कहानी

कहानी – चरागाहों के चोर

पहाड़ पर सर्दियों का मौसम आ चुका था। सर्दियों की शुरुआत में भरमौर गांव के एक गद्दी परिवार का भेड़ों का रेवड़ धौलाधार के इंद्राहर जोत से उतरने लगा। इन्हें हांकने वालों में सोमू, उसका बड़ा भाई लेखू, उनके दो घोड़े, दो गद्दी नस्ल के कुत्ते व मेमनों को उठाए लेखू का बड़ा लड़का मौखू भी साथ – साथ था। भरमौर से निकलते ही पहले होली कस्बे की वादियों में डेरा लगाने के बाद इंद्राहर दर्रे की ओर चढ़ गई थीं। रात इंद्राहर की चोटी के पीछे छिपी घने देवदार के जंगल में पसरी लामडल के आसपास डेरा लगा फिर इंद्राहर की कठोर दूर क्षितिज तक फैली चट्टानों से होते हुए रेवड़ दर्रे तक पहुंचा। ‘‘इद्रांहर है यह मौखू ,’’ लेखू ने अपने बेटे मौखू की और जोर से आवाज़ लगाई, ‘‘जल्दी करो, इस पथरीले बीयाबान , उजाड़ दुनिया से हमें शाम होते नीचे उतरना है’’ सर्दियों की शुरुआत का सूरज भी अपनी गर्मी छोड़ रहा है। सांयकाल की हवाएं बढ़नी शुरू हो चुकी हैं । सांय – सांय हवा जब उनके कानों के पास से गुजरती तो उन्हें ऐसा लगता जैसे ये अपने साथ उनके इरादों को उड़ा देना चाहती हो। इंद्राहर दर्रे की नंगी चोटी पर कहीं कहीं ताज़ा बर्फ की चमक ढलते सूर्य की रोशनी में सुनहरी छटा बना रही थी। चोटी अभिमान का नशे का प्रदर्शन कर रही थी। मौखू के हाथ से एक मेंमना छूटा और मैंहं… मैंहं… करता हुआ बड़ी चट्टान की एक कंदरा में जा गिरा। मौखू चिल्लाया, बापू ज़रा मदद करना, मेमना कंदरा में गिया गया है, जल्दी आओ!’’ लेखू कंदरा की और भागा,मेमना दो चट्टानांे के बीच फंस गया था।
लेखू ने अपनी कमर के इर्द – गिर्द बंधे बकरी की ऊन की बनी मोटी रस्सी का एक सिरा मौखू के हाथ में पकड़ाया और रस्सी के सहारे कंधरा में उतरने लगा। मौखू ने रस्सी को एक बड़े पत्थर से लपेटते हुए आखिरी सिरे से अपने आप को लपेट लिया। लेखू तब तक मंेमने को पकड़ चुका था। उसने मेमने को मौखू की तरफ फैंका और मौखू ने उसे दबोच कर सुरक्षित जगह पर रख दिया। मौखू ने अब पूरा जोर अपने बापू को निकालने के लिए रस्सी पर लगाए रखा। वो फिर इंद्राहर जोत से नीचे उतरने लगे। भेड़ो बकरियों का झुंड पत्थरों,चट्टानों से होते बहुत नीचे उतर चुका था । नीचे इलाके की खूबसूरत चरागाहें साफ दिखने लग पड़ी थी। सूर्य दूर पौंग बांध की झील के पीछे से छिपने का अपना आखिरी ईरादा पक्का कर चुका था।
निचले इलाके में पहंुचते ही भेड़ांे का रेवड़ महीन घास की कोमल कुमलों को चटकाने में व्यस्त हो चुका था। मौखू और सोमू नीचे पानी की तलाश में नीचे तंग घाटी मंे उतर गए थे। वर्षों से यहंा आते रहे हैं पानी कहंा होगा, उन्हें पता है, घोडे़ पर लटके पानी के प्लास्टिक के खाली कनस्तरों को दोनों कोई आधे घंटे में ले आए थे। लेखराज ने तब तक कई लकड़ियों के लट्ठे इधर उधर से इक्ट्ठे कर लिए थे। कई लकड़ियां तो इस इलाके में गर्मियों के समय में लामाडल के बड़े व छोटे नौहण के समय में इक्ट्ठे हुए लोगांे ने रख छोडी़ होती हैं, दो – तीन लंगर लगते हैं लामाडल के बड़े व छोटे नौहण में । बकरे भी कटते हैं। आसपास के कई गांवों के उनकी ही मिलती जुलती बिरादरी के लौग आते हैं नौहण में और फिर गद्दियों के लिए कुछ न कुछ छोड़ कर चले जाते हैं शाम का सूरज पौंग बांध की दूर तक फैली झील में समा चुका था। ऊपर इंद्राहर की चोटी से चांद नीचे पहाड़ को मुस्राकर झांक रहा है।
