उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग -12 )

 

रजनी ने आगे पढ़ना जारी रखा ‘ ………..अब जबकि हकीकत तुम्हारे सामने है , मेरा तुमसे निवेदन है कि अगर तुमने कभी मुझे जरा भी प्यार किया हो तो अपने पिता की बात मान कर जहां वो कहें शादी कर लेना । मुझे पूरा विश्वास है वो गलत फैसला नहीं करेंगे । तुम्हारी पसंद का पूरा ध्यान रखेंगे । हो सके तो मुझे भुला देना । और हाँ अभी जबकि तुम यह संदेश पढ़ रही होंगी मैं बस में बैठा हुआ हूँ और जा रहा हूँ किसी दूसरे शहर में । इस शहर से दूर । तुमसे दूर । तुम्हारी याद के सहारे ही जीवन बिता लेने का प्रयास करूंगा । और ये तुम्हें इसलिए बता रहा हूँ कि व्यर्थ में मुझे खोजकर तुम परेशान न हो जाओ । मैं नहीं चाहता कि तुम्हें बेकार में परेशान होना पड़े । अपना ध्यान रखना रजनी ! अलविदा ! कभी था तुम्हारा
बदनसीब अमर ! ‘
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दिल और दिमाग की अंतर्द्वंद से परेशान अमर न जाने कितनी देर तक यूँ ही आंखें बंद किये पड़ा रहा और फिर जैसे उसे अचानक कुछ याद आ गया हो । फाइलों को मेज पर ही करीने से सजाकर वह अपनी केबिन से बाहर निकला और मैनेजर गुप्ताजी के कैबिन की तरफ बढ़ गया ।
गुप्ताजी से मिलकर उन्हें सब समझाकर वह बड़ी तेजी से अपने घर की तरफ जानेवाली बस पकड़ने के लिए बस स्टॉप की तरफ बढ़ने लगा । उसने गुप्ताजी को समझा दिया था कि कोई भी आकर उसके बारे में पूछे तो यही बताया जाए कि उसने काम छोड़ दिया है और वास्तविकता भी यही थी सो गुप्ताजी को यह मानने में कोई दिक्कत नहीं हुई ।
थोड़ी देर बाद अमर अपने उसी किराये के मकान में अपना बैग पैक कर रहा था ।
वह बहुत जल्दबाजी में लग रहा था ।
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मोबाइल पर अमर का संदेश पढ़ते हुए उसने समय देखा । शाम के चार बजने वाले थे । उसे अमर के दफ्तर का भी पता था और उसके कमरे का भी । लेकिन वह सोच नहीं पा रही थी कि वह कहाँ जाय । उसे अच्छी तरह पता था कि ऐसी स्थिति में कोई भी अपना फोन चालू नहीं रखेगा लेकिन फिर भी उसने कोशिश कर लेना ही बेहतर समझा । आंसुओं को पोंछते हुए उसने खुद को संभाल लिया था । मोबाइल की स्क्रीन पर अमर का नंबर डायल करके वह स्पीकर ऑन करके जवाब की प्रतीक्षा करने लगी । कुछ देर के प्रयास के बाद किसी लड़की की मधुर आवाज में कंप्यूटर का रिकार्डेड संदेश सुनाई पड़ा ‘ जिससे आप बात करना चाहते हैं वह अभी पहुंच के बाहर हैं या उनका फोन स्विच ऑफ है । कृपया कुछ देर बाद प्रयत्न करें ! ‘ यह अनअपेक्षित नहीं था फिर भी रजनी बेतरह झुंझला उठी । वाश बेसिन में चेहरा अच्छी तरह धोकर पर्स हाथ में लिए वह अपने कमरे से बाहर निकल ही रही थी कि तभी सेठ जमनादास जी उसके सामने आ गए ।
” कहाँ जा रही हो बेटा ? ” उनकी अनुभवी आंखें कुछ ताड़ने का प्रयास कर रही थीं ।
” पापा ! वो ….वो …..मैं ….वो ….अपनी सहेली से मिलने जा रही हूँ । ” अचानक सेठ जमनादास जी को देखकर वह हड़बड़ा गई थी और हकलाते हुए ही उसने झूठ बोलने का प्रयास किया था ।
” मैं जानता हूँ कि मेरी बेटी बड़ी नादान है । अब देखो न ! तुम्हें तो झूठ भी बोलना नहीं आता । एक छोटा सा झूठ बोलने में भी तुम्हें पसीने आ रहे हैं और कुछ लोग होते हैं जिन्हें झूठ बोलने में तो महारत हासिल होती है जैसे अमर ! हाँ ! ऐसे लोग तो अपना यकीन दिलाने के लिए आंखों में आंखें डालकर बड़ी सफाई से झूठ बोलते हैं । इतनी सफाई से कि जब तक सामनेवाला उसके झूठ को समझ सके वह बरबाद हो चुका होता है । ” कहते हुए जमनादास जी मुस्कुराए थे ।
