सामाजिक

केदारनाथ: इस बार फिल्म का विरोध जायज है

केदारनाथ में तबाही के बाद चारों ओर एक बेहद डरावना नजारा था. हर ओर लोग चीख-चिल्ला रहे थे और अपनों को ढूंढ रहे थे. पहाड़ों की मनोरम गोद अचानक जी का जंजाल बन गयी थी. भूखे प्यासे लोग खुद को बचा रहे थे. निकलने के करीब सारे रास्ते बंद थे. देश में मातम का माहौल था क्योंकि त्रासदी इतनी बड़ी संख्या में थी कि जिसका अनुमान सैंकड़ो के बजाय हजारों लाखों में था. देश की तीनों सेनाएं कंधे से कन्धा मिलाकर जो कुछ बचा था उसे सुरक्षित बाहर निकालने का कार्य कर रही थी. परिवारों के परिवार इस जलप्रलय में जिन्दा दफन हो गये, जो बचें थे वो अपनों को तलाश रहे थे, जिन्दा न सही लोग अपनों की लाशों को पाकर भी ईश्वर का उपकार समझ रहे थे.

न जाने इस जयप्रलय में कितनी माताओं गोद सुनी हुई, कितनी पत्नियों के सुहाग उजड़ गये, कितने लोगों ने अपने परिवार खोये और कितने परिवार आज भी अपने लोगों के लौट आने का रास्ता निहार रहे हैं. जहाँ इस त्रासदी में विनाश के कारण खोजने थे, वहां फिल्म निर्माता निर्देशक अभिषेक कपूर प्रेम, नग्नता धर्म और मजहब खोज बैठे.

असल में पांच साल पहले केदारनाथ में आई भीषण बाढ़ की घटना की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म केदारनाथ अपने टीजर और प्रोमो के सामने आते ही विवादों में घिर गई है. फिल्म अगले महीने रिलीज होने वाली है. बताया जा रहा है फिल्म की कहानी केदारनाथ की यात्रा पर गए एक परिवार की है. यहां एक पिट्ठू है. जो अपने कंधे पर भारी चीजें या बुजुर्ग-थके लोगों को लादकर ऊंचाई पर चढ़ाता है. ये पिट्ठू एक मुस्लिम लड़का है. उसे अपने परिवार के साथ केदारनाथ यात्रा पर आई उस हिंदू लड़की से प्यार हो जाता है.

इस कारण इस फिल्म का केदारनाथ के पुजारियों से लेकर राजनीतिक दलों ने विरोध शुरू कर दिया है. फिल्म के विरोध में उतरे लोगों ने फिल्म के नायक और नायिका के बीच दर्शाए गए अंतरंग दृश्यों को धार्मिक आस्था से छेड़छाड़ बताते हुए आपत्तिजनक करार दिया है.

इस फिल्म की कहानी कनिका ढिल्लों ने लिखी है. जरुर इस कहानी को लिखने से पहले बैठ कर बात हुई कि इस त्रासदी से व्यापार कैसे निकाला सकता है! सोचा होगा एक हिन्दू लड़का और एक लड़की को लेकर फिल्म बनायेंगे, फिर सोचा होगा, नहीं यार ऐसे नही! ऐसा करो कि लड़का मुस्लिम लो और लड़की हिन्दू इससे फिल्म का प्रमोशन भी हो जायेगा और एजेंडा भी. कोई विरोध करे तो उसे हिन्दू कट्टरपंथी कहकर किनारे किया जा सकता है. हिन्दू युवतियों में आसानी से ये सन्देश चला जायेगा मुस्लिम युवा बेहद उदारवादी है और वही सच्चे प्रेम की परिभाषा समझते है.

तो आशुतोष ने फिल्म में प्रेमी युगल को बाढ़ के उस बैकग्राउंड में बोल्ड सीन करते दिखाया गया है, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे. यानि संवेदना का यहाँ कोई काम नहीं काम था सिर्फ सेक्स और वासना का बची थी जिसकी पूर्ति करते दृश्य दिखाई दे रहे है. दूसरा केदारनाथ मार्ग में कोई मुसलमान पिट्टू नहीं है. यदि है तो क्यों वह एक नौजवान हिन्दू युवती को बचा रहा है? बचाने को बुजुर्ग भी थे बच्चे भी फंसे थे.