पहाड़ की चोटी और चांद अब आपस में कुछ वार्तालाप कर करने लगे। चांद चलते – चलते ही बोलता रहा, ‘’तुमे क्या चिंता है पहाड़ भाई, तुम तो कहीं नहीं जाओगे, मुझे तो अभी आगे निकलना है ,मैदानों, घाटियों, रेगिस्थानों और महासागरों का सफर करना है। तुम तो इन चरवाहों का भी साथ पल दो पल पा लोगे, मुझे तो अकेले ही निकलना है बहुत आगे। पहाड़ बोला,‘‘ क्या मजे़ है तुम्हारे, रोज नए नज़ारों को देखते हो, मैं तो बस कुछ मीलों तक ही देख पाता हूं और तुम इस सुन्दर पृथ्वी के एक – एक अंग को निहारते हो। मैं तो बस इसका एक छोटा सा हिस्सा हूं अगर मैं कहीं ऐवरेस्ट जितना ऊंचा भी हो जाता तो भी सैकड़ों मील ही देख पाता। तुम तो ऐसे परिंदे हो जिसके लिए हर दिन नई उड़ान लेकर आता है। कभी मेरी किस्मत में लिखा होता तो तेरे संग चलता और जिंदगी भर के सपने एक ही रात में पूरे कर लेता।’’ चांद मुस्कराया तो पहाड़ की मोतियों सी आंखें सफेद बड़े गोलों की तरह चमक उठी। चांद बोला,‘‘ भई अपनी – अपनी किस्मत होती है बस मजे़ लो, चिंता न करो तुम्हारी जिंदगी छोटी है, अभी तो तुमने बहुत से दुख झेलने हैं अपने जो भी सपने है उन्हें बस पूरा कर लो, फिर वक्त न होगा तुम्हारे पास। तुम्हारा अभिमान ये इंसान अपने पैरों तले कुचल देगें चाहे इनकी लाशें तुम अपने गर्भ में छुपाते रहो पर ये तुमे चैन से जीने न देगें।
पहाड़ बोला,‘‘ ये लोग तेरी धरा पा भी अपने घर बना लेंगे,तुम भी नहीं बच पाओगे।तूम्हारे साथ भी बहुत कुछ होगा।’’ चांद बोला,‘‘ चिंता न करो ! वर्तमान का आनंद ले लो। उन चरवाहों के साथ कुछ पल बिता लो, उनके सपनों को अपनी दरियादिली से पूरा कर लो। अभी तो तुम्हारे कई कर्ददान है उनके सपनों के लिए बस जीते रहो। बाकी बातें कल करेगें। मैं ज्यादा देर नहीं रूक सकता। मेरा कई लोग इंतजार कर रहे हैं।’’ पहाड़ अब चरवाहों और उनकी भेड़ -बकरियों को उसी दया – भाव से देखने लगा जिससे वह देखता है। ठंडी हवाओं का वेग थोड़ा मद्धम पड़ रहा था। पहाड़ सोचने लगा- ‘‘अरे मैं क्यों चांद से अपना मुकाबला करता रहता हूं, वह तो धरातल से भी नहीं जुड़ा है, मेरी जडं़े तो इस धरा के गर्भ तक जाती है, अब बड़े दिनों के बाद मैं बर्फ से निकला हूं तो फिर अब इन परिंदों, इन रूह वाले जानवरों के लिए कुछ करके पुण्य कमा लूं, काहे का अभिमान, काहे का नशा, काहे की चिंता, जब मैं खुद ही देवता हूं तो फिर किस बात की परवाह करूं। चांद को तो मसखरी की आदत है, अभी तो मेरे बच्चे मेरे आंचल में कुछ पल आराम करेगें, उनके लिए कुछ आराम का सामान सजा