कहानी

कहानी – काश….

बच्चे तो पहले से ही पूरे जोर शोर से क्रिसमस की तैयारी कर रहे थे ऊपर से दीदी अपने बच्चों को लेकर आ गईं तो उन्हें और भी जोश आ गया, फिर तो पूरा घर बच्चों की चिल्ल-पों से गुलज़ार हो गया। जब सब मिलकर अपनी विश लिस्ट बनाने बैठे तो उनके माता-पिता के होठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान खेल रही थी। हो भी क्यों नहीं आखिर बच्चों के असली सांता क्लॉज तो वही थे।

बच्चों की यह उछल कूद देख कर मेरी आंखों के सामने धीरे धीरे फिर उन दोनों की तस्वीर उभरने लगी थी। मैं अपने कमरे में चली आई।

कभी कभी कुछ घटनाएं व्यक्ति की सोच और उसका नज़रिया बदल कर रख देतीं हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मैंने कभी सांता क्लॉज पर यकीन नहीं किया, हमेशा इस कल्पना का मज़ाक ही उड़ाया, पर आज मैं खुद चाहती हूं कि काश…. एक बार सांता क्लॉज सच हो जाए और मेरी भी एक विश पूरी कर दे, काश…. उन दोनों की सभी समस्याएं हल कर उन्हें क्रिसमस का तौहफा दे जाए।

जब से उनसे मिली हूं मेरी नींद उड़ गई है और मुझे सारी रात अपने नर्म-गर्म बिस्तर पर करवटें बदलते हुए बितानी पड़ी है। सच कहूं तो उनसे मिलना मेरे जीवन का अब तक का सबसे दर्दनाक अनुभव साबित हुआ। सुख के हिंडोले में झूलती और शौकिया नौकरी कर इंडिपेंडेंट होने की खुशफहमी पाले बैठी मैं अब तक जीवन के इस कटू सत्य से अनजान थी कि कहीं कहीं जीवन इतना कठिन भी होता है कि ज़िंदगी जीने की जद्दोजहद के अतिरिक्त व्यक्ति के पास कुछ और करने को ही नहीं बचता। उसके हालात उसे ऐसा पाठ पढा देते हैं कि उसके लिए बाकी हर सीख बेमानी हो जाती है।

कल ही तो मिली थी मैं उनसे जब अपने ऑफिस के बाहर रिक्शा का इंतजार कर रही थी। एक तो ठंड ऊपर से गाड़ी खराब, मेरी तो हालत खराब थी। तभी मैंने देखा सड़क के दूसरी ओर फुटपाथ पर एक महिला बच्चे के साथ आ बैठी। दस साल साल की उम्र के आसपास का वह बच्चा जोर जोर से रो रहा था। वह महिला जो शायद उसकी माँ थी उसे प्यार से बेतहाशा चूम रही थी, वह भी रो रही थी। आसपास के लोगों को तो इस दृश्य से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था पर मैं उनके बारे में जानने को उत्सुक हो उठी। सड़क पार कर जब मैं उनके पास पहुंची तो देखा कि उस बच्चे के दोनों हाथ घायल थे।

“क्या हुआ? इसे चोट कैसे लगी?” मैंने कोमल स्वर में उस महिला से पूछा। मुझे उस बच्चे से सहनुभूति हो रही थी, मैं सोच रही थी इनके साथ कोई दुर्घटना घटित हुई है और अब इन्हें सहायता की जरुरत है। पर मेरे रोंगटे खड़े हो गए जब उस महिला ने कहा कि, ‘कोई खास बात नहीं है, मेरा बेटा एक कांच के सजावटी सामान की दुकान में काम करता है, कई बार असावधानीवश कुछ सामान टूट जाने से उसे ऐसी चोटें लग जाती हैं।’

बेचारा बच्चा, कितना दर्दनाक होता होगा उसके लिए ऐसी जगह पर काम करना, कैसी क्रूर माँ है ये जो अपने नन्हें से बच्चे को ऐसी जगह काम करने को मजबूर करती है। मेरे मन में अपनी भाभी और बहन की तस्वीर घूम गई, वो तो कभी अपने बच्चों से पानी का गिलास भी नहीं भरवातीं। और यह औरत! मुझे तो अब वह स्त्री राक्षसी प्रतीत हो रही थी।

