राजनीति

कहीं अय्याशी के सुविधा गृह में तो तब्दील नहीं हो रहे बालिका संरक्षण गृह

यूँ तो संसद में महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण का मुद्दा गूंजता रहता है। महिलाओं को 33 फ़ीसद आरक्षण देने का चुनावी चक्रव्यूह भी रचा बुना जाता है। पर अब महिलाओं और बच्चियों के हिस्से में आ क्या रहा। देवरिया में संस्था का नाम विन्ध्वासिनी, लेकिन काम देखिए जो बच्चियां देवी स्वरूप होती है, उन्हें सफेदपोश के सामने परोसा जा रहा। इससे न आप अंजान हैं, और न अब हम, क्योंकि बीते कुछ समय में बिहार से लेकर उत्तरप्रदेश, और कभी कभार देश के अन्य कोनों से दिल और दिमाग़ दोनों को स्तब्ध कर देने वाली घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं। ऐसे में जब सरकारी संरक्षण में चल रहे संरक्षण गृह ही बच्चियों और महिलाओं के लिए नरक बन जाएं। फिर ज़्यादा कुछ आज की व्यवस्था पर टिका-टिप्पणी करने लायक रह जाता नहीं। पहले मुजफ्फरपुर उसके एक माह के भीतर उत्तरप्रदेश का देवरिया जिला। दोनों जगह कुछ बातें अगर समान है। तो ऐसे में यह कैसे मान लिया जाएं, जो धुंआ उठ रहा। उसकी लपटें इन्हीं दो राज्यों तक ही सीमित हो।

पहले बात जो कुछ बातें समानता प्रदर्शित कर रही। उनका जिक्र कर लेते हैं। बाक़ी का ज़िक्र शैने-शैने करते हैं। पहली समानता दोनों राज्यों के केंद्र में एक ही दल की सत्ता बैठी है, रहनुमाई तंत्र में। हाँ इतना भले है, कि बिहार में बैसाखी बनकर सत्ता पर एक खड़ाऊं अपना भाजपा बनाएं हुए है। तो पहली समानता के बाद ज़िक्र भाजपा के उस स्लोगन की कर लेते हैं, जो 2014 में लोकसभा और उत्तरप्रदेश विधानसभा में उसके सत्ता तक पहुँचने का अहम कारण बना। वह था, न अत्याचार, न भ्रष्टाचार। अबकी बार भाजपा सरकार। फिर सामाजिक असुरक्षा से हैरान-परेशान जनता ने दे दिया सत्ता की कुंजी। पर अब लगभग एक वर्ष के शासन के बाद क्या स्थिति उभर कर योगिराज में आ रहीं। शायद ही इससे कोई अनजान हो। अभी हालिया घटना जो हुई, उत्तरप्रदेश में। उस पौराणिक देवारण्य वाले इस जनपद का कुछ हिस्सा कभी भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर में रहा है। गन्ना उत्पादन और चीनी मिलों से मिलने वाली समृद्धि पर टिके इस जनपद की साक्षरता दर लगभग 70 फ़ीसद तो वहीं लिंगानुपात 1013 है। इसके इतर भी अगर समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन का गढ़ रहें, और विद्वत जनों की जन्मस्थली में जघन्य अपराध का खुला खेल फरुखावादी चल रहा। तो भगवा झंडे के तले चल रही सरकार डीएम आदि अधिकारियों को निलंबित मात्र करके अपने कर्तव्यों से इतिश्री नहीं कर सकती।