दूं। सदियों से यहां हूं, मौसमों से लड़कर आज तक जंग जीतते आया हूं, भविष्य में भी लडूंगा और अपने रूह वाले बच्चों के लिए जीने का सामान बनाऊंगां। मैं तो उंची पहाड़ियों के कवि के लिए कोई नया मौसम बनाने का प्रंपच रचता हूं ताकि उसकी निंद्रा टूटे और उसकी कल्पनाओं की संतरंगी तहों से कुछ नायाब हीरे फूटने लगे। मुझे तो इन मगरूर बादलों को बरसने को मजबूर करना है, इन झरनों को लगातार प्रवाहमान होने का प्रेरणात्मक गीत सुनाना है, इन वादियों को हर सुंदर फूल खिलाने का स्वप्न दिखाना है। प्राणवान वायु को दूर रेगिस्तानों की और सफर के लिए तैयार करना है मुझे अनगिनत जीव जंतूओं को उनके जीवन का अर्थ समझाना है।’’
इधर गद्दियों के ऊपर सुरमई आकाश में सितारे इतनी तीर्वता से चमक रहे थे मानो वे आपस में प्रेम मिलन के बाद उनकी आंखों में एक नई चमक उतर आई हो। धरती और आसमान की दूरियों उन्हें मिलाने का पं्रपच रच रही थी। सदियों के विरह को जैसे उसने खत्म कर दिया था, रात उत्सव मना रही थी। लेखू को यही सितारे ईश्वर के घौंसले नजर आए, मौखू बस इन्हें देखने भर से मोहित हो उठा, सोमू नीचे धरती पर दूर झड़ आए सितारों को निहारकर प्रसन्नचित हो रहा था। शीतलता उनकी सख्त देहों से टकरा कर शर्मिंदा हो रही थी। उधर चांद की मति भ्रष्ट हो गई थी। सूर्य अपने अस्तित्व को मिटता महसूस कर रहा था, वह अपनी परम प्रिय धरती से मिलन नहीं कर पा रहा था, उसे कोई रोक रहा था , वह पथ भ्रष्ट बन रहा था वह अपने नियम से भटक रहा था वह नए साम्राज्य में दस्तक दे रहा था ।
​जोत के नीचे दूूर तक फैली चरागाह में बाहें फैलाकर लेखू बोला, ‘‘यहीं रूकते हैं हम मौखू, ये जगह वर्षोे से अभी भी उसी धुन में गीत गा रही है जैसे वर्षों पहले गाती है, मौखू तूने तो धर्मशाला भी न देखा होगा, जब हम नीचे उतरेगें तो उसकी एक झलक देख लेना, वैसे शहर के बीच तो हम आज तक नहीं गए, यही किस्मत है हमारी अब तो ऐसा लगता है कि हम चोर हैं। हम इस दुनिया की चरागाहों के चोर हैं, और हमारे सपने कोई और चुरा रहा है। कोई हमारे हिस्से को नजर लगा बैठा है।अब हमारा आना भी इन चरागाहों को फूटी आंख भी नहीं भाता है। बस हम अब इस जगह पर कुछ एक वर्ष ही आएगें। यहंा मौखू ने हैरानी से सवाल पूछ लिया, ‘‘क्यों? क्यों नहीं आएगें यहां? लेखू बोला, ‘‘जिस जगह पर आज हम बैठे हैं न, वहां सरकार पर्यटक गांव बनाने वाली है, लोग इस धौलाधार की खूबसूरती को निहारने आएंगे, यहां इंसानों का जमघट होगा, फिर ये चरागाहें सख्त पैंरों के नीचे कुचल दी जाएंगी, यहां नए रगों के कुछ पेड़ भी उग आएंगे, फिर यहां हमारे लिए जगह न होगी, तब हम सबको खटकेगें, फिर रात उतनी खामोश न होगी, सितारे भी चैन की नींद न सो पाएंगे। जो भी करना है, यही समय बचा है हमारे पास हमारी पंरपराओं में जकड़ा पेशा आंसूओं की धुंध में खो जाएगा, तब ये चांद, सितारे, घाटियां और ये उंचा स्वाभीमानी धौलाधार का शिखर हमें अपना नहीं नज़र आएगा, हमें पराए से ख्याल बन जाएंगें ।