उनकी बात सुनकर रजनी भीतर ही भीतर कांप गई थी ।
ये क्या कह गए थे उसके पापा ? क्या उन्हें हकीकत की जानकारी है ? वही जो उसके और अमर के बीच हो चुका है । या फिर अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा है । चाहे जो हो लेकिन उनका अनुभव गलत नहीं हो सकता । ‘ रजनी के मन में यह बात आते ही उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कार उठी ‘ ये तू कह रही है रजनी ? क्या इतनी जल्दी तेरा भरोसा अमर पर से उठ गया ? वो वादे , वो इरादे , वो जन्म जन्म तक साथ निभाने की कसमें …सब झूठ थे ? नहीं ! तू इतनी खुदगर्ज नहीं हो सकती ! ‘
तभी जमनादास जी की आवाज ने उसे जैसे झिंझोड़ दिया हो ,” क्या बात है बेटी ? तुम झूठ क्यों बोल रही हो ? कहाँ जाना चाहती थीं ? ”
सकपका गई थी रजनी । क्या कहे ? सचमुच उसे झूठ बोलना नहीं आता था । आज अपने पहले प्रयास में ही असफल हो गई थी । उसका झूठ पकड़ा गया था । तभी उसके दिमाग ने कहा ‘ रजनी ! क्यों डर रही है ? अब पापा से क्या छिपाना है ? उन्हें पता तो है सब कुछ ? सच बोलने से हो सकता है कहीं उनकी मदद मिल जाय ? ‘ तुरंत ही उसने पापा को जवाब दिया , ” पापा ! मैं चाहती थी कि अमर से मिलकर आऊं । उससे मिलकर बात स्पष्ट करना चाहती थी कि क्या वाकई उसे पैसे की जरूरत इतनी अधिक है जिसके लिए वह मुझे भी छोड़ सकता है ? यदि ऐसा है तो अभी तय कर लेना ही ठीक है । पता तो चले उसे पैसे की कितनी जरूरत है ? ”
जमनादास उसकी बात सुनकर थोड़े नर्वस तो हुए लेकिन बात संभालते हुए बोले ,” बेटी ! अब तुम्हारा उससे मिलना उचित नहीं है । क्या तुम्हें अपने पापा पर भरोसा नहीं ? और वो जो वीडियो तुमने देखा उसका क्या ? उसका भी भरोसा नहीं ? ”
” मुझे आप पर पूरा भरोसा है पापा ! लेकिन आप चाहते हैं कि जो मेरा गुनहगार है मैं उससे बात भी न करूँ ? उससे जवाब तलब भी न करूँ ? उसे साफ बचकर निकल जाने दूँ ? नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता ! इससे पहले कि वह यहां से कहीं गायब हो जाय मुझे उससे मिलना होगा । उससे बात करनी होगी । उसकी बात समझनी होगी । ” रजनी असली बात छिपाकर जमनादास जी से उनके मुताबिक ही बात करके वह अमर से मिलने जाना चाहती थी ।
” अरे बेटी ! तुम बेकार ही उसकी चिंता कर रही हो ! मैं ऐसे लोगों को बखूबी जानता हूँ । ऐसे लोग पैसे के बड़े लोभी होते हैं । ये इतनी जल्दी नहीं भागेगा । और पैसे ऐंठने की पूरी कोशिश करेगा । तुम उससे बाद में भी मिल सकती हो । अभी आई हो ! थोड़ी देर आराम कर लो ! ” जमनादास जी की पूरी कोशिश थी कि रजनी को किसी भी तरह से अमर से मिलने से रोका जाए । ताकि उनका झूठ सच बना रहे । उनके झूठ की पोल न खुले । लेकिन रजनी भला कहाँ मानने वाली थी ?
” नहीं पापा ! मैं आज का काम कल पर नहीं छोड़ती ! अभी आई पापा ! ” कहते हुए रजनी बाहर की तरफ बढ़ी । और कोई चारा न देख जमनादास जी ने हथियार डालते हुए कहा ” ठीक है बेटी ! मैं तुम्हें मना नहीं करूँगा । लेकिन अब मुझे उसपर बिल्कुल भी भरोसा नहीं रहा । मैं नहीं चाहता कि तुम उससे अकेले मिलने जाओ । थोड़ी देर बैठो ! मैं अभी आया । मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ ! ”
दस मिनट बाद सेठ जमनादास रजनी की कार में बैठे थे और कार हवा से बातें कर रही थी ।

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।