अगर यहां पर हम ज़िक्र पिछले एक वर्ष में नई सरकार आने के बाद सूबे में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों के आंकड़ों के ग्राफ़ की करें, तो उसमें एक वर्ष के भीतर ही 24 फ़ीसद तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है। संत-महात्माओं की धरती रही उत्तरप्रदेश में आए दिन आठ महिलाओं से दुष्कर्म होता है। तो वहीं 24 महिलाएं अगवा करा ली जाती है। तो भले ही ऐसे में योगी सरकार अभियुक्तों की गिरफ्तारी और जिम्मदार अधिकारियों को फ़ौरी रूप से बर्खास्त किया हो। पर ऐसी स्थिति में बसपा की सुप्रीमों मायावती की टिप्पणी भी मौजूं लगती है, कि सूबे में सत्ता के सारथी के अपने खुद के खिलाड़ी अपने-आप को जब क़ानून से परे समझते हैं। फिर ऐसे में सामान्य जनों को कैसे अपराध करने से रोका जा सकता है। ऐसे में हम अगर बिहार और उत्तरप्रदेश के बीच समानता से आगे बात को लेकर बढ़े हैं, तो दूसरी समानता का जिक्र भी कर लेते हैं। एक जगह ज़िक्र सुशासन का होता है, दूसरी जगह सत्ताधीश बनकर बैठा योगी है। मतलब दोनों का अर्थ मिलता-जुलता ही राजनीति की शब्दावली में समझ सकते हैं। जिनका उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना ही है। ऐसे में एक माह के भीतर जो इन दोनों राज्यों के बीच तीसरी समानता उभरी है। उसने सुशासन आदि शब्दों को एक तरफ विखंडित करने का काम किया है। वहीं दूसरी तरफ़ सफेदपोश को बेनक़ाब करने का काम किया है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके पास दावों और वादों के झुनझुने से ज्यादा कुछ है नहीं।

मुजफ्फरपुर बालिका आश्रय गृह की घटना ने समाज के दिल को स्तब्ध किया ही था, कि अब उत्तरप्रदेश के देवरिया की घटना ने यह साबित कर दिया है, कि आज के दौर में शासन-व्यवस्था आदि की संस्थाएं सिर्फ़ लोकतंत्र का शोभा बढ़ाने तक ही सीमित रह गई हैं। अगर बात हम देवरिया की संस्था की करें, तो संस्था का नाम विन्ध्वासिनी नारी निकेतन, और वहां का काम मानवता को शर्मसार कर देने वाला ही नहीं, लोकलाज के साथ सरकारी तंत्र की धज्जियां बेचने का कार्य किया। तो अगर ऐसे में सरकारी संरक्षण में चल रहीं संस्थाएं आज के दौर में सफेदपोश के साथ बड़े नामदार लोगों के अय्याशिपन का अड्डा बनते जा रहें। तो क्या निष्कर्ष निकाले, कि सत्ता चाहें सुशासन बाबू के पास हो, या योगी के पास, पर व्यवस्थाएं लचर और लापरवाही भरे रवैये से ही चल रही। वहीं आज हमारी व्यवस्था और समाज को एक रोग ओर लग गया है। वह आग लगने पर कुंआ खोदने की प्रवृत्ति है, जिसने हमारे देश का बंटाधार कर दिया है। कोई भी बड़ा से बड़ा कांड हो न कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार होता है, और न ही कहीं आग लगने से पहले कोई सक्रियता दिखाई पड़ती है। आज का दुर्भाग्य देखिए अवाम हो, या शासन-सत्ता सभी जगह सिर्फ़ अधिकार की बात होती है, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का ज़िक्र कहीं नहीं रहता।