इसी घाटी में हमारी किस्मत को रोकने के लिए कंटीली तार लग जाएगी, जहंा हमारा रेवड़ दूर, खड़े होकर भय के साए में अपनी रातें बिताएगा, हम तब इन वादियों इन चरागाहों को भी पराए से नज़र आंएगे। चरागाहें फिर सभ्य इंसानों के पांवों के लिए नर्म बिछोने सी बन जाएगी, वे हमारी भेड़ों के लिए कोमल कोपलें उगाने का परम्परागत जुनून भूल जाएगी और नए सपनों से चकाचैंध हो जाएगी। इसी तरह और भी कई चरागाहें हैं जो अब उजड़ चुकी हैं आधुनिकता की रोशनी में नहा रहीं हैं हम देहातियों के लिए अब वे फिर से न लहलहाएंगी।’’
कोई तीन – चार दिन इधर -उधर हर चरागाह को छानकर वे तीनों अपने रेवड़ के साथ कई घाटियों और चरागाहों को पार करके एक आखिरी चरागाह की और निकल गए हैं जहंा शायद उनकी उम्मीदों का मौसम वैसा ही होगा, जैसे उनकी परिकल्पना में था। सबसे पहले तीनों ने कुणाह खड्ड के कोहले में उस मैहर के छोटे लड़के के खेतों में डेरा लगा लिया था जिसके पास लेखू अपने बापू के साथ डेरा लगाता रहा है।। लेखू ने खड्ड के आसपास कई झाड़ियों, मैहरों की ज़मीन के बांसों को काटकर उससे खेत के आस – पास बाड़ बना दी थी। पूरा दिन वह अकेला यहीं काम करता रहा था। बांस काटते उसे ख्याल आया था कि वर्षों पहले जब किसान मैहर के खेतों में डेरा लगता था तो वह उस वक्त कोई 14 – 15 साल का लड़का था। उसके बाप के साथ वह और उसका चाचा आते थे यहंा । उस वक्त का नज़ारा ही कुछ और था, जब शाम को रेवड़ इन उपजाऊ खेतों की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के मकसद से रात की खामोशी में आराम करता तो आसपास के गांव के लोग भी उनके डेरे में आ जाते और आधी – आधी रात तक खूब बातें होती, इतना प्यार था अलग – अलग जगहों के लोगों के बीच और ईज्जत थी हमारी। कुणाह खड्ड के एक ओर ऊंची श्रृंखलामयी धार इन गद्दियों के रेवड़ के लिए वरदान थी, दूसरी और खड्ड के किनारों की ज़मीनों में गांव वालों की घासनियां थी और खड्ड के साथ उपजाऊ मिट्टी मंे धान लगाने से पहले सर्दियों में भेड़ू बकरियों का मल उत्तम होता, अब न धान लगता है और लोगों की घासनियों का क्षेत्रफल भी कम हो गया।कई भाईयों के हिस्से में बंटी जमीनों में कितनी घासनियां बचेंगी। न बड़े किसान रहे और न बड़े टेले। छोटे – छोटे टुकड़ों में बांट दिया है। अब या तो अपने क्षेत्र में रहो या फिर वक्त की मार को सहते जाओ।
कोई तीन – चार महीने उन तीनों ने शिवालिक पहाड़ियों के आंचल में बसे गांवों की सरहदों में दुबली पतली चरागाहों में अपने रेवड़ को दौड़ाया, वे तीनों जहंा भी गए,बस लोगों की आंखों में खटकते रहे। उन्होंने ये सब बातें सुनी -अरे अब क्यों आए हो यहां, खेत तो हमने जोतने नहीं, तो फिर तुम्हारे रेवड़ को क्यों बिठाएं। – सीधे सड़क से आगे निकल जाना, हमने घासनियों में पौधे लगाएं हैं।- तुम अभी भी हो, हमने सोचा तुम अब यहंा कभी न आओगे- तुमहारी नस्ल अभी तक जिंदा है – यहंा समय किसके पास है तुम्हारे लिए।
