या गुजरती होगी लड़की और उसके परिवार पर। यह हमारा समाज क्यों नही सोचता। कहते हैं भगवान ने सब अंगुली जब एक समान नहीं बनाई। फ़िर सभी धनवान कैसे हो सकते हैं। तो ऐसे में दहेज़ के लिए किसी की जान लेना कतई सही नही ठहराया जा सकता। दहेज़ प्रथा रोकने के लिए क़ानून बने हैं, लेकिन उसका कोई अर्थ मामूल नही पड़ता। लड़का जितना पढ़ा लिखा हो। उसकी बोली उतनी ही ज़्यादा घर वाले लगाते हैं। दहेज़ हत्या आज गम्भीर बीमारी बन चुकी है। उससे निज़ात पाने के लिए यदाकदा पहल भी हो रही है। लेकिन इतने भर से स्थिति नही बदलने वाली। व्यवस्था को बलात्कार की भाँति दहेज़ हत्या के खिलाफ भी क़दम उठाना होगा। साथ में समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी। तभी दहेज़ के दानव से नवविवाहित महिलाएं बच सकती है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896