उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग – 34 )

ममता की परीक्षा ( भाग -34 )

साधना को परबतिया के घर से बाहर निकलते देख गोपाल की जान में जान आई । बाहर खटिये पर पड़े गमछे को आगे बढ़कर उठाते हुए उसने कहना शुरू किया ,” कितनी तेज धूप है बाबूजी ! अभी थोड़ी ही देर पहले यह गीला गमछा यहाँ डाला था और अब देखो । पाँच मिनट भी नहीं हुए और यह सूख कर एकदम पपड़ी हो गया है । ”
गोपाल के मन में धूप को लेकर कोई बात नहीं थी बल्कि वह तो बस यही जताना चाहता था कि उनकी अनुपस्थिति में वह साधना के साथ घर में नहीं था अपितु कहीं बाहर था । मास्टर रामकिशुन ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया था क्योंकि उनका सारा ध्यान तो साधना की तरफ लगा हुआ था । हालाँकि साधना को देखने के बाद अब उनकी चिंता कम हो गई थी । गहरे निले रंग के सूट में साधना का गोरा रंग और निखर गया था । शुभ्र रंग का दुपट्टा उसने सलीके से सहेज रखा था । काले लंबे बाल कंधे पर बिखरे हुए थे । गोल ,गोरा चेहरा काले घने बालों के बीच से झाँकते हुए चाँद का अहसास करा रहा था । खूबसूरत तो वह थी ही । गोपाल की नजरें उसको देखने के बाद मानो वहीँ जम सी गईं । जबकि गोपाल की नज़रों को एकटक अपनी तरफ देखते महसूस कर साधना कुछ झेंप सी गई थी और लंबे डग भरते हुए मास्टर रामकिशुन की तरफ तेजी से बढ़ने लगी ।
गोपाल अभी भी अपने मन की बात कहने में कामयाब नहीं हुआ था । अपनी बात बताने के मकसद से बातों का क्रम आगे बढ़ाते हुए उसने कहा ,” बाबूजी ! गाँव का पोखर तो बहुत बढ़िया है लेकिन कच्चा है । अगर उसके किनारे कहीं घाट बनवा दिया जाता तो नहाने धोने में आसानी हो जाती । ” नागवारी के भाव लिए मास्टर रामकिशुन ने घूर कर उसकी तरफ देखा । गोपाल उनके चेहरे के भाव देखकर ही सहम गया था । पता नहीं क्या चल रहा था उनके दिमाग में ?
साधना के नजदीक आते ही मास्टर रामकिशुन की गंभीर आवाज गूँजी ,” कहाँ गई थी ? ”
” परबतिया चाची के यहाँ ! ” साधना ने संक्षिप्त सा ही जवाब दिया था ।
” और ये दरवाजा यूँ ही खुला छोड़कर ? ” मास्टर के चेहरे पर क्रोध के भाव थे ,” चार दिन शहर में क्या रहकर आई लापरवाही बढ़ गई ! जाना था तो कम से कम पहले दरवाजा तो भेड़ के या दरवाजे की सिटकनी लगा कर जाना चाहिए था । कोई कुत्ता या कोई और जानवर घर में घूस जाता तो ? आँगन में जो तुमने खाना बना कर रखा है सारा का सारा सत्यानाश हो जाता । कुछ ध्यान है तुम्हें ? चार किताबें पढ़ लिया तो ऐसा नहीं है कि इन जिम्मेदारियों से तुम्हें मुक्ति मिल गई ! अपना भला बुरा सोचने की जिम्मेदारी तो पूरी जिंदगी निभानी पड़ती है ! समझी ? ” मास्टर जी ने साधना को नसीहत की तगड़ी खुराक पिला दी थी ।
साधना नजरें नीची किये सब सुनती रही । उफ़ भी तो नहीं किया था उसने ! शायद अब उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था । गोपाल के जाते ही चुल्हे पर रखे दाल का बर्तन उतारकर उसने चावल चढ़ा दिया था । और फिर कुछ ही देर बाद वह चावल पक जाने पर वह लापरवाही से दरवाजा भेड़कर परबतिया चाची के घर चली गई थी । आज सुबह से उसके नल से बालू मिश्रित पानी निकल रहा था जिससे वह नहा नहीं सकती थी । वह जानती थी बोरिंग से पानी का अधिक दोहन होने से एक सीमा के बाद बालू मिश्रित पानी आने की संभावना बनी रहती है । दो चार दिनों में यह परेशानी स्वतः ठीक भी हो जाती है । ऐसे में परबतिया चाची के घर नहाने के लिए जाने का उसका फैसला उचित ही था । जाते हुए दरवाजा बंद न करने की उसकी लापरवाही ही मास्टर रामकिशुन को नागवार गुजर रही थी । मन की भड़ास निकालने के बाद मास्टर रामकिशुन अब थोड़े शांत लग रहे थे । गोपाल की तरफ मुखातिब होते हुए बोले ,” गाँव का तालाब है ! कच्चा तो रहेगा ही न ! शहरों के जैसा पैसा खर्च करने के लिए सरकारों के पास पैसा कहाँ है ? सरकारों को पैसा भी तो वही शहर वाले ही देते हैं न ? तो सुविधाएँ भी तो पहले उन्हीं को मिलेगी ? लेकिन तुम वहां क्यों गए थे ? ”
