लघुकथा

भाषण

विधुर हरिया बच्चों का बिलखना बरदाश्त नहीं कर पाया और हाथ में घड़े लेकर चिलचिलाती धूप में पानी की तलाश में निकल पड़ा । पानी के अभाव में आज उसका चुल्हा ठंडा ही रह गया था लेकिन भूख की आग उसके व उसके दोनों मासूम बेटों के पेट में धधक उठी थी ।  गांव में बने सरकारी कुएं पर गांव के  कुछ दबंगों का ही राज था । उस कुएं की तरफ पलटकर देखने की भी हरिया की न तो औकात थी और न ही थी उसमें हिम्मत, उनसे उलझने की । अब उसकी उम्मीदें टिकी थीं  गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर एक अधूरे बने गड्ढे नुमा कच्चे कुएं पर । इस गहरे गड्ढे नुमा कुएं में पत्थरों पर पैर जमाकर अपनी जान हथेली पर लिये मजदूर बस्ती में रहने वाली महिलाएं नीचे उतरतीं । मजबूरी थी उतरने की क्योंकि ऊपर से डाली गई छोटी बाल्टी भी डूबने जितना पानी गड्ढे में नहीं जमा होता था । नीचे उतरकर आपस में सहयोग करके महिलाएं गड्ढे में जमा पानी अपने घड़ों में भर लेतीं । देर से आनेवाली महिलाओं को मायूस होकर खाली घड़ा लिए कहीं और भटकने को मजबूर होना पड़ता था ।
 हरिया कुएं के पास पहुंच गया । नीचे गड्ढे में जमा पानी देख कर उसे बड़ी खुशी हुई । किसी तरह तीन चार बार कुएं में उतरकर उसने वहां मौजूद छोटे से डब्बे के सहारे एक घड़ा पानी से भर लिया । अब गड्ढे में पानी भी लगभग समाप्त हो चला था । हाथ में पानी से भरा हुआ छोटा सा डब्बा लेकर वह कुएं से बाहर निकलने ही वाला था कि अचानक वह धूल के बवंडर में घिर सा गया । अपने बालों व आंखों  कानों में घुसी धूल को साफ करते हुए उसकी नजर नीचे रखे हुए घड़े पर पड़ी तो उसका कलेजा मुंह को आ गया । घड़ा पूरी तरह से धूलधूसरित हो गया था । घड़े के ऊपरी सतह पर और पानी में भी धूल की मोटी तह आसानी से दिखाई दे रही थी । क्रोध और बेबसी का मिलाजुला भाव लिए उसने धूल के उस गुबार की तरफ देखा जो अब उससे शनै शनै दूर जाता दिख रहा था । उसकी बेबसी को व क्रोध को महसूस करके वहीं से गुजर रहे एक बुजुर्ग नारायण ने हरिया को ढांढस बँधाते हुए कहा ,” अरे भैया ! अब गुस्सा करके क्या करोगे ? जानते नहीं वह टैंकर मंत्री महोदय ने मंगाया है , उस बड़े से मैदान में पानी छिड़कने के लिए जहां उनकी पार्टी के कोई बहुत बड़े नेता हेलीकॉप्टर से आने वाले हैं ….. भाषण देने । “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।