धौलाधार के पहाडों़ पर फिर से गार्मियों का मौसम आ चुका था। लेखू के बेटे मौखू ने बाहरवीं की परीक्षा पास कर ली है। लेखू ने जैसे तैसे उसे पढ़ा दिया है यहां तक। बाहरवीं तक भी वह दस – बारह किलोमीटर तक पढ़ने जाता रहा है, गदिदयों के गांव में लड़के पढ़ तो गए है पर इतना नहीं पढ़े कि वो दूर 25 किलोमीटर बीए की पढ़ाई कर सके, और अगर बीए कर भी लिया तो फिर करेंगे क्या।रेवड़ अब लाहुल की बर्फ से नंगी हुई घाटियों की और निकलने की तैयारी कर चुका था। इस बार लेखू के बेटे ने भी साफ मना कर दिया था। वह चाहे घर में और लड़कांे की तरह नए सपने लेने के लिए तैयार हो गया था, पर लाहुल की कठिन चढ़ाईयों में अपने बाप संग नहीं भटकेगा। बापू मैं एक कहे देता हूंू मैं अब तुम्हारे साथ नहीं जा सकता। लोग हमारे बारे में इतना कुछ कहते हैं और वैसे भी मैं उजाड़ बीयावानों में भटक नहीं सकता।बेटा उन वातों को भूल जाओ वो तो हर पेशे मेें सुननी पड़ सकती हैं, पर अपना कीता अपना ही होता है, सदियों से हम यही करते आए हैं, तुम पराई चाकरी से खुश न रह पाओगें, ये काम हमारी आत्मा में गुलमिल गया है, कोई और काम करके हमें शांति नहीं मिलेगी। तुम चुपचाप दूसरों के दिए सपनों को भूल जा तेरे लिए ठीक रहेगा।
लेखू ने समय की बदलती धार तो देखी ही थी साथ में अपने बेटे के भविष्य की पतली लकीरें भी उसे जकड़ रही थी। क्या मौखू हमारा पुश्तैनी काम कर पाऐगा या फिर यह कोई पराई चाकरी ही करेगा। लेखू अपने बापू से बोला, ‘‘ बापू अब कहां है हमारी ईज्जत लोग हमारे पहुंचने से पहले ही यह फरमान जारी कर देते हैं कि बस टेल्लों से दूर रहना, घासनियों में भी हमने पेड़ लगा दिए हैं। बस सड़क से होते हुए आगे निकल जाना। बैठने को तो कोई कहता भी नहीं है। पहले तो सब गांव वाले अपनी बारियों का इंतजार करते थे। तूने तो देखा है बापू सब, जब हम जाते थे तेरे साथ, कितनी ईज्ज़त होती थी हमारी मुझे तो अब भी सब याद है, कांगड़ा, हमीरपुर के लोग तो सिर पर बिठाते थे।’’ बापू वह बुढ़ढा क्या नाम है उस गांव का, हां हां याद आया बलेटा गांव का मैहर, तुम्हारा तो खास दोस्त था वह , अब जब इस साल हम वहां गए थे। तो उसके लड़के ने तेरा नाम लिया था उसे भी तेरा नाम याद है, तेरा हाल चाल पूछा था, चार पांच दिन अपने खाली खेतों में भी बिठाया था भेड़ों को, पर वो प्यार जो कभी उस खड्ड के ऊपर की सुबह-शाम की धुंध से बरसता था, वह अब न दरिया के किनारे है और नही किसी ओर खड्ड में।
लेखू ने कई -कई दिन सोचा और फिर लाहुल की घाटियों की ओर निकल गया। लेखू सोचता रहा – अरे चरागाहें निचले इलाकों की खत्म हुई हैं इन पीर पंजाल की घाटियों में तो अभी बहुत कुछ है हमारी भेड़ों के लिए । पर मौखू को यह बाद समझ नहीं आ रही है। स्कूल जाने के बाद उसको सपने लेने की आदत पड़ गई है, हम अनपढ़ न कभी स्कूल देखा न किसी ने भेजा स्कूल तो अब खुले है हमारे समय में तो कोई 5 कोह पर भेजते थे तो हमें रास्ते पगडंडियां ही अच्छी लगती थी स्कूल कौन पहंुचता।
