धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर प्राप्ति और गुरु

गुरू अनुभवी होना चाहिये जिससे वह शिष्य की कठिनाइयों को दूर कर सके और उसको कठिन बातों का तात्पर्य बता सके । हिन्दुओं में एक प्रथा है । लोग कहा करते हैं कि जब तक हम गुरू नहीं करते उस समय तक हमको स्वर्ग नहीं मिल सकता । इसीलिये वह गुरू मंत्र ले लेते हैं अर्थात् कोई पण्डित या संन्यासी उनके कान में मंत्र फूंक देता है । इसी को गुरू – दीक्षा कहते हैं । परन्तु यह गुरू – दीक्षा वास्तव में गुरू – दीक्षा नहीं हैं किन्तु ढोंग है । जिस पाखण्डी ने स्वयं ईश्वर-प्राति का कोई साधन नहीं किया वह दूसरे को क्या मार्ग बतायेगा । ऐसे ही गुरूओं के विषय में मुण्डकोपनिषत् (१।२।८।९) में आया है

अविद्यायामन्तरे वर्तमाना:
स्वयंधीरा: पण्डितमन्यमाना:।
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढ़ा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा।
अविद्यायां बहुधा वर्तमाना वयं
कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति वालाः
यत् कर्मिणो न प्रवेदयन्ति
रागात्तेनातुरा: क्षीणलोकाश्च्यवन्ते ॥

अर्थात् अविद्या में फंसे हुये लोग अपने को पण्डित मान कर और यह समझकर कि जो हम कह रहे हैं ठीक है , दूसरों को बहकाते हैं । उनकी वैसी गति होती है जैसी अन्धे के पीछे चलने वाले अंधों की होती है । इनको कभी अच्छी गति प्राप्त नहीं हो सकती।

हम देखते हैं कि जिस प्रकार हिन्दू जाति में आजकल झूठे साधु और संन्यासियों का बहुत आदर है उसी प्रकार ऐसे गुरूओं का भी है । मूर्ख उनको धन देकर गुरू मंत्र ले आते हैं । परन्तु उससे लाभ क्या होता है ? वस्तुत : कुछ भी नहीं । ‘लोभी गुरू लालची चेले’ की लोकोक्ति लागू होती है । यह गुरू नहीं है किन्तु ठग हैं। इनका आदर करने से जाति को बहुत हानि होती है और शिष्यों की न तो अविद्या दूर होती है न उनकी उन्नति होती है

गुरू वही है जो सच्चा ज्ञान देता है । यह ज्ञान एक क्षण या एक दिन में नहीं दिया जाता । इसके लिये गुरू और शिष्य का बहुत दिनों तक संसर्ग होना चाहिये । अध्ययन जादू की लकड़ी नहीं है कि । ‘एक ! दो – तीन !’ और आ गई ।

[ यह लेख पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी की पुस्तक “अस्तिकवाद (अध्याय १२ – ईश्वर की प्राप्ति के साधन)” से लिया गया है , ये पंडित जी की बड़ी उत्तम पुस्तक है । सभी पाठकों को इसका अध्ययन करना चाहिए , मुझे पूर्ण विश्वास है कि “अस्तिकवाद” आपके जीवन में एक नवीन अध्याय जोड़ देगी । –  आर्य मिलन]

 लेखक – पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय
प्रस्तुति –  आर्य मिलन