ऐसे में अब हमें इस नीति और नियत में बदलाव करना होगा। देश की शीर्ष अदालत ने भी तल्ख़ टिप्पणी करते हुए कहा कि लेफ़्ट हो, या राइट, अथवा सेंटर। सभी जगह बलात्कार हो रहा है। इसके साथ न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्य सरकारें शेल्टर होम को आर्थिक सहायता तो प्रदान कराती हैं। पर उनका निरीक्षण क्यों नहीं करती। ऐसे में जब देवरिया का विन्ध्वासिनी नारी निकेतन बंद करने का आदेश काफ़ी पहले पेश किया जा चुका था। फिर वह किसकी शह पर चल रहा था। यह बड़ा प्रश्न बनकर उभरता है। एक सवाल यह भी क्या सभी कार्य आज के दौर में हाईकमान से ही होंगे। सरकार के मंत्री-विधायक तो जिले में भी मौजूद रहे होंगे। फिर उन्होंने कभी हिमाक़त क्यों नहीं की, कि विन्ध्वासिनी नारी निकेतन पर ताला लगाया जाए। ऐसे में यह स्तब्ध कर देने वाली ख़बर निचले स्तर से ऊपर तक व्याप्त लापरवाही की बानगी ही तो पेश करती है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के मुताबिक उन्होंने दो वर्ष पूर्व ही सांसदों को पत्र लिखा था, कि अपने-अपने क्षेत्र में चल रहे सरकारी संस्थानों में जाकर बच्चों और महिलाओं की स्थिति का जायजा लें, लेकिन ऐसा करने की ज़हमत कोई सांसद अगर जुटा नहीं सका। ऐसी स्थिति उस जनप्रतिनिधि की है। जो अवाम का हितैषी बनने का दावा करता है। फिर बाक़ी की स्थिति कैसी होगी। इसका सहज आंकलन किया जा सकता है।

पहले सुशासन बाबू के मुजफ्फरपुर में बालिका गृह में किशोरवय बच्चियों के साथ यौन उत्पीड़न, उसके बाद अब योगिराज में देवरिया में नारी संरक्षण गृह में महिलाओं और बच्चियों के साथ यौन उत्पीड़न। तो ऐसे में यह तो नहीं कि कहीं सरकारी शह पर महिलाओं की देह के साथ खुला खेल फरुखाबादी वाली कहावत को चरित्रार्थ किया जा रहा है। अगर ऐसा है, तो ऐसे में तो लोकतंत्र को ख़ुद रोना आ रहा होगा। कितनी विडंबना की बात है, जिस नारी संरक्षण गृह की वर्ष भर पहले ही सीबीआई जांच के बाद मान्यता रद्द कर दी गई थी। वह आज भी चल रहा, और महिलाओं के लिए यातना गृह बनकर। तो यहां एक बात तो स्पष्ट है, यह खेल सत्ता के रसूख़ और प्रशासनिक अमले के आड़ के बिना सम्भव नहीं। मुजफ्फरपुर, देवरिया ये कड़वी सच्चाई की नई दास्ताँ नहीं, इसके पहले भी ऐसी स्थितियों से देश और समाज का सामना हुआ है। तब बस नाम अलग उत्तराखंड के संवासिनी गृह और अहमदाबाद के नारी संरक्षण गृह इसकी जद में आते रहें हैं। ऐसे में लगता यहीं है, कि इन नारी संरक्षण गृहों में बुनियादी स्तर पर काफ़ी सुधार की जरूरत है। साथ में उससे भी पहले सुधार की आवश्यकता नीति और नियत की है। फिर वह व्यक्ति कौन और कहां बैठा है, यह मायने नहीं रखता। पर यह सुधार कब और कैसे हो। शायद इसके लिए हमारी रहनुमाई व्यवस्था भी तैयार नहीं। तभी तो काफ़ी समय पहले ही गुजरात उच्च न्यायालय ने नारी संरक्षण गृहों की बदहाली दूर करने के लिए नई नियमावली बनाने को कहा था। पर वह अमल में आज़तक आ नहीं पाई। फ़िर उम्मीद मत करिए कि हमारे रहनुमा सामाजिक, आर्थिक और अन्य कारणों से बेबस महिलाओं और बच्चियों के लिए कुछ बेहतर कर सकती हैं। हमें अब ख़ुद आगे आना होगा संगठित होकर और अपने समाज की महिला और बेटियों के लिए आकाश तले बेहतर जीवन देने का माहौल बनाना होगा। नहीं तो राजनीति के हैसियतदार को कहीं शर्म आने में लम्बा वक्त लग जाएगा, तो कहीं शुरुआती कार्यवाही भर से सब कुछ ठीक होने का दावा होता रहेगा, और फिर किसी दिन नया देवरिया और मुजफ्फरपुर हमारे सामने होगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896