गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल 1

अधर ये  ख़ुश्क, आँखों में नमी अच्छी नहीं लगती ।
उदासी  इस  तरह  से  यार की अच्छी नहीं लगती ।
गुजारा बचपना  जिसमें जहाँ सीखा  सबक पहला,
उसे अब गाँव की अपनी गली अच्छी नही लगती ।
पलट जाते हैं वो पल में सियासत है ग़जब की  शै
सुहागन की कसम उन पे कभी अच्छी नहीं लगती ।
ज़ियारत कर रहे दुनिया के मंदिर और मस्जिद की,
मगर  माँ  बाप  से  यूँ  बेरुख़ी  अच्छी  नहीं लगती ।
रखो  रोजा नमाज़ी बन अदा हक भी करो उसका,
पड़ोसी  से  मगर  ये  दुश्मनी  अच्छी  नहीं लगती ।
पड़ेगी  धूप   गर्मी  में  प्रखर  होगी  तभी   बारिश,
शिकायत मौसमों से आपकी  अच्छी नहीं लगती ।
राजेश प्रखर
ज़ियारत :  तीर्थयात्रा

राजेश श्रीवास्तव 'प्रखर'

राजेश श्रीवास्तव प्रखर कटनी (म.प्र.)