कुछ पलों के लिए मैं निशब्द खड़ी रह गयी, फिर जब मेरी चेतना जाग्रत हुई तो मैं उस पर चिल्ला पड़ी, “ तुम पागल हो क्या? जानती भी हो क्या बक रही हो? बाल श्रम अपराध है? यह तुम्हें पता भी है? तुम इतने छोटे बच्चे को काम करने के लिए मजबूर करती हो, तुम अपराधी हो। तुम्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए, मैं अभी पुलिस बुलाती हूँ। जब पुलिस के डंडे पड़ेंगे तब तुम्हें अपनी गलती समझ आयेगी। कैसी माँ हो तुम, बच्चा दर्द में है और तुम बड़े ही गर्व से कह रही हो ‘कोई खास बात नहीं है,’ पता नहीं माँ हो भी की नहीं, ये बच्चा है तो तुम्हारा ही ना, या कहीं से चुरा कर लाई हो इसे?”

वह कुछ देर मेरी ओर ताकती रही फिर शांत स्वर में बोली, “मैं जानती हूं बाल श्रम अपराध है और यह भी कि मेरे बच्चे को बहुत दर्द हो रहा है। मां हूं, उसकी तकलीफ़ से अनजान नहीं हूं। किन्तु दीदी भूख भी बाल श्रम जितनी ही खतरनाक होती है और शायद यह आपको नहीं पता। इन बिना बाप के बच्चों को कैसे पाल रही हूं यह मैं ही जानती हूं। मैं खुद भी कई घरों में चौका बर्तन करती हूँ पर पूरा नहीं पड़ता इसीलिए इसका सहारा लेना पड़ता है मुझे।” उसने आंसुओं के बीच अपनी कहानी कह सुनाई।

“मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूँ पर तुम्हें भी समझना होगा कि यह अभी बहुत छोटा है, अभी इसके पढ़ने लिखने के दिन हैं, काम करने के नहीं। इसे स्कूल भेजो, पढ़ लिख कर यह तुम्हारी और भी अच्छे से मदद कर पायेगा। मेरी बात समझने की कोशिश करो, शिक्षा हर व्यक्ति का अधिकार है, परीस्थिति चाहे कैसी भी हो तुम अपने बेटे को इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकती।” उस समय मैं एक मानवअधिकारवादी की भांति बात कर रही थी।

अचानक मुझे कुछ याद आया और मैंने उसके कंधे पर अपनेपन से हाथ रखते हुए कहा, “यदि तुम्हें किसी भी तरह की कोई सहायता चाहिए तो मुझसे कहो मैं तुम्हारी हर तरह से मदद को तैयार हूँ।”

“आप तो हमेशा कार से दफ्तर आती हो फिर आज इतनी ठंड में रिक्शा क्यों ढूंढ रही हो?”

“हाँ क्योंकि आज मेरी कार खराब है। पर तुम्हें कैसे पता।” मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा।

“क्योंकि मैं आपको हर रोज देखती हूँ, अपने बेटे के साथ यहीं बैठ कर,” वह मुस्कुराई। अब मुझे समझ आया कि लोगों को इस बच्चे के रोने से कोई फर्क क्यों नहीं पड़ रहा था, शायद वे इन्हें हर रोज़ देखते थे और देखते देखते इतने आदी हो गए कि इनके दर्द के प्रति निष्ठुर हो गए थे और अपनी ही धुन में मस्त मैंने कभी इन पर ध्यान ही नहीं दिया।

“दीदी मैं आपकी बात समझ रही हूँ, पर आप मेरी समस्याएँ नहीं समझ सकतीं क्योंकि मैं समाज के जिस वर्ग से हूँ उसकी समस्याएं अलग होती हैं जो आपने शायद कभी नज़दीक से देखी भी नहीं होंगी। भाषण देना बहुत आसन होता है, यह तो कोई भी कर सकता है किन्तु उन समस्याओं को जीना बहुत कठिन होता है। आप मेरी मदद करना चाहती हैं, किन्तु माफ़ करें मैं आपसे कोई मदद नहीं लूंगी, क्योंकि मैं जानती हूं यह मदद मेरे बच्चों को आलसी और भिखारी बना देगी। जिंदगी एक संघर्ष है! और मैं चाहती हूँ यह संघर्ष मेरे बच्चे खुद अपने दम पर जीतें किसी की दया से नहीं।”