कई महीनों के बाद लौटकर लेखू लेखू ने अपने बापू से बात करनी चाही। ‘‘बापू तू ही बता कि अब मौखू को क्या करना चाहिए।तुम्हें अब मेरे फैंसले पर भी मुहर लगानी है। मैंने सोच लिया है कि अब मौखू हमारा पुश्तैनी काम नहीं करेगा। और उसकी भी यही इच्छा है कि वह हमारी तरह दूर घाटियों में भेड़ो के पीछे- पीछे नहीं दौडे़गा। मैं अब अपने बेटे को नहीं भटका सकता, मुझे दुख यही रहेगा कि मैं तेरे सिखाए परंपरागत हुनर को आगे नहीं बढ़ा पाया, पर मैं अब अपने बेटे को उन नीरस वादियों में नहीं भेज सकता, मैं चैड़ी दूर तक फैली सड़कों पर अपनी भेड़ – बकरियों को उससे नहीं हंकवा सकता। मैं अपना हुनर उसे नहीं बांट सकता। यह तो सिर्फ एक शर्त है कि हम उन लोगों के आकाश के नीचे न जाएं या फिर हम अपने रेवड़ के लिए यहीं कंटीली बाढ़ बना ले। मैं जब तक हो सकता है तेरी पंरपरा को जीवित रखूंगा, पर अपने बेटे को यह पुरातन काम नहीं करवा सकता।
जब मैं नए ज़माने के नौजवान लड़के लड़कियों को देखता हूं तो मुझे बहुत जलन होती है पढ़े लिखे लोग, नए स्वाभीमान से भरे पेशे अपना रहे हैं वे हमें अनपढ़ व हीन समझते हैं, वे अपनी किस्मत का खुद निर्माण कररहे हैं, वे हमें बदकिस्मत समझ रहे हैं।चिंता यह नहीं बस, मैं इस जिंदगी में तो यह काम निभा दूंगा, पर क्या यह मेरा लाल भी यही काम करंेगा, तुमने देखा नहीं, न तो वह कभी आगे हमारे साथ दूर लाहौल की वादियों मे गया, और न ही कांगड़े की घाटियां ठीक से देखीं। मुझे लगता है कि अब बुढ़ापे तक हमारे छप्पर के बाहर इन भेड़ – बकरियों का रेवड़ न टिकेगा। नए जमाने की हवा ने हमें बदलने पर मजबूर कर दिया है।जब परिवर्तन और नई सुविधाओं की रोशनी हमारे इन छप्पर नुमा घरों के दरवाजें पर खड़ी हैं तों फिर हम क्यों न इसे अपने तंग नीची छत वाले कमरों में आने का निमन्त्रण दे। जिंदगी में एक नया मोड़ आ चुका है बस शुरूआत करने की देर है। हमने सदियों से पुराने सिलसिले का बिना रूके चलाए रखा, इन खूबसूरत घाटियों, पहाड़ो नदियों, झरनों और चरागाहों के अहसान से कदम दर कदम चलाए रखा, पर अब सब कुछ बदल गया है बापू।’’
लेखू के बाप शोभू ने अपने बेटे की बातों के दर्द को महसूस किया पर एक खौफ के साए की पतली लकीर उसके चेहरे की झुरियों में खिंचती गई। अब वो इतना मजबूर हो गया था कि उस लकीर को अपने हाथोें से मिटा नहीं सकता था। उसकी जिंदगी का तो आखिरी पड़ाव है पर उसके बेटे पर ये बदलते समय का कौन सा बदसूरत रंग चड़ गया है, उसका सारा जुनून ही मिट गया है कौन है वह पापी जिसने इसके इरादों को छीन लिया है, कौन है वो मतलबी जिसने इसके हुनर को भी छीन लिया है। गद्दी परम्पराओं की मधुर धुन का राग क्या टूट कर बिखरने लग गया था कि यह राग बेराग होकर हमारे कानों में जहर घोल रहा है। संवेदनाओं की परिभाषा भी क्या बदल रही है। गद्दी की बांसुरी की धुन भी खो गई है। गद्दी का यायावरी सफर काल की गर्त में समा चुका है। वह जब गाँवों