गोपाल को तो जैसे मौका ही मिल गया था । छूटते ही बोल पड़ा ,” बाबूजी ! बात तो आपने सही कही है कि सरकार को पैसे भी तो ये शहरी लोग ही देते हैं । सुख सुविधाओं पर उनका भी हक़ बनता है । तालाब पर मैं गया था नहाने के लिए । अकेले बैठे बोर हो रहा था इसलिए सोचा तफरीह भी हो जायेगी और नहा धो भी लूँगा । ”
” बोर क्यों हो रहे थे ? कोई काम नहीं था ? “मास्टर ने घूरते हुए उसे देखा था ।
” जी ! मुझे भला क्या काम हो सकता है ? बेकार ही बैठा था इसलिए बोर हो रहा था । ” गोपाल ने हड़बड़ाकर जवाब दिया । उसकी हड़बड़ाहट देखकर साधना की हँसी निकल गई जो अब तक उनके समीप आ चुकी थी ।
” बेकार क्यों थे ? क्या तुम्हें नहीं पता कि तुम्हें अपने माँ बाप से भी बात करनी है ? ” मास्टर रामकिशुन ने गोपाल को भी नसीहत देने में देर नहीं की थी ।
और कोई वक्त होता तो अब तक एक के बदले वह चार बात उनको सुना चुका होता लेकिन कहते हैं न जो इंसान किसीसे नहीं हारता अपने दिल के हाथों जरूर मजबूर हो जाता है ! गोपाल की हालत भी कुछ ऐसी ही थी । उनसे नजरें चुराते हुए गोपाल ने धीरे से कहा ,” वो आपने कहा था न कि मैं आऊँगा तब चलेंगे ! इसीलिये मैं आपकी प्रतीक्षा ही कर रहा था । और फिर अकेले डाकघर वाले किसी जानपहचान के आभाव में ट्रंककॉल थोड़े न बुक करते ईतनी जल्दी ! आप साथ होंगे तो वो लोग सही ध्यान देंगे । आखिर डाकविभाग सरकारी विभाग ही है न ? यहाँ आदमी नहीं उसके पहचान की कीमत ज्यादा होती है । ”
उसके खामोश होते ही मास्टर साहब बोले ,” ठीक है ! ठीक है ! मैं चलूँगा तुम्हारे साथ ! लेकिन पहले भोजन कर लिया जाय ! पता नहीं वहाँ कितना समय लगेगा ! ”
कुछ ही देर बाद गोपाल मास्टर रामकिशुन के साथ ही बरामदे में चटाई पर पालथी मारे भोजन कर रहा था । चावल और दाल के साथ ही आलू गोभी की सब्जी उसे बहुत स्वादिष्ट लग रही थी । साधना गरम गरम रोटी बनाती जा रही थी और उन्हें परोसते जा रही थी । साधना के पाककला की मन ही मन तारीफ़ करते हुए गोपाल ने भोजन समाप्त किया हाथ मुँह धोकर डाकघर जाने के लिए तैयार हो गया । मास्टर रामकिशुन अभी तक भोजन कर रहे थे । गोपाल का पहले उठ जाना उन्हें नागवार गुजरा था लेकिन बिना कुछ कहे वह शांति से भोजन कर उठे और बोले ,” बेटा ! तुम शहरी लोगों को भले ही दुनिया भर की जानकारी हो जाय , लेकिन मान अपमान या संस्कार की बातें तो गाँवों में ही दिखती हैं । शहरी लोगों को इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ सीखना होगा । ” गोपाल की समझ में उनकी कही बात नहीं आई लेकिन वह कर भी क्या सकता था ?
मास्टर रामकिशुन चल पड़े थे गाँव की पतली सी पगडंडी से होते हुए गाँव के अंतिम सिरे पर बने डाकघर की तरफ ! मास्टर लंबे लंबे डग भरते हुए चल रहे थे । गोपाल को उनके साथ चलने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी । मास्टर कुछ कदम आगे ही चल रहे थे । यह गाँव से बाहर एक सुनसान सी जगह थी । पगडंडी किसी घर के पिछवाड़े से होकर गई थी । पगडंडी के किनारे ही एक विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे मास्टर रामकिशुन रुके और मुड़कर पीछे देखा । गोपाल तेज चलता हुआ करीब पहुँचा । मास्टर ने उसे ध्यान से देखते हुए पूछा ,” बेटा ! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुमसे क्या कहूँ ? दरअसल ऐसी सोच होने के पीछे एक सबसे बड़ी वजह ये है कि मैं एक जवान बेटी का बाप हूँ और दूसरी सबसे बड़ी बात ये भी है कि हम एक समाज में रहते हैं जिसके कुछ दायरे हैं , नियम कायदे हैं जिनके तहत ही हमें जीना होता है । इसलिए बेटा बुरा नहीं लगाना , मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या तुम वाकई साधना के साथ गाँव देखने के लिए ही यहाँ आये हो ? ”
सवाल अपेक्षित ही था और गोपाल इस सवाल का सामना करने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर चुका था । कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि मास्टर की आवाज फिर आई , ” वो क्या है न बेटा कि अगर मुझे वास्तविकता की जानकारी रहेगी तो मैं उसी के अनुरूप ज़माने से मुकाबला कर सकूँगा । ”

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।