“आप इसकी शिक्षा के लिए चिंतित ना हों। मैं भी शिक्षा का महत्व समझती हूँ, मेरे सभी बच्चे सांयकालीन स्कूल में जाते हैं, यह भी! शाम होने को है। आपके माता-पिता को आपकी फिक्र हो रही होगी, आप घर जाएँ, हमें अपने दर्द के साथ अकेला छोड़ दें, इसकी चिंता ना करें मैं इसे सम्भाल लूंगी।”

“आप बहुत अच्छी हैं दीदी बिल्कुल सांता क्लॉज की तरह। अगर आप सच में मदद करना चाहती हैं तो क्रिसमस पर घर सजाने के लिए सजावट का सामान खरीद लें, यह भी तो मदद ही है ना।” उस बच्चे ने अपने झोले की ओर इशारा करते हुए कहा। मैंने उसकी ओर देखा तो वह मासूमियत से मुस्कुरा दिया। उसकी आँखों में एक अलग सा आत्मविश्वास था, मैंने उसके गलों को प्यार से थपथपा दिया।

उस महिला के दर्द को अनुभव कर मैं सिहर उठी उसका बेटा दो वक्त की रोटी कमाने के लिए ऐसी जगह पर काम करने को मजबूर है जहां उसे अकसर चोट भी लग जाती है। और वह भी उसे चाह कर भी रोक नहीं सकती, इससे बड़ी विडम्बना उसके लिए और कुछ नहीं हो सकती।

इन हालातों में भी हम अपने देश के जल्द ही विकसित देश बन जाने के सपने देखते हैं, इससे हास्यास्पद बात और क्या होगी! जब तक इन छोटे छोटे बच्चों को अपनी दैनिक जरूरतों के लिए काम करना पड़े और इनकी माएं इनके साथ आंसू बहाने और इनके आंसू पोंछने के अतिरिक्त और कुछ भी ना कर पायें, क्या तब तक हम ईमानदारी से यह दावा करने के बारे में सोच भी सकते हैं?

“आहा! मासी आ गई! बुआ आ गई!” बच्चे घर पहुँचते ही मेरी ओर दौड़े। मैंने भी उन्हें गले लगा लिया और चॉकलेट देकर प्यार से चूमने लगी, मेरी आँखों में आंसू थे जिन्हें मैंने बड़े ही जतन से छुपा कर पोंछ लिया था।

“मासी ये क्या है?“ “बुआ इसमें क्या है?” बच्चों ने मेरे हाथ में एक पैकेट देखा तो एकसाथ सम्मिलित स्वर में पूछने लगे।

“इसमें तुम्हारी मम्मा के लिए गिफ्ट है।” कहते हुए मैंने वह पैकेट दीदी के हाथ में दे दिया। उसमें दो बेहद खूबसूरत से कांच के फूलदान थे। सब को फूलदान बेहद पसंद आए उन्होंने मेरी पसंद की तारीफ़ों के पुल बांध दिए और पूछा मैंने यह कहाँ से खरीदा। मेरे पास कोई जवाब नहीं था, मैं मुस्कुरा कर रह गयी।

“क्या बात है? इतनी उदास क्यों हो?” माँ ने पूछा।

“कुछ नहीं माँ! आज पूरा दिन थोड़ी व्यस्त रही, थक गयी हूँ। बस कुछ देर आराम करना चाहती हूँ।”

बच्चे मुझे अपने साथ खेलने के लिए बुला रहे थे पर मैंने उन्हें मना कर दिया। असल तो मैं व्यथित थी, बहुत ज्यादा व्यथित, और अपनी मानसिक वेदना किसी के सामने जाहिर भी नहीं करना चाहती थी। खासतौर पर बच्चों के सामने तो बिलकुल नहीं। वो अभी बहुत छोटे हैं और मैं नहीं चाहती थी कि इतनी जल्दी उन्हें पता चले कि किसी के लिए जिंदगी इतनी मुश्किल भी हो सकती है। कुछ सत्य बेहद कटु होते हैं, गर्म हवाओं की तरह और मैं इन फूल जैसे मासूम बच्चों को इन गर्म हवाओं से भरसक बचाये रखना चाहती थी।

अंकिता भार्गव

पिता का नाम -- वी. एल. भार्गव माता का नाम -- कान्ता देवी शिक्षा -- एम. ए. (लोक प्रशासन) रूचियां --- अध्ययन एवं लेखन