को जाता था तो बहुत सी अखरोट की छाल की दातुन ले जाता था। क्या ईज्जत होती थी पूरे गांव में वर्ना झाड़ियों, टेलों, खड्डों में अपनी भेड़ बकरियों के साथ भटकने वाले को कौन पूछता। उसे ऊमर के इस दौर में वह मैहरनी आज तक नहीं भूली है जो हर बार कहती थी कि शोभूआ जब भी यहां आओ तो मेरे हिस्से की दातुन अलग से रखा कर और औरतों को बाद में बांटा कर नहीं तो फिर उनसे ही ले लेना भेड़ों को बिठाने के लिए जमीन पूरे गाँव की औरतें भी उसके आते ही उसकी दातुन के लिए मारा मारी करती थी। बूढ़ा शरीर कुछ पल कांपता रहा, फिर अपने खयालों को दूर धौलाधार के बड़े पहाड़ पर झर – झर कर रेत में मिलता देखता रहा।
शोभू गद्दी इन्हीं विचारों में खोया था कि बाहर उसके सबसे छोटे बेटे सोमदत्त की आवाजें आने लगी। वह फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगा। वह भेड़ों को अपने छप्पर में हांक रहा था। शोभू ने अपना डंडा उठाया और उसके साथ बाहर की ओर निकलने लगा, ‘‘जरा आग तो जला बेटा, बाहर बैठते हैं, मन कुछ उदास सा हो रहा है। आग के अलाव में बापू बोला, ‘‘बेटा सोमू तू तो अपने भाई का साथ देना। तेरे लड़के भी तेरे बाद भी तो ये पुश्तैनी काम न करेंगे, लेखू का बेटा तो पहले ही समय के प्रवाह में बह गया है पर मेरे जीते जी तू अपने भाई का साथ देना, चाहे कुछ भ्ज्ञी हो ये काम न छोड़ना, इस जन्म में तो नहीं, अगले जन्म में पता नहीं हम किन घाटियों में उगेंगे या फिर आसमान में ही मंडराते रहेंगे। भोले बाबा की माया अब तो जरा समझ नहीं आती चलो फिर भी जो वक्त काट लिया, वही सही है। काले और उदास बादलों ने उनके सिर पर मंडराना शुरू कर दिया। दूर बर्फीली चोटी जहां शिव की धाम है कि तरफ से बिजली की घड़घड़ाहट के साथ चमक सामने घाटी पर फैल गई। गांव की रसोइयों से सफेद धुआं निकलकर शान्ति की तलाश में आकाश में गुम हो रहा था।
कुछ वर्षों के बाद इंद्राहर जोत की नीचे की घाटी में फैली धुंध में एक पर्यटन स्थल ऊभर कर आ गया था। अब वहंा एक छोटा आधुनिक पयर्टन गांव बस चुका था। उस गांव के दूर फैली घाटी में कई पगडंडियां बन चुकी थी। वहां दिन – रात एक शोर सुनाई देता था। चरागाहें पयर्टकों के जूतों से दिन- रात मसलती थी। सिर्फ सोमू ,लेखू जैसे गद्दियों के रेवडों़ का शोर वहां नहीं था। वहां के उस पार से आई हवा को अंदर आने से रोकने के लिए कंटीली तार लग चुकी थी। वहां कोई अन्जान मुफ्त में फटक नहीं सकता था।
इसी पयर्टन गांव के एक कोने में लेखू जैसे गद्दियों के कुछ कम पड़े लिखे लड़के को हाथोें में डंडा लिए गार्ड बनाकर खड़ा कर दिया था। मौखू पयर्टन गांव की क्रंकीट की दीवार में से निकले धौलाधार के ऊंचे पहाड़ को बौना बने देखते जा रहा था। फिर दूर इंद्राहर दर्रे से भेड़ – बकरियों का एक छोटा सा रेवड़ नजर आने लगा। वह बस उसे निहारता जा रहा था और शायद उसका मन छटपटा रहा होगा या फिर नहीं।

लेखक-संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857