मैं ये नहीं कहता कि इस विषय पर फिल्म नहीं चाहिए थी बिलकुल बनाइए पर उसमें वह कारण स्पष्ट कीजिए जिसके कारण इतनी बड़ी त्रासदी हुई थी. फिल्म में दिखाइए जब हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते कैसे वह अपना रोद्ररूप दिखाती है. बताया जाता है जल प्रलय के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर तत्कालीन सरकार ने रवि चोपड़ा कमेटी बनाई थी. फिल्म में इस कमेटी की रिपोर्ट को आधार बनाया जा सकता था कि आपदा का कारण चोरबरी ग्लेशियर का फटना था लेकिन नीचे मंदाकिनी नदी के किनारे हुयी तबाही का कारण जल विद्युत् परियोजनाए थी. विनाश केवल चोरबारी झील के फटने की वजह से नहीं हुआ था. विनाश जल विद्युत् परियोजनाओ द्वारा गंगा के प्रवाह को अवरोध करने के कारण हुआ था.

फिल्म में दिखाया जा सकता कि आपदा के वक्त केदारनाथ में मौजूद रहे चश्मदीदों ने किस तरह घटना को महसूस किया देश के इतिहासकार, वैज्ञानिक, भूगर्भशास्त्री और आपदा विशेषज्ञों की टीम को तबाही से पहले आगाह करते दिखा सकते थे आपदा के बाद ये दिखाया जा सकता था कि प्रकृति से अत्यधिक छेड़छाड़ के क्या नतीजे हो सकते है.

चलो ये मंहगा सौदा हो सकता था तो फिल्म में ये तो दिखाया जा सकता था कि आखिर किस देश की सेनाओं के जवानों ने अपने प्राणों की प्रवाह न करते हुए पग-पग पर मौत का सामना करते हुए कितने लोगों की जान बचाई, किस तरह सेना के जवान रस्सियों पर लेटकर-लेटकर फंसे लोगों को अपनी पीठ से गुजारकर निकाल रहे थे. ये भी दिखा सकते थे कि किस तरह त्रासदी के बाद भूख और विषम परिस्थितयों से लोगों को जूझना पड़ा.

लेकिन कमाल की कल्पना की आशुतोष साहब ने जो ये प्यार दिखाया. जब प्यार दिखाने का इतना शोक है तो दिखाइए! इलाहाबाद में हिना तलरेजा और अदनान का प्यार कैसे अदनान ने अपनी आंखों के सामने अपने दोस्तों से हिना का गैंगरेप करवाया. उसके बाद गोली मारकर उसकी हत्या कर दी थी. दिखाइए! दिल्ली के मानसरोवर गार्डन में आदिल ने अपनी कथित प्रेमिका को सरेबाजार चाकुओं से गोद डाला था. उस पर फिल्म बनाइए कैसे रकीबुल हसन, जिसने राष्ट्रीय स्तर की शूटर तारा सहदेव को धोखे से फंसाया और धर्मपरिवर्तन के लिए यातना दी.

लेकिन फिल्म बनाने वालों को पता है कि फिल्म के बहाने कैसे प्रसिद्धी और पैसा कमाया जाता है कैसे धार्मिक रंग देकर फिल्मांकन के मामले में फिल्मी मसालों को बेचा जाता है. कैसे विवाद पैदा किया जाता है सनसनी, शोर, विरोध के बीच जब तक सिनेमाघरों के बाहर पुलिस तैनात न हो तब तक भला फिल्म रिलीज करने का क्या फायदा. तो इस बार मैं दावे से कह सकता हूँ कि फिल्म का विरोध जायज है

राजीव चौधरी

राजीव चौधरी

स्वतन्त्र लेखन के साथ उपन्यास लिखना, दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स के लिए ब्लॉग लिखना