हास्य व्यंग्य

वो निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे

कब कौन किस पर मोहित हो जाए और कब किसका मोह भंग हो जाए, यह ऊपर वाला भी नहीं बता सकता।मोह-माया का जंजाल ही ऐसा है कि इंसानी रूह उसमें फँसती ही चली जाती है और फिर साधारण मनुष्य की क्या बिसात! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तक मोह पाश में बंध चुके हैं।देखा तो यह भी गया है कि जो लोग काम-क्रोध, मोह-माया के जंजाल से मुक्त होकर ज्ञान का भण्डार संचित कर लेते हैं,कभी-कभी उनके पैर भी बहक जाते हैं।महकती दुनिया में बहकना आसान भी तो है!
बात बात पर हम कलियुग का ताना देते हैं लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि हर युग में इंसान बहका है।हर कोई जानता है कि काम-क्रोध, मोह-माया की राह बहुत ही कंटकाकीर्ण है लेकिन इसके बाद भी इंसान उसी राह को पकड़ता भी है,उसपर रपटता भी है।कहने वाले कहते भी हैं कि यह राह बहुत ही रपटीली है लेकिन व्यक्ति न तो राह छोड़ता है और न ही रपटने या फिसलने के बाद सही राह पकड़ता है!जो लोग इस रपटते,फिसलते मार्ग से घबराकर राह बदल लेते हैं, उन्हें भी यह राह बारम्बार पुनः पुनः आकर्षित करती रहती है,माया-मोह के बंधन से मुक्त हो चुके जन को यह माया-मोह बाहें फैलाकर अपने आगोश में बांध लेती है।
कितना बुरा दौर है यह!बेचारे बाबा,मुल्ला-मौलवी,फादर तक इस मोहपाश की चपेट में आते जा रहे हैं!उनकी बेचारगी पर तरस आता है…वे फिसलते ही जा रहे हैं।अब वे बेचारे खुद तो मोह-माया के चक्कर में फँसते नहीं हैं,काल ही उनके सिर पर बैठकर मोह माया में फँसा लेता है।
कांचन और कामिनी से दूर रहने के उपदेश देने वाले खुद इनसे घिर जाते हैं,भला इनका क्या कसूर!रही-सही कसर सत्ता सुन्दरी पूरी कर देती है।इस प्रसंग में एक पुरानी फिल्म ‘चित्रलेखा’ का यह गीत स्मरण हो आया जब देश के ह्रदय प्रदेश में एक सन्यासी कम्प्यूटर बाबा द्वारा अपने राज्य मंत्री के दर्जे को तिलांजलि दे दी गई।साहिर साहब के लिखे इस गीत का मुखड़ा कुछ इस प्रकार है- “ मन रे तू काहे न धीर धरे,वो निर्मोही मोह न जाने,जिनका मोह करे।”
वास्तव में जब मोह में पड़ जाते हैं तो धीरज कहाँ रह जाता है।यह भी होता है कि जिनके मोह में पड़ जाते हैं,वे निर्मोही बन मोह को देख और समझ ही नहीं पाते हैं।बेचारे बाबाजी भी तो पहले स्वयं निर्मोही थे और अब जब उन्हें मोह-माया के प्रपंच में डाल दिया तो मोह में डालने वाले स्वयं निर्मोही बन बैठे।माना कि वे पूर्ण रूप से निर्मोही नहीं हैं,जहाँ चाहते हैं ,वहीं निर्मोही बनते हैं वरना तो उनका हर जगह मोह बरसता है मूसलधार बारिश की तरह! थोड़ा सा मोह बाबा के लिए भी बरसा देते ,लेकिन नहीं, उन्हें नाराज कर दिया।एक अदद विधायकी के टिकट की ही तो दरकार थी।राज्य मंत्री का दर्जा भी कोई दर्जा है!यह तो वही बात हो गई कि किसी स्त्री को घर में रख लिया और कह दिया कि मैं तुम्हें ब्याहता स्त्री का दर्जा देता हूँ और समारोहों में मूल ब्याहता स्त्री के साथ!यह तो गलत बात है।उनके अपने सपने भी जन्म ले चुके होंगे जब उन्हें मोह-माया में लाकर पटक दिया है तो!उन्हें राजनीति का मायाबाजार भी तो दिखा दिया है वरना तो बाबाजी नर्मदा किनारे धूनी रमाये बैठे ही थे ।कम्प्यूटर नाम जोड़ लेने से शायद यह मान लिया गया हो कि बाबाजी सांसारिकता से जुड़े हुए हैं और उन्हें मोह जाल में फांस लिया गया।
खैर,सन्यास मार्ग पर जाने वालों को आत्मज्ञान तो हो ही जाता है लेकिन इस मुगालते में कुछ बाबाजी आत्ममुग्ध हो जाते हैं और फिर भटकने के बाद शिकायत करते फिरते हैं कि वो निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे!

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009